जिंदगी जीत का है दूसरा नाम ?
जिंदगी जीत का है दूसरा नाम, अतुल सुभाष के मामले से सीख लेकर युवाओं को होगा जीना सीखना
जिंदगी जीत का दूसरा नाम है, इतिहास साक्षी है कि मनुष्य ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर जिंदगी की तमाम दुश्वारियों पर जीत हासिल की है, विश्व के महाश्मशान, धरती रूपी मृत्युलोक में जिंदगी का एक- एक पड़ाव मौत पर जीत हासिल करते रहने की जीत है, तमाम तरह की उलझनों, समस्याओं, बीमारियों, निराशाओं के बीच मौत को धत्ता बताती जिंदगी झूम-झूम कर गाती रहती है, मृत्यु अवश्यंभावी है, यह जानते हुए भी जिंदगी ऐसे चलती रहती है जैसे कभी खत्म होगी ही नहीं! मनुष्य जीवन की आंखों में आंखें डाल इसकी बेवफाइयों को चुनौती देता रहता है कि देखें तो जिंदगी आखिर कितने गम दे सकती है, भूख से अंतड़ियां सूखती रहती हैं और आदमी पानी पी-पीकर जी लेता है, कैंसर का दर्द रह-रहकर मौत की याद दिलाता रहता है और आदमी है कि लगातार झड़ते जाते बालों में भी जीवन की खूबसूरती तलाशता रहता है.
हमारे दिल में हूक उठना है स्वाभाविक
प्रेम में हार, प्रियजनों की बिछुड़न के बाद टूटे हुए दिल से हूक उठती रहती है और मनुष्य अपनी अदम्य जिजीविषा के दम पर सब सह लेने का ‘नाटक’ करता ‘महान’ बना रहता है, प्राकृतिक आपदाओं के बीच पसरी मौतों के बीच बची जिंदगी अपनी आखिरी सांस तक लड़ती रहती है, जिंदगी की चाह है ही इतनी मोहक ! ये धरती, आकाश, बरखा, बादल, पंछी, संगी, साथी, दुश्मन सब जैसे किसी सम्मोहन की तरह अपनी ओर खींचते रहते हैं, ऐसे जैसे किसी खेल में रमे हैं हम जिसकी हार में भी जीत है, लेकिन कभी-कभी जिंदगी हार जाती है और मौत जीत जाती है, मौत की यह जीत तब और भी बेमानी लगती है जब कोई खुद ही मृत्यु के वरण का निर्णय ले लेता है, प्राकृतिक मृत्यु से पहले ही जिंदगी से ऊपर मृत्यु की स्वीकृति और चुनाव जिंदगी को जैसे उसकी हैसियत सा दिखा जाती है, हारी हुई जिंदगी अपना सा मुंह लेकर चलती रहती है लेकिन कभी-कभी तो व्यक्ति को मौत के मुंह से भी बाहर खींच लाती है, आत्मघात हार जाता है और जिंदगी फिर जीत जाती है,
मृत्यु तो अवश्यंभावी है ही , फिर भी जिंदगी के खेल से बीच में ही क्विट (छोड़) कर जाना खेल की विसंगतियों की पोल खोल देता है, तमाम तरह की सामाजिक वर्जनाओं में जकड़ा और आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाने में असफल मनुष्य जब घोर मानसिक तनावों और प्रताड़नाओं से गुजरने लगता है और बाहर निकलने का कोई समाधान उसे नहीं सूझता तब हारा हुआ मनुष्य आत्महत्या की ओर प्रेरित होने लगता है, हालांकि आत्महत्या कोई नई बात नहीं है फिर भी वर्तमान वर्षों में इसकी बढ़ती संख्या चिंताजनक है.
आत्महत्या को कैसे ठहराएंगे जायज?
आखिर वो कौन से कारक हैं जिनसे अभिशप्त होकर मनुष्य को आत्महत्या जैसे कदम उठाने पड़ते हैं! मनुष्य मुक्ति का यह मार्ग क्यों चुनता है कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! वर्तमान समय में बढ़ती हुई विषमताएं, आर्थिक पिछड़ापन, बढ़ती हुई प्रतियोगिताएं और सामान्य जीवन में सामंजस्य नहीं बना पाना (इनके अतिरिक्त कई अन्य व्यक्तिगत कारण भी हो सकते हैं) इन दिनों आत्महत्या के प्रमुख कारणों में शुमार हैं, कभी विदर्भ की धरती का सूखापन किसानों के जीवन में हरियाली नहीं ला पाता तो कभी मजदूरों के परिवारवालों की लगातार डूबती जाती और खोती जाती खुशियां दम तोड़ जाती हैं, कभी पारिवारिक तनाव औऱ दबाव भी इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता, प्रेम में धोखा पाना और अकेलेपन का अहसास इन दिनों आत्महत्या के प्रमुख कारणों में शुमार हैं, हालांकि बहुत से मनोवैज्ञानिक शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि आत्महत्या करने वाले शख्स की मानसिक बनावट ही कुछ ऐसी होती है कि वो अपने आस – पास की परिस्थितियों से आसानी से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता, ज्योतिष शास्त्रों में तो मनुष्य के जन्म के समय के ग्रह- नक्षत्रों की गणना को भी आत्महत्या के लिए उत्तरदायक ठहराया गया है, आत्महत्या के सभी प्रेरकों में मनुष्य का अपने जीवन को बेमानी समझना, अकेलेपन का एहसास या जिंदगी से ना- उम्मीदी ही प्रमुख कारक हैं.
अवसाद धकेलता है आत्महत्या की ओर
ऐसी परिस्थितियों का निर्माण धीरे -धीरे होता है जिनमें व्यक्ति अवसाद ग्रस्त होकर जिंदगी से विमुख होता जाता है, लेकिन कभी- कभी विभिन्न शोधों में यह बात भी सामने आई है कि आत्महत्या के कारक त्वरित रूप से विकसित और घटित होते हैं. इन दिनों बढ़ते सायबर क्राइम भी आत्महत्या के कारकों की तरह तेजी से विकसित हो रहे हैं, यहां तक कि कई तरह के ऑनलाइन खेलों की वजह से भी जाने कितनी जानें चली गईं, कारण चाहे जो भी हो, एक बहुमूल्य जीवन का इस तरह चला जाना निश्चय ही मानव के प्रगतिशील इतिहास पर धब्बा है, मानव की हार है. यह स्थिति तब और भी संवेदनशील हो जाती है जब एक व्यक्ति की आत्महत्या का दोषी दूसरे व्यक्तियों को मान लिया जाता है, आपसी सहयोग या सामंजस्य की कमी, रिश्तों की लगातार नाकामी और अवहेलना, एक ही तरह की परिस्थिति से लगातार जूझते रहना, समाज और परिवार में अपने लिए महत्व की तलाश करते जीवन को ऐसा लगता है जैसे कि उसकी रोज ही थोड़ी- थोड़ी हत्या हो रही है और आहत मन इस स्थिति से निपटने के प्रयास के बदले या यह मानकर कि परिस्थितियां कभी नहीं बदलेंगी ,आत्महत्या कर लेता है. लगातार बढ़ती जा रही व्यक्तिवादिता, अति- संवेदनशीलता, अकेलापन आदि मौजूदा समय की देन हैं जिसमें सोशल मीडिया पर हजारों लोगों से घिरा रहकर भी दरअसल व्यक्ति एकदम अकेला होता है.
एकाकी मन हो जाता है परेशान
अपनी परेशानियों से अकेला जूझता एकाकी जीवन, जो अपने जैसी ही अन्य एकाकी और परेशान हस्तियों से जुड़ा होता है. आखिर कोई किसी की मदद करे तो कैसे, सब जैसे एक ही डूबती- हिचकोले खाती हुई नाव पर सवार हों, जैसे सबके पास आत्महत्या कर लेने का कोई न कोई कारण हो! ऐसा नहीं है कि पिछले कुछ दशकों ने ही समाज को आत्महंता बनाया है लेकिन पिछले दशकों में आत्महत्या की जमीन उर्वर जरूर हुई है, इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. ऐसी विषम परिस्थिति को नजरअंदाज भी नहीं किया जाना चाहिए जिसमें बच्चों तक में यह संक्रात्मकता फैलती जा रही है, हमारी सहनशक्ति इतनी घट गई है कि हमें आत्महत्या करने का रास्ता ही सबसे सुगम लगता है.
जीवन की मोहकता का आकर्षण इस कदर घटते जाना चिंताजनक और निराशापूर्ण है, जिंदगी का आकर्षण हमें अपनी ओर खींचता ही नहीं! भावी पीढ़ी को एक मजबूत आधार प्रदान करने की कोशिश हमें करनी चाहि. तकनीकी सफलता तो ठीक है लेकिन साथ ही हमें एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना होगा जो जीवन से भरपूर हो, जिसमें आनंद हो, खुशियां हों, दोस्ती हो, हंसी हो और इन सबसे बड़ी बात यह जज्बा हो कि हम जीवन की कठिनाइयों से जूझ लेंगे, लड़ लेंगे! दोस्तों की इस लड़ाई में मदद करेंगे, आत्महत्या की प्रवृत्ति का बार- बार उद्वेलित करना एक मनोरोग है, अगर किसी को बार- बार ऐसे खयाल आयें तो मनोचिकित्सकों से परामर्श अवश्य करना चाहिए. जीवन एक बहुमूल्य रत्न की तरह है, ईश्वर के इस वरदान और आशीर्वाद की रक्षा करनी चाहिए और मृत्यु को कौन टाल सकता है भला? मृत्यु तो एक न एक दिन आनी ही है, अवश्यंभावी है ही! फिर क्यों हम स्वयं अपने प्राणों की आहुति दें,… और देखें तो कि आखिर जिंदगी हमें कितने गम और कितनी खुशियां दे सकती है, देखें इसकी हद क्या है!
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