2005 में नीतीश कुमार के सीएम बनते ही कैसे घटा अपराध, अब क्यों नहीं ऐसा ?

पूर्व DGP अभयानंद ने बताया- 2005 में नीतीश कुमार के सीएम बनते ही कैसे घटा अपराध, अब क्यों नहीं ऐसा
Abhayanand IPS : आरएस भट्टी कार्यकाल रहते केंद्रीय प्रतिनियुक्त मांग कर चले गए। आलोक राज से छिना मौका उन्हें वापस मिला। लेकिन, बिहार में अपराध नियंत्रण नहीं हो रहा। ऐसे में यह जानना रोचक है कि 2005 में नीतीश कुमार के सीएम बनते ही क्या चमत्कार हुआ था?

राजधानी पटना में इंडिगो के मैनेजर रूपेश की हत्या हुई और करीब तीन साल बाद पुलिस की सारी कहानी फेल हो गई। किसने हत्या की, पता ही नहीं चला। रोज बिहार में कहीं-न-कहीं सड़क पर मर्डर हो रहा है। रेप-गैंगरेप के भी मामले सामने आ ही रहे हैं। शराबबंदी के आठ साल बाद भी शराब पकड़ी जा रही और जो नहीं पकड़ी जा रही, वह जहरीली शराब से मौतों की खबर के रूप में सामने आ रही। पटना में रिटायर्ड बिस्कोमान अफसर और उनकी पत्नी की घर में हत्या हो जा रही। भागलपुर में पुलिस लाइन के अंदर मर्डर हो रहा। ऐसे में विपक्ष इसे मुद्दा बनाएगा ही। सूची के रूप में ही सही, बना भी रहा है। 2005 में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनते ही बिहार में अपराध पर नियंत्रण सभी ने महसूस किया था, लेकिन अब उतना सुरक्षित कोई महसूस नहीं कर रहा। क्या हुआ था उस समय और क्या अब किया जाना चाहिए, ऐसे सवालों के साथ ‘अमर उजाला’ ने नीतीश कुमार सरकार के पहले दौर में एडीजी मुख्यालय और दूसरे दौर में डीजीपी रहे अभयानंद से बात की।

2005 के नीतीश कुमार और अभी वाले में अंतर है क्या, कि अपराध नियंत्रण नहीं दिख रहा?
आर्मी में एक कहावत है- Its not the weapon that counts, but man behind that weapon that counts.मतलब, अस्त्र तो वही है, बस चलाने वाला बढ़िया होना चाहिए। उस समय के मुकाबले अभी हजारों गुना ज्यादा व्यवस्थाएं हैं। जब मुझे लॉ एंड ऑर्डर ठीक करने की जिम्मेदारी दी गई थी तो कुछ खास संसाधन नहीं था। मैं बोल रहा हूं कि कुछ नहीं था तो आप समझिए कि कुछ नहीं था। सिपाहियों की कमी थी। स्टैंडर्ड हथियार नहीं थे। टेक्नोलॉजी भी डेवलप नहीं थी। फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी जैसा कुछ भी नहीं था। यह आर्थिक अपराध इकाई जो आप देख रहे हैं, इसका तो नामोनिशान तक नहीं था। तो इंस्टीट्यूशन को डेवलप करना और उसे चला देना, यह दोनों जवाबदेही मैंने अपने ऊपर ली। फिर जब मेरी उम्र खत्म हुई, तब मैंने आराम से इस प्रोफेशन को बाय-बाय कह कर एक दूसरे दौर अभ्यानंद सुपर 30 की ओर निकल गया। 

अब तो व्यवस्था है, फिर अपराध के कारण विपक्ष के निशाने पर क्यों हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार?
लॉ एंड ऑर्डर नेता ठीक नहीं करते, बल्कि पुलिस अधिकारी करते हैं। इस लॉजिक को आप ऐसे समझिए कि अस्पताल को स्वास्थ्यमंत्री नहीं चलाते हैं, बल्कि डॉक्टर चलाते हैं। उसी तरह गृह मंत्री लॉ एंड ऑर्डर नहीं चलाते हैं। वह व्यवस्था उपलब्ध करा सकते हैं। नीतियां बना सकते हैं। उसे चलाएगा तो पुलिस का आला अधिकारी ही। स्थिति यह है कि पुलिस के आला अधिकारी हमेशा मुख्यमंत्री की तरफ उनका चेहरा देखते रहते हैं कि सर बताइए कि अब क्या करें? अगर समस्या है तो डीजीपी की जिम्मेदारी है उसका हल निकालना। विधि-व्यवस्था में अगर कोई समस्या हो रही है तो उसे सही करने की जिम्मेदारी डीजीपी और उसकी टीम की होती है। यह उनका काम है। ठीक वैसे ही, जैसे ऑपरेशन करना सर्जन का काम है स्वास्थ्य मंत्री का नहीं। 

कहां गड़बड़ी हो रही है, जिसे आपके जूनियर ठीक करें तो सब ठीक हो जाएगा?
देखिए, आर एस भट्टी ने अपने पुलिस पदाधिकारियों को कहा था कि आप बैठिएगा तो अपराधी आपको दौड़ाएंगे, इसलिए आप उन्हें दौड़ाइए। भट्टी का यह कांसेप्ट ही गलत था। कोई ऐसा क्षण नहीं है, जब घूस नहीं लिया जा रहा है। तो क्या आप भ्रष्टाचार को दौड़ा पाते हैं? नहीं। फिर आपका यह थ्योरी कि अपराधियों को दौड़ाइए किस तरह सटीक है? आप भ्रष्टाचार को अपराध मानते ही नहीं हैं! जो घूस ले रहा है, उसे आप अपराधी नहीं मानते हैं। सिपाही से लेकर बड़े पद तक 10 फीसदी ऐसे लोग पावर में हैं, वह 90 फीसदी लोगों से घूस लेते हैं। हर समय लेता है, हर जगह लेता है। वह अपराध है। लेकिन, आप उसे नहीं दौड़ा पाते है। फिर आप क्या लॉजिक दे रहे हैं? आपके यहां अपराधी का मतलब बस चोरी, डकैती करने वाले लोग अपराधी हैं। घूस लेने वाले पुलिस पदाधिकारी नहीं?भट्टी का फेल होना समझ में आया, लेकिन मुझे समझना है कि 2005 में क्या हुआ जो अब नहीं हो रहा?
तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुझसे कहा था कि पुलिस के रुतबे को बहाल कर दीजिए। तो मैंने बिलकुल स्पष्ट कहा था कि पुलिस के रुतबे और पुलिस की गुंडागर्दी में बहुत अंतर नहीं होता है। आप किसी वर्दी वाले को इतना पावर दे दीजिए कि जब मन में आए तो वह किसी को पीट दे या किसी को भी उठा ले- यह गलत है। आज की पुलिसिंग में एक नया शब्द आया है- उठा लो, ठोक दो, पीट दो। अगर आप अरेस्ट कहिए तो बात समझ में आती है कि यह कानून का शब्द है, लेकिन उठाना, ठोकना तो क्राइम का शब्द है। देखिए, अभी चलता हुआ शब्द वही है- उठा लो। यह उठाना क्या है? अरेस्ट कर सकते हैं तो कीजिए, लेकिन तरीके से। मेरा कांसेप्ट यह था कि आप अपराधियों में डर पैदा कीजिए, लेकिन वह डर पुलिस का नहीं, बल्कि कानून का होना चाहिए। और दोनों में बहुत अंतर होता है। पुलिस एक एजेंसी है, जो उस कानून को लागू कर भय पैदा करेगी।

तो, पुलिस की जगह कानून का भय कैसे पैदा हुआ था? उससे क्या अंतर पड़ा था? 
तब सरकार नई बनी थी। 2005 के नवंबर महीने में मुझसे कहा गया था कि विधि-व्यवस्था को ठीक करने का जिम्मा आपका है। आप इसे ठीक कर दीजिए। मुझसे पूछा गया कि इसके लिए आपको क्या चाहिए पैसा या कुछ और? मैंने सरकार को जवाब दिया कि विधि-व्यवस्था को दुरुस्त करना है, न कि पुल-पुलिया का निर्माण कराना है, जिसके लिए रुपयों की जरूरत पड़ती है। पब्लिक को मतलब है कि आप मुझे आउटपुट दिखाइए। इसलिए, स्पीडी ट्रायल पर काम किया। इससे कानून का डर बना और अपराधियों को लगा कि वह बच नहीं सकेंगे।

आज की तारीख में अपराध बढ़ने के कारणों में शराबबंदी को भी देखते हैं?
शराबबंदी कराना तो टागरेट ही नहीं होना चाहिए था। मेरे काम करने का लॉजिक यह था कि जो काम काले धन को जेनरेट करता है, वह क्राइम है। शराबबंदी भी कालाधन को जेनरेट कर रहा है। इस तरह से शराबबंदी भी क्राइम को बढ़ावा दे रहा है। मैं शराबबंदी की नीति पर सवाल नहीं कर रहा, बस यह कह रहा हूं कि इसके कारण काला धन नहीं जेनरेट होना चाहिए। इससे अपराध बहुत बढ़ा है। ऐसे नव धनाढ्य क्राइम कंट्रोल कर रहे हैं।

आज की पुलिसिंग को देखकर आपको गुस्सा भी आता है? विपक्ष के टारगेट पर रहती है पुलिस। 
नहीं, मुझे उस तरफ देखना ही नहीं है। मैंने उस राह को छोड़ दिया है। अब उस राह के बारे में थोड़ा पढ़ लेता हूं। न तो गुस्सा का भाव होता है और न ही संतुष्टि का। कुल मिलाकर कहें तो वह भाव अब समाप्त हो गया है। पुलिस या राजनीति की बात करें तो आखिरी बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से 2014 में बात हुई थी। तब रिटायरमेंट का पांच महीना बाकी था। मुझे ऑफर दिया गया था कि मैं राजनीति में शामिल हो जाऊं, लेकिन मैंने मना कर दिया कि न तो बयान देने में रुचि है और ना ही काउंटर बयान में। अब तो रुचि इस बात में है कि मेरे दस बच्चे आईआईटी में निकल जाएं। इससे मुझे एक संतोष होगा कि मेरी जिंदगी का एक साल सही से बीत गया। अभयानंद सुपर 30 में प्रतिभावान बच्चों को पढ़ा रहा हूं और पुलिसिंग का पी भूलकर फिजिक्स के पी पर खुद को केंद्रित रखता हूं।

पुलिस अधिकारी से सीधे शिक्षक की भूमिका में आने की कोई तो वजह रही होगी? आपकी सलाह से पुलिस सुधर सकती है, यह नहीं सोचा आपने?
देखिए, जिन्हें राजनीति करनी होगी- वह उधर जाते हैं। मुझे पुलिस की नौकरी के बाद उस बारे में सोचना तक नहीं था। मैं उन बातों को भूल चुका हूं। मुझे ध्यान में भी नहीं लाना है कि मैं पुलिसिंग में और क्या कर सकता था। मुझे लगा कि बिहार के बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए। एक फिलिंग थी कि बिहार के लड़कों के अंदर गणित विषय में टैलेंट है, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर होने की वजह से वह आईआईटी तक नहीं पहुंच पा रहे। उनके पास कोचिंग के लिए पैसा नहीं है। तो मैंने यह सोचा कि मैंने जो कुछ अपनी जिंदगी में पढ़ा या पढ़ाया है, उसे गरीब बच्चों तक पहुंचाने के लिए निकलूं। वही कर रहा हूं। अभयानंद सुपर 30 में गरीब प्रतिभाएं पढ़कर अच्छा कर रहीं तो संतोष होता है। मैं तो यहां मोबाइल का उपयोग नहीं करने देता, क्योंकि रिकॉर्ड कहता है कि ऑनलाइन से बेहतर ऑफलाइन पढ़ाई है। समझ सकते हैं कि मैं इसपर कितना फोकस्ड हूं।

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