भारत में गरीबों की थाली में कितना प्रोटीन?

भारत में गरीबों की थाली में कितना प्रोटीन? जेंडर के मामले में भी भारी अंतर
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के आंकड़े के अनुसार भारत में प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे अंडे, मछली और मांस समाज के अलग अलग वर्गों में असमान रूप से बंटे हुए हैं. 

हमारे देश में भोजन सिर्फ पेट भरने का जरिया नहीं है, बल्कि यह समाज की परंपराओं और भेदभाव का आईना भी है. हैरानी की बात ये है कि भारत में आज भी जाति और लिंग के आधार पर ये तय है कि किसकी थाली में क्या आएगा. खासकर प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों की बात करें तो अंडा, मछली, और मांस जैसे खाद्य पदार्थ हर किसी को समान रूप से नहीं मिलते. 

समाज के कमजोर वर्गों से आने वाले लोग अक्सर इस पोषण से वंचित रह जाते हैं. यह स्थिति सिर्फ गरीबी नहीं, बल्कि समाज में गहराई से फैली असमानता और भेदभाव का नतीजा भी है.

इस बीच राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) का एक आंकड़ा सामने आया है जो भारत में जाति और जेंडर के आधार पर पोषण में असमानता की कहानी बताते हैं. इस आंकड़ें के अनुसार प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ जैसे अंडे, मछली और मांस समाज के अलग अलग वर्गों में असमान रूप से बंटे हुए हैं. 

ऐसे में इस रिपोर्ट में विस्तार से जानते हैं कि भारत में कैसे जाति और जेंडर के आधार पर खाने की थाली बदल जाती है और इसका शरीर पर क्या असर पड़ता है 

सबसे पहले समझिये कि संतुलित आहार है क्या 

संतुलित आहार या भोजन वो होता है जिसमें शरीर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सभी तरह के पोषक तत्व सही मात्रा में हों. इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन, खनिज और फाइबर शामिल होते हैं. संतुलित आहार हमें न केवल स्वस्थ बल्कि ऊर्जावान भी बनाए रखता है.

एससी-एसटी महिलाओं के खाने की थाली में कितना प्रोटीन

भारत की करोड़ों महिलाओं को आज भी प्रोटीन से भरपूर भोजन नहीं मिल पा रहा है. एनएफएचएस-5 के आंकड़े के अनुसार अनुसूचित जाति (SC) की महिलाएं केवल 48.4 प्रतिशत ही अंडे खाती हैं, जबकि मात्र 37.4 प्रतिशत महिलाएं मछली और 37.7 प्रतिशत महिलाएं सप्ताह में कम से कम एक बार चिकन या मांस का सेवन करती हैं. 

वहीं अनुसूचित जनजाति (ST) की महिलाओं की स्थिति भी उतनी ही गंभीर है. रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 46.4 प्रतिशत महिलाएं अंडे खाती हैं, और 36 प्रतिशत महिलाएं सप्ताह में एक बार मछली का सेवन करती हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की महिलाओं में, सिर्फ 32.4 प्रतिशत महिलाएं मछली और 33.7 प्रतिशत महिलाएं चिकन या मांस खाती हैं. 

ये आंकड़े एक असहज वास्तविकता को उजागर करते हैं. भारत में आज भी कई महिलाओं, खासकर हाशिये पर मौजूद जातीय समूहों की महिलाओं के लिए, भोजन के विकल्प धार्मिक पसंद से नहीं, बल्कि आर्थिक सीमाओं और सामाजिक बहिष्कार से तय होते हैं.

भारत में गरीबों की थाली में कितना प्रोटीन? जेंडर के मामले में भी भारी अंतर

पुरुषों की थाली में कितना प्रोटीन 
 
इसी रिपोर्ट के अनुसार एससी-एसटी-ओबीसी महिलाओं की तुलना में इन्हीं जातीय समूहों के पुरुषों की थाली ज्यादा प्रोटीन युक्त पाई गई है. आसान भाषा में समझें तो अनुसूचित जाति (SC) के लगभग 60.8 प्रतिशत पुरुष सप्ताह में कम से कम एक बार अंडे खाते हैं, जबकि महिलाओं में यह संख्या सिर्फ 48.4 प्रतिशत है. ठीक इसी तरह, मछली और मांस तक उनकी पहुंच भी काफी ज्यादा है.

“अन्य” श्रेणी में, महिलाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर है, जहां 45.7 प्रतिशत महिलाएं सप्ताह में कम से कम एक बार अंडे खाती हैं और तो वहीं 47.7 प्रतिशत मछली और मांस का सेवन करती हैं. हालांकि, यहां भी पुरुषों का दबदबा है. इस श्रेणी के 58.6 प्रतिशत पुरुष सप्ताह में कम से कम एक बार अंडे खाते हैं, 49.7 प्रतिशत मछली और 59.4 प्रतिशत चिकन या मांस का सेवन करते हैं.

खाने की खपत में जेंडर और जाति के बीच का अंतर तब और भी चिंताजनक हो जाता है जब कई अलग अलग राज्यों में त्योहार के वक्त मासांहारी भोजन बेचने या खरीदने पर प्रतिबंध जैसी मांग उठती है. हालांकि ऐसी मांगें सांस्कृतिक या धार्मिक फैसलों के रूप में पेश की जाती हैं, लेकिन इसका गहरा असर उन लोगों पर भी पड़ता है जो पहले से ही प्रोटीन युक्त भोजन तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, हाशिए पर मौजूद समुदायों की महिलाओं के लिए, ये प्रतिबंध उनके पहले से ही सीमित भोजन विविधता को और भी कम कर सकते हैं, जिससे उनकी पोषण से जुड़ी दिक्कतें और भी ज्यादा बढ़ जाती है. 

भारत में किस राज्य में सबसे ज्यादा कुपोषण 

भारत में सबसे ज्यादा कुपोषण वाले राज्यों में बिहार और झारखंड प्रमुख हैं. इन राज्यों में कुपोषित बच्चों और महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है. झारखंड का कुपोषण दर विशेष रूप से चिंताजनक है, जहाँ बच्चों में स्टंटिंग और अंडरवेट की दर बहुत ऊंची है. इसके साथ-साथ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी कुपोषण की समस्या गंभीर है.

बिहार- 2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार की जनसंख्या लगभग 10 करोड़ है. वहीं राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, बिहार में 0-5 वर्ष के बच्चों में गंभीर कुपोषण (स्टंटिंग) की दर उच्च है. बिहार में 2019-21 के NFHS-5 रिपोर्ट में, स्टंटिंग की दर 39.7% और वेस्टिंग (सहनशक्ति की कमी) की दर 16.9% पाई गई है. 

उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश की जनसंख्या लगभग 23 करोड़ है, लेकिन NFHS-5 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में स्टंटिंग की दर 40.2% और वेस्टिंग की दर 20.4% है. यह राज्य भी कुपोषण के मामलों में प्रमुख है, विशेषकर बच्चों के बीच है. 

झारखंड: झारखंड की जनसंख्या लगभग 4.3 करोड़ है. NFHS-5 के अनुसार, झारखंड में 0-5 वर्ष के बच्चों में स्टंटिंग की दर 43.4% और वेस्टिंग की दर 19.5% है. यहां भी कुपोषण एक महत्वपूर्ण मुद्दा है.

मध्य प्रदेश: मध्य प्रदेश की जनसंख्या लगभग 7.6 करोड़ है. NFHS-5 के अनुसार, मध्य प्रदेश में स्टंटिंग की दर 41.9% और वेस्टिंग की दर 22.1% है. 

भारत में गरीबों की थाली में कितना प्रोटीन? जेंडर के मामले में भी भारी अंतर

क्या है स्टंटिंग और वेस्टिंग 

स्टंटिंग (Stunting) और वेस्टिंग (Wasting) कुपोषण के दो प्रमुख संकेतक हैं, जो विशेषकर बच्चों की वृद्धि और विकास पर प्रभाव डालते हैं. स्टंटिंग का मतलब है कि बच्चे की ऊंचाई उसकी आयु के हिसाब से अपेक्षित स्तर से कम है. यह लंबे समय तक पौष्टिक कमी के कारण होता है, जो बच्चे की वृद्धि को रोकता है.

यह ऊंचाई और उम्र के अनुपात से मापा जाता है. अगर बच्चे की ऊंचाई उसकी आयु के अनुसार अपेक्षित मानक से कम होती है, तो उसे स्टंटेड कहा जाता है. स्टंटिंग बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित कर सकता है. यह स्वास्थ्य समस्याओं, शिक्षा में पिछड़ापन और जीवन के अन्य पहलुओं में समस्याओं का कारण बन सकता है.

वेस्टिंग का मतलब है कि बच्चे का वजन उसकी ऊंचाई के हिसाब से अपेक्षित स्तर से कम है. यह अधिकतर तीव्र कुपोषण के कारण होता है, जैसे कि अचानक बीमारियां या खाद्य संकट. यह वजन और ऊंचाई के अनुपात से मापा जाता है. अगर बच्चे का वजन उसकी ऊंचाई के अनुसार अपेक्षित मानक से कम होता है, तो उसे वेस्टेड कहा जाता है. वेस्टिंग से बच्चे की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर हो सकती है, जिससे उन्हें बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है और सामान्य विकास में बाधा आती है.

क्यों नहीं मिल पा रहा लोगों को पौष्टिक आहार

भारत में लोगों को पौष्टिक आहार न मिल पाने के कई कारण हैं. गरीब परिवारों के पास पर्याप्त धन नहीं होता, जिससे कारण वे सस्ता और कम पौष्टिक भोजन खरीदने को मजबूर होते हैं. इसके अलावा भारत के ज्यादातर परिवारों में पोषण के प्रति जागरूकता की कमी है. ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा की कमी होती है, जिससे लोगों को सही आहार के लाभ के बारे में जानकारी नहीं मिलती.

कई ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में अच्छा परिवहन और भंडारण सुविधाएं नहीं होती, जिससे पौष्टिक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और पहुंच में कठिनाई होती है. किसानों को उचित प्रोत्साहन और संसाधनों की कमी के कारण पौष्टिक फसलों की खेती में मुश्किल होती है, जिससे खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और विविधता प्रभावित होती है.

इसके अलावा अलग अलग क्षेत्रों में सांस्कृतिक और धार्मिक कारणों से कुछ खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं किया जाता, जिससे पौष्टिक आहार की विविधता सीमित होती है. जाति और वर्ग के आधार पर भोजन की गुणवत्ता और उपलब्धता में भेदभाव होता है, जिससे कुछ लोगों को पौष्टिक भोजन तक पहुंच में कठिनाई होती है.

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गो ग्‍लोबल लेकिन खाना हो लोकल

हर साल 7 जून को मनाए जाने वाले विश्‍व खाद्य सुरक्षा दिवस की इस बार थीम है, ‘खाद्य मानक जीवन बचाते हैं ‘.
 आहार की उपलब्‍धता और जिन्‍हें आहार उपलब्‍ध है उनके लिए उसके मानक की बात करना दो अलग-अलग मसल …अधिक पढ़ें

नई दिल्ली. हमारे यहां कहा जाता है, जैसा खाए अन्‍न, वैसा रहे मन. यानी, हमारे अन्‍न की प्रकृति हमारे व्‍यक्तित्‍व को गढ़ती है. और सूक्ष्‍म रूप में जाएं तो आहार से मिला सार तत्‍व ही हमारी रक्‍त, रस, मांस, मेद, अस्थि, मज्‍जा धातु का निर्माण करता है. आहार ही यही हमारा ओज भी निर्मित करता है और अंतत: हमारे मानस को पुष्‍ट करता है. आहार और इसके प्रकार की बात आज इसलिए क्‍योंकि आज विश्‍व खाद्य सुरक्षा दिवस है और इस बार विश्‍व खाद्य सुरक्षा दिवस की थीम है, ‘खाद्य मानक जीवन बचाते हैं (Food standards save lives). आहार की उपलब्‍धता और जिन्‍हें आहार उपलब्‍ध है उनके लिए उसके मानक की बात करना दो अलग-अलग मसले हैं. दुनिया की बड़ी आबादी ऐसी है जिसे खाने को कुछ नहीं मिलता और एक आबादी ऐसी है जिसके पास खाने के सारे साधन है लेकिन वह अमानक आहार के संकटों से जूझ रही है.

हमारे लिए यह सबसे बड़ी शर्म की बात होनी चाहिए कि जिस दुनिया में कुछ लोग चांद पर जमीन खरीदने जैसे खेल कर रहे हैं वहां लाखों लोगों को रोटी नसीब नहीं होती है. भूखमरी का इंडेक्‍स जारी होती है जो बतात है कि देश-दुनिया में कितने लोग भूख से मर रहे हैं. यह इंडेक्‍स विवादों से घिर गया मगर इस विवाद के कारण वह तथ्‍य पीछे छूट गया कि लोग भूख से मर तो रहे हैं, फिर चाहे संख्‍या जो भी हो. यह तकनीक की दृष्टि से नहीं, मानवीय दृष्टि से देखने का विषय है लेकिन हमेशा इसे सरकारों के अहम् की दृष्टि से देखा गया. जब हम स्‍वीकार की नहीं करेंगे कि लोग भूख से मर रहे हैं तो उनकी भूख मिटाने का इंतजाम कैसे करेंगे?

भूख से कितने लोग मर रहे हैं और आंकड़ें कितने गलत या सही हैं, इस बहस में पड़ने के बदले हम अनुभव की बात करते हैं. कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर एक तस्‍वीर वायरल हुई थी. किसी विवाह समारोह में थाली में जूठा छोड़ दिए गए खाने को दिखाते हुए पूछा गया था कि बेटी की शादी के लिए पिता खर्च हो जाता है. पानी पूरी की दुकान पर पानी की एक-एक बूंद पी लेने वाले हम शादी में इतना खाना जूठा छोड़ देते हैं. सवाल तो यह भी हो सकता है कि ऐसे समारोह स्‍थल के आसपास कितने ही बच्‍चे, महिलाएं खाने की आस में घूमते रहते हैं और हम ओवर इटिंग करते हैं, थाली में खाना जूठा छोड़ चल देते हैं. आपको बता दूं कि संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने वर्ष 2021 में फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट जारी की थी. इसमें बताया गया था कि हम कितने खाने को बर्बाद करते हैं. रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में उपलब्ध भोजन का 17 प्रतिशत मानवीय लापरवाहियों के चलते बर्बाद हो गया था और लगभग 69 करोड़ लोगों को खाली पेट सोना पड़ा था.

यहां यह बताना जरूरी है कि भारत में वर्ष 2013 से ही ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा’ कानून लागू है. यह कानून कहता है कि प्रत्येक वंचित व्यक्ति को पर्याप्त भोजन मुहैया करवाना राज्य का राजनीतिक दायित्व है. आंकड़ा यह भी कहता है कि वर्ष 2016-20 के दौरान भारत सरकार ने ‘गरीब कल्याण योजना’ के माध्‍यम से 80 करोड़ वंचितों को खाद्य सामग्री प्रदान की. फिर तो भूख से मरने का सवाल ही नहीं उठना चाहिए? और जब वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व खाद्य और कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट जब कहती है कि भारत में लगभग 19 करोड़ लोग भूख और कुपोषण से पीड़ित है तो आश्‍चर्य होता है. असल में इसके पीछे देखना होगा कि योजना का क्रियान्‍वयन कैसे और कितना होता है.

यानी, थाली में खाना है और वह पोषक नहीं है तो पेट भरने का कोई मतलब नहीं है. इस लिहाज से उन लोगों को भी अपनी थाली का आकलन करना चाहिए जिनके पेट भरे हैं. खाद्य सामग्री की मानकता को जांचने और उनकी पड़ताल का यही कारण भी है. क्‍या आप जानते हैं कि दुनिया भर में दूषित भोजन के चलते हर साल करीब 4.2 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है. इस आंकड़े के विश्लेषण से पता चलता है कि इस कारण मरने वालों में करीब एक तिहाई पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे होते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा है कि दुनिया भर में करीब 60 करोड़ लोग यानि प्रति दस व्यक्ति में एक दूषित भोजन के कारण हर साल बीमार पड़ता है.

मतलब साफ है कि हम जिसे बेहतर खाना मान रहे हैं उस पर शक करना चाहिए कि वह वास्‍तव में पौष्टिक भी है या नहीं? हमारे देश में में इनदिनों रेडी-टू-ईट, पैकेज्‍ड या डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ, जंक फूड और फास्ट फूड का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ गया है. इस आहार को स्‍वादिष्‍ट बनाने के लिए ट्रांसफैट, शुगर, सोडियम और लेड जैसे रसायनों का प्रयोग किया जाता है. इनके कारण खाना टेस्टी बन जाता है मगर पौष्टिक नहीं रह जाता है. इससे भूख तो तुरंत मिट जाती है, परंतु पोषण की भूख बची रह जाती है.
जबकि हमारे भोजन में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन तथा खनिज लवण के साथ फाइबर और जल भी शामिल होना चाहिए. अलग-अलग आहार व्‍यवस्‍था में इनकी अलग-अलग मात्रा तय है. एक संतुलित आहार में 60 से 70 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 10 से 15 फीसदी प्रोटीन और 18 से 25 फीसदी वसा होती है. ये सभी पूरक आहार हमारे शरीर को कैलोरी प्रदान करते हैं. जिसका जितना अधिक श्रम उसे उतनी अधिक कैलोरी की जरूरत होती है.

इस सब गणित से अधिक दिमाग चकरा रहा है तो इतना ही समझा जा सकता है कि रेडी टू ईट है वह उतना ही घातक हो सकता है. जो खाना हमारी परंपरा के अनुसार घर में बना है वह उतना ही पौष्टिक होता है. हम अपने व्‍यवहार में भले ही ग्‍लोबल हो जाएं मगर आहार में लोकल होना चाहिए. जितना अधिक स्‍थानीय आहार पैटर्न को अपनाएंगे उतना अधिक स्‍वस्‍थ रहेंगे.

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