गलत खान-पान की आदत से भारत को हर साल 1.3 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान!
गलत खान-पान की आदत से भारत को हर साल 1.3 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान!
हमारी खराब खाने की आदतें भारत और दुनिया को कितना महंगा पड़ रही हैं, यह जानकर आप हैरान रह जाएंगे.
इतना ही नहीं, भारत में भी लोगों की गलत खाने की आदतें जेब पर भारी पड़ रही हैं. भारत में खाने-पीने के सिस्टम में हर साल लगभग 1.3 ट्रिलियन डॉलर के ‘छिपे’ हुए खर्चे होते हैं. सिर्फ इसलिए क्योंकि ज्यादातर लोग पैकेट बंद खाना ज्यादा पंसद कर रहे हैं जबकि अनाज, फल, सब्जियां और फायदेमंद फैटी एसिड का सेवन कम कर रहे हैं. इस वजह से कई तरह की बीमारियां हो रही हैं, जैसे कि मोटापा, दिल की बीमारी और डायबिटीज.
‘छिपे’ हुए खर्च का मतलब उन खर्चों से है जो सीधे तौर पर दिखाई नहीं देते या बाजार में उनकी कोई कीमत नहीं होती. जैसे, जब हम कोई चीज खरीदते हैं, तो हमें सिर्फ उसका दाम ही चुकाना पड़ता है. लेकिन उस चीज को बनाने, पैकेजिंग करने और हमें पहुंचाने में पर्यावरण को भी कुछ नुकसान पहुंचता है. यह नुकसान हमें सीधे तौर पर दिखाई नहीं देता, लेकिन यह एक छिपा हुआ खर्चा है.
इसी तरह, गलत खानपान से होने वाली बीमारियों का इलाज करवाने में भी हमें पैसे खर्च करने पड़ते हैं. यह भी एक “छिपा हुआ खर्चा” है, क्योंकि यह खर्चा हमें तब तक दिखाई नहीं देता जब तक हम बीमार नहीं पड़ जाते. FAO की रिपोर्ट में इन्हीं छिपे हुए खर्चों के बारे में बताया गया है, जो हमारे खेती-बाड़ी और खानपान के तरीकों से जुड़े हैं. रिपोर्ट बताती है कि भारत में खान-पान की गलत आदतों की वजह से होने वाला नुकसान देश के कुल खाद्य व्यवस्था के नुकसान का 73% से ज्यादा है.
छिपे हुए खर्चे: सेहत पर सबसे ज्यादा असर!
यह स्टडी बताती है कि दुनियाभर में जो छिपे हुए खर्चे होते हैं, उनमें सबसे बड़ा हिस्सा हमारी सेहत से जुड़ा है. खासकर अमीर देशों में, जहां खेती-बाड़ी और खाने-पीने का सिस्टम काफी आधुनिक है, वहां गलत खानपान की वजह से सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है. इसके बाद पर्यावरण को होने वाले नुकसान का नंबर आता है.
रिपोर्ट में 13 तरह की खानपान से जुड़ी गलतियों के बारे में बताया गया है जिनसे हमारी सेहत को नुकसान पहुंचता है. जैसे साबुत अनाज, फल और सब्जियां कम खाना, ज्यादा नमक खाना और लाल व प्रोसेस्ड मीट का ज्यादा सेवन. ये गलतियां अलग-अलग खेती-बाड़ी सिस्टम में अलग-अलग तरह से दिखाई देती हैं.
खेती-बाड़ी के अलग-अलग रंग, अलग-अलग खर्चे!
खेती-बाड़ी करने के तरीके जमाने के साथ बदलते रहे हैं. पहले परंपरागत तरीके से खेती होती थी और अब ज्यादातर जगहों पर आधुनिक तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि खेती के इन अलग-अलग तरीकों से अलग-अलग तरह के छिपे हुए खर्चे भी जुड़े होते हैं.
FAO की रिपोर्ट में दुनिया भर में मौजूद अलग-अलग खेती-बाड़ी सिस्टम के बारे में बताया गया है. इन सिस्टम को 6 ग्रुप में बांटा गया है: प्रोट्रैक्टेड क्राइसिस, पारंपरिक (Traditional), विस्तारित (Expanding), विविधीकरण (Diversifying), फॉर्मलाइजिंग (Formalizing) और इंडस्ट्रियल.
हर जगह खानपान से जुड़ी परेशानियां एक जैसी नहीं होतीं. जैसे ज्यादातर जगहों पर साबुत अनाज कम खाना सबसे बड़ी समस्या है, लेकिन जहां अशांति या भुखमरी होती है (संकटग्रस्त सिस्टम) या जहां खेती पुराने तरीकों से होती है (परंपरागत सिस्टम), वहां फल और सब्जियां कम खाना ज्यादा चिंता की बात है.
नमक का ज्यादा सेवन भी एक बड़ी समस्या है. जैसे-जैसे खेती-बाड़ी आधुनिक होती जाती है, नमक की खपत बढ़ती जाती है और फिर औद्योगिक सिस्टम में आकर थोड़ी कम होती है. वहीं दूसरी तरफ, प्रोसेस्ड और रेड मीट का सेवन परंपरागत सिस्टम से औद्योगिक सिस्टम तक लगातार बढ़ता जाता है.
पर्यावरण को नुकसान: खेती का एक और छिपा खर्चा!
गलत खानपान के अलावा खेती के तरीकों से पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी छिपे हुए खर्चों में एक बड़ा हिस्सा होता है. ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, नाइट्रोजन का बह जाना, जमीन के इस्तेमाल में बदलाव और पानी का प्रदूषण. इन सब से जुड़े खर्चे उन देशों में बहुत ज्यादा होते हैं जहां खेती-बाड़ी तेजी से बदल रही होती है. ऐसे देशों में ये खर्चा लगभग 720 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाता है.
औपचारिक और औद्योगिक खाद्य सिस्टम में भी पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचता है. लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान उन देशों में होता है जो लंबे समय से संकट का सामना कर रहे हैं. वहां पर्यावरण को होने वाला नुकसान उनकी GDP का 20 फीसदी तक होता है.
गरीबी और भुखमरी: समाज को चुकाना पड़ता है खेती का ये खर्चा!
रिपोर्ट के अनुसार, गरीबी और कुपोषण जैसी सामाजिक समस्याएं उन जगहों पर ज्यादा होती हैं जहां खेती-बाड़ी पुराने तरीकों से होती है या जहां लंबे समय से संकट चल रहा हो. इन सामाजिक समस्याओं का खर्चा क्रमशः 8 और 18 फीसदी GDP तक होता है, जो दिखाता है कि लोगों की आजीविका को बेहतर बनाने और मानवीय सहायता, विकास और शांति निर्माण के प्रयासों को मजबूत करने की तत्काल जरूरत है.
‘द स्टेट ऑफ फ़ूड एंड एग्रीकल्चर 2024’ रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि स्थानीय स्थितियों को ध्यान में रखते हुए और सभी संबंधित लोगों की राय लेते हुए नीतियां बनाई जाएं. रिपोर्ट में ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कोलंबिया, इथियोपिया, भारत और यूनाइटेड किंगडम जैसे अलग-अलग देशों और खाद्य सिस्टम के उदाहरण देकर इस बात को समझाया गया है.
आज के फैसले, कल का भविष्य!
FAO के डायरेक्टर-जनरल क्यू डोंग्यु कहते हैं, “आज हम जो चुनाव करते हैं, जिन चीजों को हम जरूरी समझते हैं और जो उपाय हम अपनाते हैं, उन्हीं से हमारा भविष्य तय होगा. असली बदलाव तब शुरू होता है जब हर कोई अपनी तरफ से कोशिश करता है और सरकार उन्हें सही नीतियों व निवेश से मदद करती है. दुनिया भर में खेती-बाड़ी के तरीकों को बदलना बहुत जरूरी है ताकि सबके लिए एक अच्छा भविष्य बनाया जा सके.”
रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया है कि इस बदलाव के लिए किसानों, खेती से जुड़े कारोबारियों, सरकारों, बैंकों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों सबको मिलकर काम करना होगा. यह भी सच है कि खेती में होने वाले छिपे हुए खर्चों को कम करने से सब पर अलग-अलग असर पड़ेगा. लेकिन अगर सरकार अच्छी नीतियां बनाए तो छोटे किसानों और कारोबारियों को ज्यादा दिक्कत नहीं होगी. सरकार ऐसे तरीके भी निकाल सकती है जिससे गरीब और कमजोर लोगों की भी मदद हो सके.
खेती-बाड़ी को कैसे बेहतर बनाएं
यह रिपोर्ट कहती है कि हमें खेती-बाड़ी के तरीकों को बदलना होगा ताकि वे और भी बेहतर बन सकें. इसके लिए सिर्फ पैसे कमाने (GDP) के बारे में ही नहीं सोचना होगा, बल्कि यह भी देखना होगा कि खेती से पर्यावरण, लोगों की सेहत और समाज पर क्या असर पड़ रहा है. रिपोर्ट में खेती-बाड़ी को और भी अच्छा बनाने के लिए कुछ जरूरी सुझाव दिए गए हैं.
किसानों और खेती से जुड़े लोगों को पैसे और नियमों के जरिए मदद की जाए ताकि वे खेती ऐसे तरीके से करें जिससे पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे. साथ ही, यह भी ध्यान रखा जाए कि खेती से जुड़े सभी लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार हो. सरकार ऐसे नियम बनाए जिससे अच्छा और पौष्टिक खाना सबको सस्ते में और आसानी से मिल सके. इससे गलत खानपान से होने वाली बीमारियां कम होंगी और लोगों को इलाज पर कम पैसे खर्च करने होंगे.
खेती से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए कई तरीके अपनाए जा सकते हैं. जैसे, खाने की चीजों पर लेबल लगाना, उन्हें सर्टिफिकेट देना, कंपनियों को कुछ नियम मानने के लिए कहना और सबको प्रदूषण के बारे में जानकारी देना.
खेती-बाड़ी में बदलाव: सबकी भागीदारी जरूरी!
रिपोर्ट में कुछ और जरूरी सुझाव दिए गए हैं. लोगों को यह पता होना चाहिए कि वे जो खाना खा रहे हैं, उसका पर्यावरण, समाज और उनकी सेहत पर क्या असर पड़ता है. यह जानकारी आसान भाषा में होनी चाहिए ताकि सभी लोग, खासकर गरीब लोग, सही चुनाव कर सकें.
स्कूल, अस्पताल और सरकारी दफ्तर जो बड़ी मात्रा में खाना खरीदते हैं, वे अपनी खरीददारी से खेती के तरीकों को बेहतर बना सकते हैं. इसके साथ ही लोगों को अच्छे खानपान के बारे में जानकारी देना भी जरूरी है. गांवों का विकास करते समय हमें पर्यावरण, समाज और सेहत का ध्यान रखना होगा. सरकार, समाज और सभी लोगों को मिलकर खेती-बाड़ी को बेहतर बनाने के लिए नए-नए तरीके ढूंढ़ने होंगे.
भारत सरकार कितनी गंभीर
FAO के मुताबिक, टिकाऊ खेती-बाड़ी का मतलब है ऐसा सिस्टम जो किसानों को भी फायदा पहुंचाए, समाज में सबको बराबरी का मौका दे और पर्यावरण का भी ध्यान रखे. इससे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी खाने की कमी नहीं होगी. इसके लिए भारत ने कई अहम कदम भी उठाए हैं. 2013 में बना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (NFSA) 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को खाना मुहैया कराता है.
नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (NMSA) मिशन के ज़रिए किसानों को ऐसे तरीके सिखाए जा रहे हैं जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना अच्छी फसल उगाई जा सके. फोर्टिफाइड राइस डिस्ट्रिब्यूशन (2024-2028) मिशन के जरिए, चावल में जरूरी पोषक तत्व मिलाकर लोगों को ज्यादा पौष्टिक खाना दिया जा रहा है, ताकि कुपोषण को दूर किया जा सके.
राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) से खेती को आधुनिक बनाने, नई तकनीक लाने और किसानों की आमदनी बढ़ाने में मदद मिल रही है. ईट राइट इनिशिएटिव मिशन लोगों को अच्छे खानपान के बारे में जागरूक करके, उन्हें सेहतमंद बनाने की कोशिश की जा रही है. वहीं डिजिटल कृषि मिशन (DAM) खेती में नई तकनीक का इस्तेमाल करके (जैसे मोबाइल ऐप्स और सेंसर) किसानों को फसल उगाने में मदद की जा रही है.