प्रस्तावना में बने रहेंगे समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष शब्द !

प्रस्तावना में बने रहेंगे समाजवाद व धर्मनिरपेक्ष शब्द, कोर्ट के इस फैसले ने तय कर दी इन शब्दों की जगह

भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर फ्रांसीसी, रूसी और अमेरिकी क्रांति का प्रभाव झलकता है. भारतीय संदर्भ में समाजवाद का आशय यही माना जाना चाहिए कि आय, प्रतिष्ठा व जीवन-यापन के स्तर में विषमता का अंत हो जाए. संविधान का धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतंत्रात्मक स्वरूप संविधान की एक बुनियादी विशेषता है. प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने कहा कि इतने सालों के बाद समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाया नहीं जा सकता. दरअसल आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार द्वारा जो भी फैसले लिए गए थे, उनकी विपक्षी दलों ने तब तीखी आलोचना की थी.

आपातकाल और समाजवाद

जून 1975 में आंतरिक अशांति के नाम पर इंदिरा गांधी ने मंत्रिमंडल की स्वीकृति लिए बिना ही देश में आपात स्थिति लागू कर दी थी. उन दिनों बिहार से शुरू हुई संपूर्ण क्रांति समस्त भारत में फैल गयी थी. गुजरात में भी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी के विरुद्ध छात्रों का आंदोलन चल रहा था. इंदिरा गांधी के लिए मुश्किलें कम होने के बजाय बढ़ रही थी. समाजवादी नेता राज नारायण ने इंदिराजी की संसद सदस्यता को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दे दी थी कि लोकसभा चुनाव प्रचार के सरकारी सुविधाओं का दुरुपयोग किया गया था. गौरतलब है कि राज नारायण 1971 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध चुनावी मैदान में थे. उनकी याचिका पर हुई सुनवाई के आधार पर 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया. हालांकि 24 जून को सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत तो मिली. लेकिन यह राहत आंशिक ही थी क्योंकि कोर्ट के आदेशानुसार अंतिम निर्णय आने तक उनकी संसद सदस्यता बची रहेगी, किंतु वे लोकसभा की कार्यवाहियों में भाग नहीं ले सकेंगी. न्यायपालिका के निर्णय से राजनीतिक स्थिति और भी जटिल हो गयी.

आपातकाल और कांग्रेस, इंदिरा गांधी

संपूर्ण क्रांति का नेतृत्व करने वाले समाजवादी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग की और 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन करने की घोषणा की. नारायण ने राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह का भी आह्वान किया और सेना, पुलिस व अन्य सरकारी कर्मचारियों से अनैतिक एवं गैरकानूनी आदेशों को न मानने की अपील की. अपने राजनीतिक विरोधियों की आवाज को दबाने के लिए इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की देर रात में संविधान के अनुच्छेद 352 में वर्णित प्रावधानों के आधार पर राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद को राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने की अनुशंसा की. राष्ट्रपति ने तत्काल ही आपातकाल की घोषणा कर दी. मध्यरात्रि के आखिरी प्रहर में समाचार पत्रों की विद्युत आपूर्ति बाधित कर कर दी गई और बड़ी संख्या में नेताओं व राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. 26 जून की सुबह 6 बजे एक विशेष बैठक में मंत्रिमंडल को इसके संबंध में सूचित किया गया.

आंतरिक शांति के लिए आपातकाल

आंतरिक अशांति के नाम पर आपातकाल लागू करने का यह निर्णय सही था या गलत, इसके बारे में भी देशवासियों की राय की एक नहीं थी. शहरी मध्य वर्गीय लोग हड़तालों और धरने-प्रदर्शनों के बंद हो जाने से खुश थे और गरीब कल्याणकारी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन की उम्मीद कर रहे थे. हालांकि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण हो चुका था. कन्नड़ भाषा के साहित्यकार शिवराम कारंथ व हिंदी भाषा को “मैला आँचल” जैसे लोकप्रिय उपन्यास देने वाले शब्द-शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने-अपने पद्म पुरस्कारों के वापसी की घोषणा कर दी. नागरिक-अधिकारों के स्थगन से सर्वत्र बेचैनी महसूस की जा रही थी. एक अनुमान के अनुसार लगभग 676 विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया. शाह आयोग का आकलन है कि एक लाख, ग्यारह हजार लोगों को निरोधक कानून के अंतर्गत जेल जाना पड़ा.

कांग्रेस के विरोधी आज बगलगीर

कुल मिलाकर आपातकाल अपनी ज्यादतियों के कारण ही याद किया जाता है. भारतीय राजनीति विरोधाभासों से भरी हुई है. 1970 के दशक में जिन राजनीतिक दलों ने कांग्रेस के विरुद्ध संघर्ष किया था, उनमें से अधिकांश दल आज कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल हैं. जनमानस में अब धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के बजाय हिंदुत्व की विचारधारा तुलनात्मक रूप से अधिक स्वीकार्य हो गयी है. वैश्वीकरण के इस दौर में मुक्त बाजार व्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. ऐसे राजनीतिक-आर्थिक वातावरण में उच्चतम न्यायालय का निर्णय संविधान में निहित मूल भावनाओं को परिलक्षित करता है.

सोवियत संघ के पतन के पश्चात् “समाजवाद” शब्द वैश्विक स्तर पर आलोचना के केंद्र में आ गया. राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था का आकर्षण खत्म होने का एक बड़ा कारण यह भी था कि इसके अंतर्गत किसी को भी अपने उद्योग-धंधे की शुरूआत करने की इजाजत नहीं थी. साम्यवादी चीन ने बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को ध्यान में रख कर अपनी अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद के महत्व को स्वीकार कर लिया.

भारत में समाजवाद के प्रति जादुई आकर्षण का कारण समता मूलक समाज की स्थापना करने की चाह है. जवाहर लाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण व राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने भारत की जरूरतों के अनुकूल समाजवाद की व्याख्या की. वे सब गांधीजी के सपनों को ही साकार करना चाहते थे कि हरेक आँख से बहते आँसू को पोछ दिया जाए. सनातन धर्म की व्यवस्था समाज के सभी वर्ग के लोगों को आत्मसम्मान के साथ जीने की अनुमति देती है. माता शबरी के रामचंद्र जहां आदर्श पुरुष हों वहां सर्वधर्म समभाव की विचारधारा प्रवाहित होगी ही. धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय अवधारणा भारतीय समाज के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं हुई. भारत में किसी भी धार्मिक संस्था को उतनी शक्ति नहीं मिली जितनी यूरोप में चर्च को मिली थी. यहां “दो तलवारों के सिद्धांत” का भी कभी प्रचलन नहीं रहा. भारत में निरंतर होने वाले धर्म-सुधार आंदोलनों ने समाज को नई दिशा दी है, जिसके कारण लोग धार्मिक सहिष्णुता की भावना से परिचित हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सही अर्थों में देश के लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत हुई है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.

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