हिसार में चौधरी देवीलाल की जन्म-जयंती के अवसर पर नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, फारूक अब्दुल्ला, शरद पवार, सीताराम येचुरी, डी. राजा और ओमप्रकाश चौटाला आदि उपस्थित थे। उस समय विपक्षी दलों की दशा-दिशा कमोबेश वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों से मेल खाती थी। टीएमसी, सपा, आम आदमी पार्टी समेत कई दल कांग्रेस के साथ मंच साझा करने को तैयार नहीं थे।

नीतीश कुमार का कांग्रेस के साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं था, लेकिन व्यापक एकता के लिए वह कांग्रेस को आवश्यक मानते थे। उन्होंने कांग्रेस के बिना किसी व्यावहारिक विकल्प को नकार कर उसकी स्वीकार्यता पर जोर दिया। उन्होंने लालू प्रसाद के साथ सोनिया और राहुल गांधी से भेंट कर अपनी मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया।

जब छह महीने गुजरने के बाद भी कांग्रेस नेतृत्व रहस्यमय चुप्पी साधे रहा तो अंतत: नीतीश कुमार ने पटना में जून 2023 को गठबंधन का पहला सफल आयोजन किया और कांग्रेस के प्रति बरती जा रही राजनीतिक अस्पृश्यता को तोड़ने का काम किया। तब अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी और अखिलेश यादव के साथ मंच पर सोनिया एवं राहुल गांधी भी उपस्थित रहे। पटना में प्रधानमंत्री पद के लिए किसी पार्टी के नेता को मनोनीत करने के बजाय सामूहिक नेतृत्व में कार्य किए जाने का भी प्रस्ताव पारित किया गया।

नीतीश कुमार पीएम पद के लिए पहली पसंद थे, लेकिन वह कहीं गठबंधन के संयोजक न बन जाएं, इस भय से ग्रस्त कांग्रेस ने बेंगलुरु और मुंबई की बैठकों की पहल अपने हाथों में ले ली और फिर दिल्ली में ममता बनर्जी की ओर से नीतीश कुमार के संयोजक बनने पर सवाल उठाकर विपक्षी एकता को विफल किया। जब गठबंधन को सक्रिय करने के लिए कोई कदम नहीं उठे तो नीतीश कुमार उससे बाहर आ गए।

एनडीए से इतर उनके द्वारा किया गया एक और प्रयोग असफल रहा था। यह प्रयोग 2015 के विधानसभा चुनाव के अवसर पर किया गया, जिसमें जदयू, राजद, सपा, जनता दल (एस) आदि की एकता कराकर कारगर विपक्ष बनाने का था। नए दल का नाम, नेता का चयन और चुनाव चिह्न आदि पर सर्वानुमति बन चुकी थी और यह तय हो गया था कि मुलायम सिंह यादव की अध्यक्षता में सपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव मैदान में उतरा जाएगा, लेकिन ऐन चुनाव के मौके पर सपा ने स्वयं को अलग कर लिया।

अविश्वास, वैचारिक अंतर्विरोध एवं गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते आईएनडीआईए की हालत पहले से भी खराब है। ममता बनर्जी ने कांग्रेस को असफल मानकर गठबंधन के नेतृत्व के लिए स्वयं को उपयुक्त माना है। सपा, एनसीपी, आप और राजद ने भी उनके नेतृत्व को स्वीकार्य माना है। वामपंथी दलों का ममता विरोध जगजाहिर है। बंगाल में वाम मोर्चा और कांग्रेस में घमासान जारी है। यहां इसका उल्लेख आवश्यक है कि सपा, राजद, एनसीपी, शिवसेना-यूबीटी, द्रमुक, टीएमसी, वाईएसआर कांग्रेस, जेडीयू, आप और यहां तक कि वाम दलों को प्राप्त हुआ जनाधार कांग्रेस पार्टी से छीना हुआ है। भाजपा एकमात्र दल है जो अपना स्वतंत्र अस्तित्व एवं क्षेत्र बनाने में सफल रही है।

विपक्षी गठबंधन के बीच ताजा विवाद उत्तर प्रदेश, दिल्ली और महाराष्ट्र में अधिक है। पिछले लोकसभा चुनाव में पिता मुलायम सिंह से भी अधिक सीटें प्राप्त कर अखिलेश यादव का जोश सातवें आसमान पर है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में कांग्रेस द्वारा उपेक्षित होकर वह पिता के पदचिह्नों पर चलते दिख रहे हैं, जो इस पक्ष में कभी नहीं रहे कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में फले-फूले। यह मुलायम सिंह ही थे, जिन्होंने 1999 में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था।

प्रारंभिक दिनों में लालू-नीतीश की जोड़ी ने भी बिहार में कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाने में कामयाबी हासिल की। बाद में लालू के लिए कांग्रेस अनिवार्य हो गई। आईएनडीआईए में खींचतान के बीच रामगोपाल यादव का यह वक्तव्य महत्वपूर्ण है कि राहुल गांधी गठबंधन के नेता नहीं हैं। संसद में भी सपा और कांग्रेस की राहें जुदा दिखती हैं। सपा और टीएमसी को अदाणी प्रकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण संभल की घटना दिखती है।

कांग्रेस द्वारा स्वयं को सेक्युलर एवं सामाजिक न्याय की एकमात्र पार्टी प्रचारित करना भी सपा, राजद सरीखी पार्टियों को अखर रहा है। महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने गठबंधन की खाई को और चौड़ा कर दिया है। महाराष्ट्र सपा ने खुद को महाविकास आघाड़ी से अलग कर लिया है। महाराष्ट्र सपा अध्यक्ष अबू आसिम आजमी ने शिवसेना को भाजपा से भी ज्यादा खतरनाक कहा है। इसके जवाब में शिवसेना-यूबीटी नेता संजय राउत ने सपा को भाजपा की बी टीम करार दिया।

हरियाणा से सबक लेकर आप ने दिल्ली में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। पंजाब में दोनों दलों में निरंतर कटुता बढ़ती जा रही है। बंगाल में अधीर रंजन चौधरी को अध्यक्ष पद से हटाकर कांग्रेस ने टीएमसी को जो संदेश दिए, वे असफल रहे हैं।

दरअसल अपनी-अपनी जमीन खोने का डर सभी घटकों को है। इसीलिए लगभग सभी दल इस पर एकमत हैं कि गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस के हाथों से निकले। यह उठापटक दर्शाती है कि बेमेल और अवसरवादी गठबंधन की उम्र लंबी नहीं होती। कांग्रेस सिर्फ अपने विस्तार के प्रति समर्पित दिखती है और यही मंसूबा क्षेत्रीय दलों को सशंकित किए हुए है। भविष्य में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में टकराव तीव्र होता दिखे तो आश्चर्य नहीं होगा।

(लेखक पूर्व सांसद हैं)