कंगना की फिल्म ‘इमरजेंसी’ पर क्यों उठे सवाल?

कंगना की फिल्म ‘इमरजेंसी’ पर क्यों उठे सवाल?

कंगना जबकि अब भाजपा की सांसद भी हैं, आप यही उम्मीद करेंगे कि उनकी फिल्म में इंदिरा को उस दौर में प्रस्तुत किया जाएगा, जब वे संविधान का उल्लंघन कर रही थीं। संविधान की इंदिरा द्वारा अवमानना को भाजपा ‘ब्रह्मास्त्र’ के रूप में इस्तेमाल करती रही है।

इंदिरा के अधिनायकवादी अवतार को एक कुशल अभिनेत्री परदे पर प्रस्तुत करे, इससे बढ़िया ‘आइडिया’ क्या हो सकता था? फिर चूक कहां हुई? मैंने फिल्म का सिर्फ ट्रेलर देखा है, इसलिए मैं कह नहीं सकता कि फिल्म अच्छी है या खराब।

मैं यह भी नहीं कह सकता कि फिल्म में जरनैल सिंह भिंडरांवाले के किरदार में जिस अभिनेता को जेल से बाहर निकलते और बाद में सिखों की भीड़ को संबोधित करते दिखाया गया है, उसे फिल्म में वास्तव में भिंडरावाले ही बताया गया है या नहीं।

इस अभिनेता को कांग्रेस के नाम पंजाबी में यह संदेश भी देते दिखाया गया है कि ‘तुम्हारी पार्टी को वोट चाहिए, हमें खालिस्तान चाहिए’। इस दृश्य ने सिखों को नाराज कर दिया है और सम्मानित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) भी विरोध में उतर आई है।

फिल्म इसलिए मुश्किल में नहीं फंसी थी कि यह इंदिरा गांधी को बुरी नेता के रूप में पेश करती है और उनके मुंह से ऐसी बातें कहलवाती है, जो उन्होंने कभी नहीं बोलीं। ट्रेलर में रनौत को ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ बोलते दिखाया गया है।

इंदिरा गांधी ने ऐसा कभी नहीं कहा था। यह जुमला तो 1976 में देवकांत बरुआ ने बोला था। 1980 के दशक के शुरुआती दिनों में मैं कभी-कभी नौगांव में उनके घर जाया करता था। अपनी उस एक ‘गफलत’ को लेकर वे काफी पछतावा जताया करते थे।

वैसे कांग्रेस वाले कोई विरोध नहीं कर रहे हैं, लेकिन फिल्म में भिंडरांवाले के संदर्भ को जोड़ना जरूरी था क्योंकि कथित जीवनगाथा में इस बात को रेखांकित करना था कि श्रीमती गांधी ने सिख अलगाववाद के मामले में गैर-जिम्मेदाराना रुख अपनाकर अपनी हत्या को बुलावा दिया।

समकालीन इतिहास में ऐसे पर्याप्त सबूत उपलब्ध हैं, जो बताते हैं कि शुरुआती चरण में कांग्रेस, खासकर ज्ञानी जैल सिंह ने भिंडरांवाले को इस उम्मीद में संरक्षण दिया कि वह ‘एसजीपीसी’ के चुनाव में शिरोमणि अकाली दल को मुश्किल में डालेगा, लेकिन यह दांव नाकाम रहा और भिंडरांवाला एक ताकत बनकर उभरा।

1983 की गर्मियों में सेना जब ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ करने पहुंची थी, उससे पहले मैं एक रिपोर्टर के नाते भिंडरांवाले से दर्जनों बार मिला था। उसे मैंने कभी खालिस्तान की मांग करते नहीं सुना। भिंडरांवाले के भाषणों के सैकड़ों घंटे के टेप उपलब्ध हैं।

उसके संदेश का चाहे जो भी अंश हो, कोई भी इशारा या कोई भी एक्शन हो, उसने कभी खालिस्तान का नाम नहीं लिया। हम सभी रिपोर्टरों ने खालिस्तान पर उससे कभी-न-कभी सवाल जरूर पूछे, उसका हमेशा बना-बनाया जवाब यही होता था : ‘मैंने कभी खालिस्तान की मांग नहीं की, लेकिन ‘बीबी’ (इंदिरा गांधी) या ‘दिल्ली दरबार’ अगर मुझे यह दे दे तो मैं ना नहीं कहूंगा।’

सबक यह है कि आप इंदिरा गांधी के मुंह में तो कोई भी शब्द डाल करके बच सकते हैं, लेकिन भिंडरांवाले की मौत के 40 साल बाद भी आपने उसके साथ ऐसा कुछ किया तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। ऐसी तमाम फिल्में या टीवी सीरियल इसलिए मुश्किल में फंसते हैं, क्योंकि वो इस फरेब की ओट लेने की कोशिश करते हैं कि ये सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। इसलिए, आप तथ्यों में से मनमर्जी चुनाव कर सकते हैं और उन्हें कथा के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं, पर सुविधाजनक तथ्यों व पक्षपातपूर्ण कथा के मेल से विकृत ‘प्रोपगैंडा’ ही तैयार होता है।

सोनी-लिव पर दो सीजन तक चले ‘रॉकेट बॉय्ज’ (2022-23) को ही लीजिए। इसने वास्तविक नायकों होमी भाभा और विक्रम साराभाई की जीवनगाथा को चुना, मगर हर एक एपिसोड के साथ उसे गल्प में तब्दील करता गया।

दलित वैज्ञानिक मेघनाद साहा को भाभा से ईर्ष्या करने वाले मुसलमान के रूप में पेश किया गया। इसके अलावा, सीआईए और दूसरी बुरी ताकतों के साथ साजिश आदि के पहलू भी शामिल कर दिए गए और इस सबका बचाव रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर किया गया।

हकीकत यह है कि हम अपने नेताओं पर बनी फिल्मों या जीवनियों में उन्हें देवता के सिवा और किसी रूप में देखना गवारा नहीं करते। आम्बेडकर, शिवाजी, करुणानिधि, बालासाहेब ठाकरे, झांसी की रानी, कांशीराम आदि किसी के भी जीवन पर एक ईमानदार, सच्ची फिल्म तो नामुमकिन है।

यह बात इस पूरे उप-महादेश पर लागू होती है। यही वजह है कि हमारी सबसे महत्वपूर्ण हस्तियों पर प्रामाणिक जीवनियां विदेशियों ने लिखी हैं। ‘गांधी’ फिल्म भी एक विदेशी ने ही बनाई। रिचर्ड एटेनबरो ने 1963 में जब नेहरू से कहा था कि वे गांधी के जीवन पर फिल्म बनाना चाहते हैं, तब उन्हें सलाह दी गई थी कि उन्हें देवता मत बना दीजिएगा बल्कि वे जैसे थे, अपनी कमजोरियों के साथ, वैसा ही उन्हें प्रस्तुत कीजिएगा।

आज क्या ऐसी सलाह दी जाएगी? हमारे यहां तो खिलाड़ियों की जीवनी तक छद्म नामों से लिखी जाती है, उनके जीवन पर बनी फिल्मों के सह-निर्माता खुद इसके स्टार ही होते हैं। हमारे सैन्य इतिहास, युद्धों पर बनीं फिल्में भी इसी रोग से ग्रस्त दिखाई देती हैं।

अनुकूल तथ्यों का चयन… एक कहानी सुनाने और उसे विश्वसनीय बताने के लिए केवल अपने अनुकूल तथ्यों को चुनना रचनात्मक एवं बौद्धिक बेईमानी है। यह इतिहास को तोड़मरोड़कर पेश करना, किसी को बेवजह बदनाम करना और किसी का महिमामंडन करना है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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