ग़रीबों के घर जाकर भोजन करना राजनीति का फ़ैशन ?
ग़रीबों के घर जाकर भोजन करना राजनीति का फ़ैशन
चुनाव आते ही राजनीति में नए-नए तरीक़े ईजाद किए जाते हैं। अभी से नहीं, वर्षों से। कोई नेता किसी गरीब के घर जाकर भोजन करता है। कोई राजनेता किसी दलित के कंधे पर हाथ रख कर सर्व धर्म, सम भाव का दिखावा करता है।
नेताओं और हमारे समाज में असल में यह सम भाव कब आएगा? आएगा भी या नहीं, यह कोई नहीं जानता। हमारी अर्थ व्यवस्था, हमारा सारा वातावरण, बाजार ही कुछ ऐसा है जिसमें गरीब और ज़्यादा गरीब और अमीर और ज़्यादा अमीर होता जाता है।

सरकारों की नीतियों की पोलें और प्रशासन की कुव्यवस्था गरीबों के लिए बनाई गई योजनाओं को उन तक पहुँचने ही नहीं देती। जिन तक लाभ पहुँचता है, वे इसका बेजा फ़ायदा उठाते रहते हैं, जबकि अधिसंख्य लोग इसी वजह से वंचित रह जाते हैं।
ऊँच-नीच और भेदभाव की भावना ने समाज के कई तबकों तक न तो शिक्षा का उजाला पहुँचने दिया और न ही सुख सुविधाओं की रोशनी। कहते हैं हर रात की कोई न कोई सुबह ज़रूर होती है, लेकिन हैरत इस बात की है कि ग़रीबी की रात की सुबह हो ही नहीं पा रही!

आज़ादी के इतने सालों बाद भी उनकी रातें काली चीलों की तरह उड़ रही हैं। सुख-सुविधाओं का उन्होंने आज तक मुँह नहीं देखा। गरीबी उनके बच्चों को स्कूल का मुँह तक देखने नहीं देती। आख़िर हमारी राजनीति और राजनेता सही मायने में इस बारे में कब सोचेंगे? कब इस बारे में कारगर नीतियाँ बनाकर उन्हें ईमानदारी से लागू करने या करवाने की इच्छाशक्ति दिखाएँगे?
हर पाँच साल में हर गरीब इस आस में वोट देता है कि इस बार की सरकार तो ज़रूर उसका कल्याण करेगी लेकिन, वो दिन, वो समय पिछले 77 साल में नहीं आ सका। दरअसल, राजनीति का उद्देश्य ही बदल चुका है।

नेताओं का ध्यान जन कल्याण की बजाय वोट कबाड़ने तक ही केन्द्रित होकर रह गया है। वे जनता को वोट मशीन से ज़्यादा कुछ नहीं समझते। वे पाँच साल में सिर्फ चुनाव के वक्त नज़र आते हैं। यह व्यवस्था, यह ढर्रा बदलना चाहिए। सम भाव तभी आ सकता है।