नई चुनौतियों के मद्देनजर आईएमएफ के ढांचे को बदलना होगा

नई चुनौतियों के मद्देनजर आईएमएफ के ढांचे को बदलना होगा

हमें एक ऐसे ईमानदार मध्यस्थ की जरूरत है, जो अंतरराष्ट्रीय विनिमय के लिए उचित नियमों (जिसमें सबसे पहले सब्सिडी पर नियम शामिल हैं) पर बातचीत करने में दुनिया के देशों की मदद करे, नियमों का उल्लंघन करने वालों को रेखांकित करे, खराब नीतियों की आलोचना करे और संकट में फंसे लोगों के लिए अंतिम उपाय के रूप में कर्जदाता के रूप में कदम उठाए। दुर्भाग्य से आईएमएफ- अपने प्रबंधन और कर्मचारियों की उच्च गुणवत्ता के बावजूद- इन कार्यों को करने के लिए लगातार कमजोर होता जा रहा है।

इस संस्था की समस्याएं इसके प्रशासन में निहित हैं। कर्ज सहित अधिकांश महत्वपूर्ण निर्णय फंड के कार्यकारी बोर्ड द्वारा लिए जाते हैं, जिसमें जी7 सदस्य देशों का रसूख है। अमेरिका के पास वीटो है और जापान की वोटिंग शक्ति चीन से अधिक है, जबकि चीन की अर्थव्यवस्था जापान की तुलना में बहुत बड़ी है।

भारत का वोट-शेयर यूके या फ्रांस की तुलना में बहुत कम है, जबकि उसकी अर्थव्यवस्था इन दोनों देशों से बड़ी है और तेजी से बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि दुनिया की पहले से कायम महाशक्तियां हार नहीं मानना चाहतीं। इसलिए तेजी से बढ़ती उभरती अर्थव्यवस्थाओं का कम प्रतिनिधित्व बना हुआ है। यह भी अब स्पष्ट नहीं है कि पुरानी शक्तियां हमेशा वैश्विक हितों का ध्यान रखती हैं।

शीतयुद्ध के बाद वाली दुनिया में, एकमात्र आर्थिक महाशक्ति के रूप में अमेरिका पर खेल के नियमों को लागू करने और आम तौर पर विवादों से परे रहने को लेकर भरोसा किया जा सकता था। लेकिन जैसे-जैसे किसी और के द्वारा ओवरटेक कर लिए जाने की उसकी चिंताएं बढ़ी हैं, वह रेफरी से खिलाड़ी की भूमिका में आता गया है। एक समय अमेरिका कहता था कि खुलेपन से सभी को लाभ होता है, परंतु अब अमेरिका केवल अपनी शर्तों पर ही खुलापन चाहता है।

आईएमएफ के ऋण संबंधी निर्णयों की गुणवत्ता भी चिंतनीय है। जब भी वह कर्ज देता है, तो आर्थिक संकट में फंसे अच्छे सम्पर्कों वाले देश आसान शर्तों पर अधिक राहत प्राप्त कर लेते हैं। आईएमएफ पर हमेशा से ही राजनीतिक प्रभाव रहा है, लेकिन शक्तिशाली बोर्ड सदस्यों से बाहरी सहायता मिलने के कारण अतीत में इसके सफल होने की अधिक संभावना रहती थी- उदाहरण के लिए, 1994 का मैक्सिकन संकट, जिसमें अमेरिका ने बचाव-पैकेज में भारी हिस्सा दिया था। लेकिन अब जी7 देशों में भी राजकोषीय संसाधनों की कमी के कारण, आईएमएफ को तेजी से अपनी पूंजी को जोखिम में डालना होगा, क्योंकि अपेक्षाकृत कम जोखिम वाले शक्तिशाली बोर्ड सदस्य मित्रों को ऋण देते हैं।

क्या चीन जी7 से जुड़े किसी भी देश को कर्ज नहीं देगा, और क्या इसका विपरीत भी उतना ही सही नहीं है? क्या निष्क्रिय शासन पूर्ण रूप से पंगु होने से बेहतर नहीं है? शायद यही कारण है कि देशों की मतदान-शक्ति को प्रभावित करने वाले किसी भी सुधार के साथ आईएमएफ प्रशासन में भी मौलिक परिवर्तन होना चाहिए।

कार्यकारी बोर्ड को ऋण कार्यक्रमों सहित ऑपरेशनल निर्णयों पर मतदान नहीं करना चाहिए। इसके बजाय, आईएमएफ के शीर्ष प्रबंधन को वैश्विक अर्थव्यवस्था के लाभ के लिए ऑपरेशनल निर्णय लेने की पूरी छूट दी जानी चाहिए, जिसमें बोर्ड व्यापक दिशा-निर्देश तय करे और समय-समय पर जांच करे कि क्या उनका पालन किया गया है।

हो सकता है कि चीन जैसी उभरती हुई ताकत इससे सहमत न हो कि आईएमएफ के ढांचे में बदलाव किया जाना चाहिए, क्योंकि अब जाकर वे उसका लाभ उठाने की स्थिति में आए हैं। लेकिन अगर चीन बदलावों को स्वीकार नहीं करेगा तो दूसरे ताकतवर देश भी नहीं करेंगे।

आईएमएफ का गठन हुए आठ दशक बीत चुके हैं और समय आ गया है कि दुनिया आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसके प्रशासनिक-ढांचे में बदलाव की कोशिश करे। क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया, तो यह संस्था धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती चली जाएगी। (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)

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