बिजनेस लंबा चलाना है, तो ईमानदारी से लोगों की हेल्थ पर फोकस हो

बिजनेस लंबा चलाना है, तो ईमानदारी से लोगों की हेल्थ पर फोकस हो

नौ साल पहले की बात है, मुंबई में रहने वाली एक लड़की, जिसे मैं उसके बचपन से जानता था, वह बेंगलुरु शिफ्ट हो गई और टाटा एंटरप्राइजे़स की चश्मा शाखा में रिटेल सेल्स मैनेजमेंट एग्जीक्यूटिव की नौकरी जॉइन की।

जब उसने मुझे इस नई नौकरी के अवसर के बारे में बताया, तो मैं थोड़ा असमंजस में था कि क्यों टाटा का चश्मा डिवीजन या अन्य चश्मा ब्रांड बुजुर्ग आबादी वाले शहरों के बजाय युवा आबादी वाले शहरों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

एक सरसरी रिपोर्ट से मुझे समझ आया कि युवा आबादी अपने कपड़े व जीवनशैली से मेल खाने के लिए चश्मे के फ्रेम तेजी से बदलती है और कई फ्रेम भी खरीदती है। पर एक महीने शोध करने और नेत्र रोग विशेषज्ञों से बात करने के बाद मुझे राज की बात पता चली।

उन्होंने बताया कि स्क्रीन लगातार देखने से युवाओं की आंखें तेजी से कमजोर हो रही हैं, जितना कि पुराने लोगों की 40-50 की उम्र तक आते-आते होती थीं। इसलिए अभी रिटेल आउटलेट शुरू करना बेहतर है और उन्हें फैशन से भरे रंगीन फ्रेम बेचकर धीरे-धीरे उनका विश्वास जीतें और फिर जब उन्हें चश्मे की जरूरत होगी, तो ग्राहकों के दिमाग में वही ब्रांड याद आएगा।

मुझे ये बात तार्किक लगी, पर ताज्जुब हुआ कि क्या सारे ब्रांड्स इतना लंबा रुक सकते हैं कि जब उनके ग्राहक आधी उम्र में पहुंचें और उनकी आंखों की रोशनी कमजोर हो? जिस चीज ने आंखों की रोशनी सबसे ज्यादा प्रभावित की है, वो कोविड नामक विलेन है, जिसने ऑनलाइन मीटिंग, वर्क फ्रॉम होम और बोरियत दूर करने के लिए घरों में ओटीटी प्लेटफॉर्म को दाखिल किया।

और आज चश्मे की तमाम कंपनियां युवाओं का अपने शोरूम में स्वागत कर रही हैं क्योंकि स्क्रीन के सामने घंटों बैठे रहने से उनका विजन घट-बढ़ रहा है, जिससे उन्हें बार-बार आंख का नंबर चेक कराने जाना पड़ रहा है।

किसी भी नेत्र रोग विशेषज्ञ से पूछें, वे इसकी पुष्टि कर देंगे कि कई लोग बार-बार सिर दर्द और विजन में उतार-चढ़ाव की शिकायतें लेकर आ रहे हैं, जिसके चलते उन्हें उनके चश्मे का नंबर नियमित तौर पर अपडेट करना पड़ रहा है।

यहां तक कि मैं खुद पिछले दो सालों से, साल में दो बार से ज्यादा चश्मा बदल चुका हूं, जबकि कोविड के पहले ऐसा नहीं था। न सिर्फ भारत, बल्कि सारे देश मायोपिया नामक महामारी से जूझ रहे हैं, जहां लोगों को नजदीकी चीजें दिखती हैं, पर दूर की चीजें देखने में दिक्कत आती है।

लंबे समय तक स्क्रीन देखने से आंख की पुतली लंबी हो जाती है और मायोपिया हो जाता है। सिर्फ ये बायोलॉजिकल कारक ही नहीं हैं, जिन पर हर कंपनी को ध्यान देना चाहिए, स्वास्थ्य से जुड़े भोजन में भी आगे बढ़ने के अवसर हैं।

बड़ी ग्रॉसरी की दुकानों में आप जाएं, तो वहां लो-कोलेस्ट्रॉल घी, शुगर के प्रति सजग रहने वालों के लिए खाद्य तेल, इम्यूनिटी बढ़ाने वाला आटा, चावल, शुगर, कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स (जीआई) वाले आलू, विटामिन वाली चाय और आयरन-विटामिन वाला नमक मिल जाएगा।

ड्रिंक्स और स्नैकिंग भी उसी 40-50 आयु वर्ग वाले लोगों को लक्ष्य कर रहे हैं क्योंकि वे जब तक 60 के नहीं हो जाते, उनका करिअर है, वे कमा रहे हैं और स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहते हैं। इसके अलावा अगर खान-पान की वही चीजें शरीर की देखभाल की गारंटी देती हैं, तो वे उसी खाने के लिए 25 से 35% ज्यादा राशि चुकाने तैयार हैं।

हालांकि, इस क्षेत्र में भ्रमित करके बेचना चिंता के रूप में उभरा है। किसी को नहीं पता कि दावे कितने सच हैं, पर ग्राहकों के दिमाग में गहरा असर डालते हैं। पिछले हफ्ते, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे महंगे दामों पर बेच रहे दूध और दुग्ध उत्पादों से ‘ए2 मिल्क’ का दावा हटाएं।

दूध का व्यापार कर रही सबसे बड़ी कंपनियां जैसे अमूल, घी 650 रु. किला बेच रही हैं, जबकि कुछ ब्रांड्स घी 1800 से 2500 रु. किलो तक बेच रही हैं। ऐसी विसंगति ग्राहक के मन में संदेह का बीज बोती हैं।

फंडा यह है कि अगर आपका उत्पाद इंसानों के स्वास्थ्य की परवाह करता है, वो भी ईमानदारी से, तो आपके बिजनेस का लंबा चलना तय है।

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