पेंशन के सवाल पर कई सवाल ?

पेंशन के सवाल पर कई सवाल: तत्कालीन पीएम वाजपेयी ने नहीं टेके घुटने, मनमोहन ने भी तैयार नहीं होने दिया माहौल
तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने घुटने नहीं टेके और उनके बाद मनमोहन सिंह ने भी 10 सालों तक इसके लिए कोई माहौल तैयार नहीं होने दिया। नरेंद्र मोदी भी 10 सालों तक आगे नहीं बढ़े, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने पूरी स्थिति को ही बदल डाला।

P Chidambaram Opinion on Indian Pension System Vajpayee and Dr Manmohan Singh regime
पेंशन (सांकेतिक तस्वीर) 

केंद्र में सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल, अन्य पार्टियां और राज्यों के मुख्यमंत्री पेंशन के सवाल पर खुद को दुविधा की स्थिति में पाते हैं। भारत में एक निश्चित आयु वर्ग के लोगों को पेंशन नहीं मिल रही है। यहां इस तरह की कोई भी सामाजिक सुरक्षा योजना नहीं है, जो नागरिकों को पेंशन दिला सके। निजी क्षेत्र में लाखों की संख्या में लोग काम कर रहे हैं, जिन्हें सेवानिवृत्ति पर कोई पेंशन नहीं मिलती है। यहां तक कि भारतीय सेना के शॉर्ट सर्विस कमीशन वाले अधिकारियों को भी पेंशन नहीं मिलती है।

पेंशन पर बहस
जब तक लोगों में जीवन प्रत्याशा कम थी, पेंशन का कोई खास महत्व नहीं था। उस समय कुछ ही लोगों को पेंशन मिलती थी, लेकिन ऐसे कुछ ही लोग थे, जो सेवानिवृत्ति के बाद अधिक समय तक जीते थे। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब जीवन प्रत्याशा 35 वर्ष से कम थी। आज यह 70 वर्ष से थोड़ा अधिक है। औसत रूप से पेंशन की बाध्यता तो रिटायरमेंट के 10 से 12 सालों तक बनी रहेगी, लेकिन अगर पारिवारिक पेंशन की व्यवस्था है तो यह जीवनसाथी को भी जारी रह सकती है। यही वजह है कि ज्यादातर नियोक्ता पेंशन को लेकर सतर्क रहते हैं। लेकिन कर्मचारियों के लिए यह मामला काफी महत्वपूर्ण है। उनका मानना है कि पेंशन उनकी लंबी वफादारी के साथ पूर्ण सेवा द्वारा प्राप्त किया गया अधिकार है या पेंशन ही सेवानिवृत्ति के बाद सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार का रास्ता है।

सरकारी कर्मचारियों को पेंशन के अधिकार पर हुई बहस में जीत हासिल हुई और यह बिल्कुल सही फैसला था। जिन लोगों ने पेंशन से वंचित लोगों की तरफ इशारा किया, उन तक भी पेंशन की सुविधा पहुंचनी चाहिए। सही मायनों में सभी वर्गों के लोगों के लिए एक सार्वभौमिक पेंशन योजना होनी चाहिए। जैसे-जैसे सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन की शुरुआत हुई, एक सुनिश्चित न्यूनतम पेंशन की अवधारणा ने भी जड़ें जमा लीं। यह अवधारणा अंतिम प्राप्त मूल वेतन और महंगाई भत्ते के 50 प्रतिशत पर टिकी।

कैसे बदलीं परिस्थितियां
जब जनवरी 2004 में नई पेंशन योजना (एनपीएस) ने पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की जगह ली तो इसने पेंशन के दो स्तंभों को हिलाकर रख दिया। इसने गैर अंशदायी परिभाषित लाभ योजना को मौलिक रूप से परिभाषित अंशदान योजना में बदल दिया और चुपचाप न्यूनतम पेंशन की अवधारणा को छोड़ दिया। इसका  विरोध शुरू हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने घुटने नहीं टेके और उनके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 10 सालों तक इसके लिए कोई माहौल तैयार नहीं होने दिया। इसी तरह नरेंद्र मोदी भी 10 सालों तक आगे नहीं बढ़े, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने पूरी स्थिति को ही बदल डाला।

3 अगस्त, 2022 को जारी पीआईबी की एक विज्ञप्ति के अनुसार, केंद्र सरकार के पेंशनभोगियों की कुल संख्या 69,76,240 थी। 2024-25 में पेंशन पर बजटीय व्यय 2,43,296 करोड़ रुपये है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, मार्च 2023 तक एनपीएस में 23.8 लाख केंद्रीय कर्मचारी और 60.7 लाख राज्य सरकार के पात्र कर्मचारी हैं। 2024 में संख्या थोड़ी अधिक या थोड़ी कम हो सकती है, लेकिन हम अनुमानित आंकड़े पर बात करते हैं। यह भारत की जनसंख्या का एक अंश है। एक अप्रदत्त पेंशन योजना, जो कि ओपीएस थी, अर्थव्यवस्था को वित्तीय रूप से बर्बाद कर देगी। सरकारें वर्तमान राजस्व से भुगतान नहीं कर सकतीं। किसी को इस योजना को वित्तपोषित करना होगा। यह या तो सरकार है या कर्मचारी या दोनों। एनपीएस एक ऐसी योजना थी, जिसे सरकार (14 प्रतिशत) और कर्मचारी (10 प्रतिशत), दोनों द्वारा वित्तपोषित किया गया था।

एकीकृत पेंशन योजना (यूपीएस) सरकार द्वारा घोषित एक वित्तपोषित योजना है, जिसमें सरकार की भागीदारी 18.5 प्रतिशत और कर्मचारी की भागीदारी 10 प्रतिशत रहेगी। एकीकृत पेंशन योजना कम से कम 25 सालों की सेवा पूरी करने वालों को सेवानिवृत्ति से पहले 12 महीनों में प्राप्त औसत मूल वेतन का 50 प्रतिशत न्यूनतम पेंशन की गारंटी भी देता है। इसमें हर महीने 10 हजार रुपये की न्यूनतम पेंशन देने का आश्वासन दिया गया है, जिसे मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित किया जाएगा। हालांकि इसकी अंतिम रूपरेखा का अभी इंतजार करना होगा।

अभी तक किसी राज्य ने यूपीएस पर कोई टिप्पणी नहीं की है। कांग्रेस समेत बड़ी राजनीतिक पार्टियां, यूपीएस पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। हालांकि केंद्रीय कर्मचारियों के कई संगठनों और कई केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने पेंशन फंड में कर्मचारी के योगदान का विरोध किया है।

फंडिंग पर संशय
यह सरकार, राजनीतिक दलों और कर्मचारी संगठनों के लिए एक संशय की स्थिति है। अगर राजकोषीय दृष्टिकोण से बात की जाए तो यूपीएस को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। हालांकि कुछ सवाल अभी भी बने हुए हैं-

  1. क्या कर्मचारी के योगदान और सरकार के योगदान के बीच का अंतर, जो अब 8.5 प्रतिशत है, भविष्य में बढ़ेगा?
  2. टीवी सोमनाथन ने कहा कि “सरकार इस कमी को पूरा करेगी।” क्या यह ‘पे ऐज यू गो’ से एक कदम दूर नहीं है?
  3. अगर योगदान का 10+10 प्रतिशत अनुमोदित पेंशन फंड प्रबंधकों को सौंपा जाएगा, तो क्या 8.5 प्रतिशत योगदान का निवेश किया जाएगा और यदि हां, तो किसके द्वारा और कहां?
  4. पहले वर्ष के लिए 6,250 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि को कम करके आंका गया प्रतीत होता है, क्या यह सच है?
  5. क्या कैबिनेट द्वारा यूपीएस को मंजूरी दिए जाने से पहले राज्य सरकारों से परामर्श किया गया था? क्या कर्मचारी संघ इसमें शामिल होंगे? अब यह देखना भी दिलचस्प है कि हितधारक इस दुविधा से कैसे बाहर निकलते हैं?

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