बुरे फैसलों की जलती हुई मिसाल है मणिपुर ?

कई बुरे फैसलों की जलती हुई मिसाल है मणिपुर 
सरकार की नीतियों पर पिछले दशक में जो भी बहसें हुई हैं, उनमें ‘मजबूत’ विशेषण का जमकर प्रयोग किया गया है। लेकिन मणिपुर के परिप्रेक्ष्य में सवाल यह है कि क्या सच में ऐसा है? अगर आप भाजपा के समर्थक हैं तो यही कहेंगे कि इस सरकार ने मणिपुर मसले पर ‘मजबूती’ से कार्रवाई की है।

वहीं सरकार के आलोचक इस मसले को इस सरकार की सबसे बड़ी नाकामी बताएंगे। लेकिन हम अगर यह कहें कि इस सवाल का जवाब इन दोनों विचारों से अलग है, तब आप क्या कहेंगे? और यहां यह घिसा-पिटा तर्क भी नहीं पेश किया जा रहा है कि इन दोनों विचारों में कुछ-न-कुछ सच्चाई तो है ही।

उपरोक्त सवाल का जवाब यह है कि मणिपुर मसला इस क्षेत्र को लेकर भाजपा की जापानी मार्शल आर्ट ‘जिउ-जित्सु’ मार्का राजनीति का इस्तेमाल करते हुए शासन चलाने की अनूठी मिसाल है। इसमें अगर पहचान की कोई छोटी सियासत चुनौती के रूप में सामने आती है तो उसका मुकाबला पहचान को लेकर एक बड़ी सियासत से किया जाता है।

‘जिउ-जित्सु’ युद्धकला में आप प्रतिद्वंद्वी की ताकत और शारीरिक रचना का ही इस्तेमाल करके उसे हराते हैं। भाजपा के मुताबिक मणिपुर में अभी काम जारी है। लेकिन जो काम हो रहा है, उससे हालात सुधरे नहीं, और बिगड़े ही हैं। फिर भी पार्टी काम जारी रखने पर आमादा है।

उसके विचार से कांग्रेस ने उत्तर-पूर्व और खासकर जनजातीय राज्यों में पिछले दशकों में पहचान की सियासत में भारी भूल की। इस तरह की बातें मैं उत्तर-पूर्व में काम कर चुके आरएसएस के कई नेताओं (जो अब काफी वरिष्ठ हो चुके हैं) से ही नहीं, बल्कि भाजपा के भी कुछ नेताओं या सरकार के कुछ लोगों से भी सुन चुका हूं, जो अब भी वहां की जा रही कार्रवाई से कम-से-कम दूर से भी जुड़ने को राजी हैं।

कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस ने आग का मुकाबला आग से नहीं किया। उसने जनजातीय समूहों और ईसाई प्रभावों को मजबूत होने दिया। अलगाववाद को कुचलने के लिए केंद्रीय ताकत का इस्तेमाल तो किया मगर राजनीतिक रूप से ‘स्थानीय’ तत्वों को छूट दी। और यह नीति भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में कांग्रेस की ‘दोषपूर्ण’ समझ का नतीजा थी।

वह हिंदू धर्म और व्यापक हिंदू बहुमत को इस राष्ट्रीय आकांक्षा की अभिव्यक्ति से काटकर रखने के प्रति इतनी प्रतिबद्ध थी कि उसने कई गहरे जख्मों को और गहरा होने दिया और भारत को उसकी संकटग्रस्त उत्तर-पूर्वी सीमाएं सौंप दीं।

हम इस तर्क को और सरल रूप में पेश करते हुए कह सकते हैं कि कांग्रेस ने अपने फायदे के लिए छोटी एवं स्थानीय पहचानों की सियासत की और उन्हें अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करके ये समस्याएं हमारे लिए छोड़ दीं।

संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्रों में विविधता काफी खूबसूरत और आकर्षक है लेकिन अगर उसे हम हिंदू नजरिए से देखेंगे तो वह राष्ट्रहित के लिए नुकसानदेह होगा। ऐसी गहरी समस्या को दूर करने में समय लगता है। इस बीच कुछ झटकों के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

मणिपुर के संकट को भी ऐसी ही एक समस्या में गिनिए, लेकिन यह भी देखिए कि हम वहां कर क्या रहे हैं। छोटी पहचान (कुकी-ईसाई-म्यांमारी) को बड़ी पहचान (मैतेई-हिंदू-भारतीय) से लड़ा रहे हैं। और हर किसी को पता है कि केंद्र किसके पक्ष में है।

आप पहचान की सियासत करना चाहते हैं तो स्वागत है। लेकिन तब बेशक आप कुछ समस्याओं में उलझ जाते हैं। सबसे ताजा समस्या तो मणिपुर के मुख्यमंत्री स्वयं हैं, जो हिंदू हैं और भाजपाई खेमों में उनके बारे में कानाफूसियों में यही कहा जाता है कि ‘मैतेई लोगों के तो अब वे ही भगवान हैं’।

वे राज्यपाल को ज्ञापन देकर मांग कर रहे हैं कि वहां केंद्रीय सुरक्षा बलों की कमान उन्हें सौंपी जाए, जबकि उनके दामाद इन बलों को वापस बुलाने की मांग कर चुके हैं। मुझे तो ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला कि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के किसी मुख्यमंत्री ने उसी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए राज्यपाल से यह मांग की हो कि केंद्रीय बलों की कमान उसे सौंपी जाए; और दूसरी ओर, परोक्ष रूप से उन बलों को वापस बुलाने की भी मांग की हो।

उनकी मंशा को समझिए। वे कह रहे हैं कि अगर आप यह चाहते हैं कि हम मैतेई हिंदुओं और कुकियों की लड़ाई लड़ें तो यह हमारे भरोसे छोड़ दीजिए; हमारे पास हथियार हैं, लोग हैं और पूरी तैयारी है, केवल केंद्रीय बलों को हमारे रास्ते से हटा लीजिए। यहां पर हमारा यह सवाल फिर उभरता है : यह एक ताकतवर सरकार है या एक कमजोर सरकार है?

यह खुद को तब जरूर ताकतवर महसूस करती होगी, जब उसके दायरे में यह मांग मजबूती से उठ रही है कि वह संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को बर्खास्त करे, क्योंकि उसके खिलाफ वहां लोग गुस्से में लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं, भले ही वे प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्ण रहे हैं।

वहां के राज्यपाल भी संविधान की शान को बहाल करने के लिए बागडोर अपने हाथों में लेने को तैयार हैं। इसके बरअक्स, पश्चिम बंगाल की आबादी के 5 प्रतिशत के बराबर आबादी वाले एक राज्य के उसके ही मुख्यमंत्री अपने राज्यपाल से मांग कर रहे हैं कि केंद्रीय बलों की कमान मुझे सौंपिए या उन्हें वापस बुलाइए!

मणिपुर के मामले में भाजपा का सियासी नजरिया यह है कि यह राज्य हथियारबंद विदेशी (म्यांमारी) घुसपैठी ईसाई कुकी जनजातीय समूहों के हमलों का शिकार है, और उसकी सरकार वहां के मुख्यतः कमजोर हिंदू मैतेई बहुसंख्यकों की सुरक्षा का काम कर रही है। भले ही उनकी आबादी कुकियों से तीन गुना अधिक क्यों न हो। इस लड़ाई को रोकने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं किया जाता।

परिणाम बुरे ही रहे हैं…

2014 के बाद से भाजपा ने पूर्वोत्तर के राज्यों के मामले में केंद्र के रुख में एक वैचारिक बदलाव किया है। लेकिन परिणाम अब तक बुरे ही साबित हुए हैं। मणिपुर इसकी जलती हुई मिसाल है। लेकिन भाजपा के लिए यह उसकी ओर से जारी काम का एक हिस्सा है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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