एक-दूजे की जड़ें काटने वाले सहयोगी, खटपट कभी खत्म नहीं होने वाली
एक-दूजे की जड़ें काटने वाले सहयोगी, खटपट कभी खत्म नहीं होने वाली
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कांग्रेस को नौ में से केवल दो सीट देने की पेशकश की। ये भी वे सीटें थीं जहां से कांग्रेस के जीतने की संभावना स्याह थी। जोखिम देखकर कांग्रेस ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया क्योंकि यदि वह ये सीटें हार जाती तो भविष्य में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का उसका दावा कमजोर हो जाता।
…. कोई भी राजनीतिक गठबंधन हो, उसमें कुछ न कुछ खींचतान बनी ही रहती है। यह खींचतान तब और बढ़ जाती है, जब चुनाव आ जाते हैं। इन दिनों महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनावों के चलते पक्ष-विपक्ष के गठबंधनों के बीच आपसी खींचतान देखने को मिल रही है, लेकिन यह स्पष्ट ही है कि एनडीए के मुकाबले विपक्षी दलों के मोर्चे आइएनडीआइए में वह कुछ ज्यादा ही है। इसका कारण यह है कि जहां भाजपा के सहयोगी दल उसकी राजनीतिक जमीन पर कब्जा करके नहीं उभरे, वहीं कांग्रेस के सहयोगी दल उसके ही वोट बैंक में सेंध लगाकर मजबूत हुए हैं। इसी कारण उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच खींचतान हुई। दोनों में विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनावों के लिए भी सहमति कायम नहीं हो सकी।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कांग्रेस को नौ में से केवल दो सीट देने की पेशकश की। ये भी वे सीटें थीं, जहां से कांग्रेस के जीतने की संभावना स्याह थी। जोखिम देखकर कांग्रेस ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया, क्योंकि यदि वह ये सीटें हार जाती तो भविष्य में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का उसका दावा कमजोर हो जाता। कांग्रेस ने सपा की पेशकश ठुकराते हुए यह दिखाया कि वह गठबंधन की एकजुटता के लिए त्याग कर रही है। कांग्रेस ने त्याग नहीं किया, बल्कि मजबूरी में उपचुनाव लड़ने से मना किया, यह अखिलेश यादव के इस बयान से स्पष्ट हो गया कि राजनीति में कोई त्याग नहीं करता। उन्होंने यह बयान महाराष्ट्र में पांच सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा ठोकते हुए किया।
सपा ने चेताया है कि यदि उसे महाविकास आघाड़ी ने पांच सीटें नहीं दीं तो वह 25 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार देगी। वह ऐसा कर भी सकती है, क्योंकि मध्य प्रदेश में जब कांग्रेस ने उसे एक अकेली सीट भी नहीं दी थी तो उसने अपने 22 प्रत्याशी उतार दिए थे। कांग्रेस ने हरियाणा में भी सपा को कोई सीट नहीं दी थी। हरियाणा में वह आम आदमी पार्टी से मिलकर चुनाव लड़ने के संकेत देकर पीछे हट गई थी। इसका उसे नुकसान अवश्य हुआ, लेकिन उसका यह फैसला उचित ही था, क्योंकि यदि वह आप से समझौता करती तो वह उसे हरियाणा में अपने वोट बैंक में सेंध लगाने का ही मौका देती। कांग्रेस ने ऐसा करके ही एक के बाद एक राज्यों में अपनी राजनीतिक जमीन खोई है और आज उत्तर प्रदेश, बिहार समेत कई ऐसे राज्यों में तीसरे-चौथे नंबर का दल बनकर रह गई है, जहां कभी वह प्रमुख दल हुआ करती थी।
यह कहना-मानना निरा झूठ है कि सपा, राजद, जदयू, झामुमो, राकांपा, शिवसेना-यूबीटी, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी आदि जो अनेक दल आइएनडीआइए का हिस्सा हैं, वे कांग्रेस के स्वाभाविक सहयोगी हैं। ये सभी दल कांग्रेस विरोध की पैदाइश हैं और वस्तुतः एक-दूजे के स्वाभाविक विरोधी हैं। संविधान और आरक्षण बचाने का थोथा नारा लगाकर वे स्वाभाविक विरोध के इस सच को छिपा नहीं सकते। सहयोगी दलों ने कांग्रेस के कोर वोट बैंक को हड़पकर ही अपना अस्तित्व बनाया है। ये नहीं चाहेंगे कि उनके सहयोग-समर्थन से कांग्रेस फिर से मजबूत हो। सपा के दृष्टिकोण से देखें तो उसने यूपी उपचुनाव में कांग्रेस को महत्व न देकर ठीक ही किया। यूपी में कांग्रेस तभी मजबूत हो सकती है, जब सपा का कुछ वोट बैंक उसके हिस्से में आए। आखिर ऐसे में सपा यह क्यों चाहेगी कि कांग्रेस फिर सशक्त हो। वह यह अच्छे से जानती है कि उसने अपनी राजनीतिक जमीन कांग्रेस के कोर वोट बैंक पर कब्जा करके ही बनाई है। यदि कांग्रेस की भागीदारी वाला महाविकास आघाड़ी सपा को कोई सीट देने के लिए तैयार नहीं तो उसके नजरिये से यह उचित ही है। जब कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना-यूबीटी को एक-दूसरे से सामंजस्य बैठाने में पहले से ही अपनी राजनीतिक जमीन पर सिमटना पड़ रहा है, तब फिर उन्हें एक और नया साझेदार बनाकर अपनी समस्या क्यों बढ़ानी चाहिए?
यदि कांग्रेस यह चाह रही है कि वह अपने सहयोगी दलों से अपना वोट बैंक छीने और यदि फिलहाल यह न कर सके तो कम से कम उनके विस्तार को रोके तो यह गलत नहीं है। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में गुजरात में आप से समझौता कर राजनीतिक आत्मघात ही किया था। उसने हरियाणा में आप को भाव न देकर गुजरात वाली गलती को ठीक करने का ही काम किया। इस पर भी हैरानी नहीं कि झारखंड में कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने आपस में सीटें बांट लीं और राजद को ठेंगा दिखा दिया। ऐसा करके इन दोनों दलों ने कोई गलत काम नहीं किया, क्योंकि एक तो राजद की झारखंड में कोई राजनीतिक हैसियत नहीं और दूसरे, वह यहां कांग्रेस एवं झामुमो के वोट बैंक में ही सेंध लगाता। अब यह तय सा है कि जब बिहार विधानसभा के चुनाव होंगे तो राजद इसका बदला लेगा और कांग्रेस को कम से कम सीटें देगा। वैसे भी वह पिछली बार उसे 70 सीटें देकर अब तक पछता रहा है। राजद यह भी जानता है कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने का मतलब होगा, उसे अपने वोट बैंक में साझेदार बनाना और फिर से मजबूत होने का मौका देना। यदि कांग्रेस और उसके सहयोगी दल एक-दूसरे की जड़ें काटने की ताक में रहते हैं तो यह आइएनडीआइए की प्रकृति के कारण। एक दूसरे को हाशिये पर ठेलना इस गठबंधन के घटकों की नियति है। जो दल इसकी कोशिश नहीं करेगा, वह अपने लिए खतरा ही पैदा करेगा। इस गठबंधन के घटकों में यदि कोई साझा तत्व है तो वह है एक-दूसरे की राजनीतिक जमीन पर कब्जा करना।