संदेहास्पद पेय!

संदेहास्पद पेय! जो पिएगा, वो मरेगा, लेकिन जो शराबबंदी करेगा वो “कातिल” की आमद रोक नहीं पाएगा… 

यह सरकारी आकड़ा है. अप्रैल 2016 में शराबबंदी लागू की गयी थी. तब से अब तक, डेढ़ लाख से अधिक वाहन थानों में जब्त किए गए हैं. तकरबीन पांच लाख से ज्यादा केस दर्ज हो चुके हैं. तकरीबन ढाई करोड़ लीटर अवैध शराब जब्त हुई है और करीब साढ़े छह लाख से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है. इसके लिए विशेष अदालतें बन चुकी है. पुलिस काफी मुस्तैदी से पीने वालों को पकड़ती है. कितना सुन्दर आंकड़ा लग रहा है. रामराज्य जैसा. बहरहाल, इस पूरे लेख, में मैं अब “शराब” शब्द का इस्तेमाल नहीं करूंगा. अलबत्ता “संदेहास्पद पेय पदार्थ” का प्रयोग करूंगा. क्यों, क्योंकि मीडिया की इनिशियल रिपोर्ट (सीवान और सारण में हुई मौत) में यही लिखा गया था कि दर्जनों लोग “संदेहास्पद पेय” सेवन के कारण मर गए. क्योंकि बिहार में शराबबंदी है, तो यहां संदेहास्पद पेय ही मिलेगा, और कुछ कैसे मिल सकता है? 

संदेहास्पद पेय! 

तो हर साल की भांति, इस साल भी, एक बार फिर, सीवान और सारण में 72 घंटे में 40 लोगों की जान संदेहास्पद पेय के सेवन से चली गयी. कुछ की आँखों की रोशनी चली गयी है. कुछ की हालत अभी भी गंभीर बनी हुई है. इससे पहले मोतिहारी के तुरकौलिया क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में लोगों की जान इसी पेय के कारण चली गयी थी और तब भाजपा विपक्ष में थी और यह अच्छी बात है कि स्थानीय भाजपा नेताओं के मुखर विरोध के कारण, पहली बार मुख्यमंत्री ने पेय सेवन से हुई मौतों के मामले में मुआवजा देने की घोषणा की थी. हालांकि, यक्ष आज युद्धिष्ठिर से कुछ पूछते तो यही पूछते कि वत्स, यह बताओ कि इस संदिग्ध पेय पदार्थ का उद्गम स्त्रोत क्या है? तब, शायद युद्धिष्ठिर भी इस सवाल का जवाब न दे पाते. नीतीश कुमार कहते हैं कि शराबबंदी उनकी प्राथमिकताओं में पहले स्थान पर है. नीतीश कुमार ने विधानसभा में बयान दिया था कि पिएगा तो मरेगा. लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि “संदिग्ध पेय” आखिरकार उपलब्ध क्यों और कैसे हो रहा है ? उपबल्ध होगा तो पिएगा और पिएगा तो मरेगा. प्रशासनिक विफलता पर मुख्यमंत्री की चुप्पी बहुत बड़ा सवालिया निशान है, उनकी छवि और उनके शासन पर. जिलावार आप चलेंगे तो हरेक जगह, हरेक जिले में मौतें हो रही हैं. कई जगह तो मीडिया पहुंचता भी नहीं. मोतिहारी हो, सारण, मुजफ्फरपुर, गोपालगंज या और भी बहुतेरे जिले, हरेक जगह “संदिग्ध पेय” का कहर जारी है.

कानून बदलने से बनेगी बात? 

मद्य निषेध कानून के  सेक्शन 34 में ए, बी, सी, डी और ई में बदलाव किया गया था. यह सेक्शन गिरफ्तारी को लेकर था. इसके तहत उस समय संदिग्ध पेय पीकर पकड़े जाने पर गिरफ्तारी होती थी, घर और वाहन सील होते थे, मतलब बहुत कड़ा कानून था. उसी कानून को थोड़ा हल्का किया गया, जिसमें अब पहली बार पीते हुए पकड़े जाने पर पुलिस भी जुर्माना वगैरह लेकर छोड़ सकती है. उसी तरह एक अधिकारी को ही मैजिस्ट्रेट के अधिकार दिए गए, ताकि मौके पर ही बेल वगैरह मिल सके, यह देखकर कि कोई आदतन अपराधी है या फर्स्ट टाइमर है या बार-बार संदिग्ध पेय का सेवन करता है.

जेल में कौन? 

अब इस क़ानून में थोड़ी बहुत जो ढील दी गयी थी, आखिर वह क्यों दी गयी थी? तो इसका कारण है कि इस कानून के अधिकांश शिकार गरीब-पिछड़े वर्ग के ही लोग हैं. चाहे वे बनाने वाले हों, बेचनेवाले हों या करियर हों या पीनेवाले. तो, कानून उनके लिए ही हल्का किया गया, हालांकि जो हश्र हुआ, वो हम देख ही रहे हैं. मरने वाले भी ज्यादातर इसी वर्ग से आते हैं. जेलों में “संदिग्ध पेय” बनाने या ढोने या पीने का काम करनेवाले जो आरोपित हैं, उनमें सबसे अधिक गरीब और एससी तबके के लोग हैं. एक चीज और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जितनी भी आपराधिक घटनाएं आजकल बिहार में हो रही हैं, उनके पीछे कारण ज़मीन और शराब ही है. यानी, चाहे वह हत्या हो, अपराध हो या जो भी हो, लेकिन उसके पीछे कारण बस वही है.

बिहार में शराबबंदी, नेताजी दूसरे गांधी 

बिहार के मुख्यमंत्री ऐसी जाति से आते हैं, जिसका वोट परसेंटेज चार से पांच प्रतिशत है. हालांकि, उनको जाति विशेष का नेता भी कहा जाता है, लेकिन उनकी नजर शुरू से ही आधी आबादी यानी महिलाओं को अपना वोट बैंक बनाने पर रही है. शायद वह इसी वजह से सफल भी रहे हैं. चाहे पंचायत में 50 फीसदी महिला आरक्षण हो, जीविका दीदियों का काम हो, पुलिस में आरक्षण हो या शिक्षक बहाली में. यह शराबबंदी की घोषणा भी उन्होंने जीविका दीदियों की बैठक में ही की थी. अब, नीतीश ने यह शराबबंदी भी उसी से प्रेरित होकर शुरू की थी. लेकिन अब उनकी तथाकथित सदाशयता से शुरू की गई नीति जानलेवा और बीमार हो चुकी है. एक अच्छा प्रशासक होता है, जो खुद ही अपनी नीतियों की समीक्षा करे. नीतीश की इस जिद को भी 8 साल हो चुके हैं.

पिछली बार जब सरकार ने इस कानून में बदलाव किया तो उसके बाद की घटनाओं के बाद तो कहीं न कहीं सरकार समझ रही है कि कुछ न कुछ गड़बड़ हो गई है. आपको याद होगा कि जब यह कानून लागू हुआ था तो उस वक्त जो घर सील होते थे, उनमें स्कूल खोल दिया जाता था. एक डेमोक्रेसी में ऐसे कदम नहीं चलते हैं. ठीक है, आपने राजनीतिक तौर पर यह कर लिया, लेकिन बिहार अब उसकी बड़ी कीमत चुका रहा है. राजस्व में बड़ा घाटा हो रहा है, “संदिग्ध पेय” का धंधा जोरों पर है, उत्पाद और मद्य निषेध विभाग अपनी मासिक रिपोर्ट तैयार कर अपनी पीठ थपथपा रहा है. जाहिर है कि जितना “संदिग्ध पेय” पकड़ा जा रहा है, उससे ज्यादा तो उपलब्ध है. दसवीं-बारहवीं के बच्चों की पीठ पर टंगे बस्तों में शराब की बोतलें पायी जा रही हैं और वे शराब की स्मगलिंग कर रहे हैं, करियर बन रहे हैं. कहा तो यह भी जाता है कि जिस शराब से सरकार को 5000 करोड़ का राजस्व मिलता था, वह तो अब बंद हुआ ही, उसके बदले राज्य में 25 हजार करोड़ का एक अवैध साम्राज्य भी शराब माफिया ने तैयार कर दिया है. जाहिर है कि यह सब अवैध है, तो सरकार को तो इससे लाभ होना नहीं है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि….. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.

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