लेटरल एंट्री नहीं, एससी-एसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण है बड़ी चुनौती

लेटरल एंट्री नहीं, एससी-एसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण है बड़ी चुनौती

जब संघ लोक सेवा आयोग ने 17 अगस्त को लेटरल एंट्री के जरिए 45 संयुक्त सचिवों, निदेशकों और उपसचिवों की भर्ती के लिए अधिसूचना जारी की थी तो कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना की. लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का मानना है कि लेटरल एंट्री दलितों, आदिवासियों और ओबीसी पर हमला है. विपक्ष की ओर से आरोप लगाने के बाद वैकेंसी को फिलहाल के लिए रोक दिया गया है. 

आरक्षण समाप्त करने का आरोप 

राजद नेता तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार व्यवस्थित तरीके से आरक्षण को समाप्त कर रही है. लोकतांत्रिक मुल्क में विपक्ष की आवाज को दबा देना सत्ता पक्ष के लिए आत्मघाती कदम सिद्ध हो सकता है. दरअसल आरक्षण का मकसद देश के संसाधनों, अवसरों व शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की भागीदारी सुनिश्चित करना है. लोक नियोजन में अवसर की समानता के सिद्धांत का अनुपालन आवश्यक है. स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही दलितों एवं जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों व शिक्षा में आरक्षण के प्रावधान लागू हैं. मंडल आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन के पश्चात् अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों को भी आरक्षण की सुविधा मिलने लगी.

इन दिनों जातीय जनगणना की मांग को लेकर भी राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है. आंकड़ों के अभाव में देश के संसाधनों, अवसरों एवं राजकाज में किस जाति और जातीय समूह की कितनी हिस्सेदारी है, इसका सटीक तुलनात्मक अध्ययन संभव ही नहीं है. अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षण लागू होने के सात दशक बीत चुके हैं, लेकिन मूल प्रश्न अपनी जगह कायम है कि क्या सभी उपजातियों को आरक्षण का लाभ मिल पाया है या नहीं क्योंकि केंद्रीय एमएसएमई मंत्री जीतन राम मांझी ने एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण की मांग की है. उन्होंने कहा है कि बिहार में 18 जातियों को आज तक आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है.

जीतन राम मांझी हैं क्रीमीलेयर के पक्ष में 

जीतन राम मांझी ने बिहार और केंद्र सरकार से आग्रह किया है कि आरक्षण में उपवर्गीकरण कर वंचित दलित को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया जाए. श्री मांझी ने संपन्न दलितों पर आरोप लगाया है कि वे झूठी बातें करके आरक्षण खत्म करने का भ्रम फैला रहे हैं. उन्होंने एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध कई दलित संगठनों के 21 अगस्त को भारत बंद के आह्वान को अनुचित और नेतृत्वविहीन माना है. गौरतलब है कि केंद्र सरकार इस मामले में अपना रुख स्पष्ट कर चुकी है कि वह उपवर्गीकरण के पक्ष में नहीं है. इसके बावजूद विपक्षी दल सरकार को घेरने में पीछे नहीं हैं.

भारत में चुनावी मौसम कभी खतम नहीं होता है. इसलिए कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण जैसे संवेदनशील मसले पर किसी विवाद में उलझना नहीं चाहता. आने वाले महीनों में हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, झारखंड एवं महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने हैं. केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा के लिए मुश्किलें कम नहीं हैं. हाल ही में संपन्न हुए 18 वीं लोकसभा चुनाव में भाजपा एवं उसके सहयोगी दलों को विपक्ष के नैरेटिव “संविधान खतरे में है” के कारण काफी नुकसान हुआ था. लेटरल एंट्री के मुद्दे पर एनडीए में शामिल लोजपा और जद(यू) के नेता अपनी विपरीत राय व्यक्त कर चुके हैं. 

लेटरल एंट्री को लाना अब इतना आसान नहीं 

अब भाजपा के लिए यह संभव नहीं है कि वह सामाजिक ढांचे की सच्चाई को नकार कर लेटरल एंट्री की नीति का समर्थन करे. बसपा प्रमुख मायावती एवं सपा नेता अखिलेश यादव ने भी सीधी भर्ती की प्रक्रिया को संविधान विरोधी माना है. अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त लोगों की सरकारी पदों पर नियुक्ति से नि:संदेह बेहतर परिणाम की उम्मीद की जा सकती है ,क्योंकि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी नियमों के मुताबिक काम करने के लिए जाने जाते हैं. ऐसे में नवाचार का पथ प्रशस्त नहीं हो पाता है. लेकिन जिन सामाजिक समूहों ने जाति व्यवस्था के कारण अपमान का दंश झेला है उन्हें विश्वास में लेने के लिए कोई तंत्र विकसित करना होगा.

लेटरल एंट्री की व्यवस्था उन लोगों के लिए अभिशाप साबित हो सकता है जो अपनी नियुक्ति या पदोन्नति के लिए ईमानदारी से कार्य करते हैं. सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक न्याय की अवधारणा पर आधारित है और इसका उद्देश्य शासकीय ढांचे सभी वर्गों की सहभागिता को सुनिश्चित करना है. एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा का आरक्षण-विरोधी दिखना उसके दीर्घकालीन हितों के विरुद्ध है. लेटरल एंट्री के मामले में प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से प्रतीत होता है कि जमीनी हकीकत को स्वीकार कर ही प्रशासनिक सुधार संभव है. 

क्रीमीलेयर के पक्ष और विरोधी दोनों 

दलित एवं पिछड़ी जातियों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना विस्तार हुआ है. मध्यम एवं निम्न समझी जानी वाली जातियां आगे आने लगीं हैं. वे राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील भी हैं. जाति का राजनीतिकरण हुआ है. इसे सकारात्मक बदलाव के रूप में देखने की जरूरत है. भारत में लोग जातियों के आधार पर ही संगठित हैं. इसलिए नफे व नुकसान की चर्चा आधारित होती है तो यह कोई आश्चर्यजनक परिस्थिति नहीं है.

नवीन मूल्यों और तरीकों की खोज तो निरंतर जारी रहनी चाहिए, लेकिन इस स्वीकारोक्ति के साथ कि जाति ही भारतीय लोकतंत्र की धुरी है. संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा लेटरल एंट्री से संबंधित विज्ञापन को वापस लिए जाने को विपक्षी पार्टियां अपनी जीत बता रहीं हैं. उन्हें जश्न मनाने का अवसर जरूर मिला है. लेकिन अगली चुनौती एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण की मांग है. इस मसले पर जीतन राम मांझी की राय न्यायोचित है, हालांकि अन्य दलित नेता वर्तमान व्यवस्था के ही पक्षधर हैं. आरक्षण की व्यवस्था अगर कुछ नेताओं के हाथों का खिलौना बन जाए तो नई पहल का स्वागत किया जाना चाहिए.

 [नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि  …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]   

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