सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज को कब और कैसे हटाया जा सकता है?
महाभियोग: सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज को कब और कैसे हटाया जा सकता है?
भारत में सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के किसी जज को उनके पद से हटाना इतना आसान नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कई प्रावधान हैं.
कपिल सिब्बल समेत कई विपक्षी सांसदों ने राज्यसभा में जस्टिस यादव के खिलाफ महाभियोग का नोटिस देकर इस मामले को एक नया मोड़ दे दिया है. इस नोटिस पर 55 राज्यसभा सांसदों ने हस्ताक्षर किए हैं. अब सबकी नजरें राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल पर टिकी हैं कि वो इस पर क्या कार्रवाई करते हैं.
2019 में हाईकोर्ट के जज बने जस्टिस शेखर यादव ने हाल ही में एक भाषण में अल्पसंख्यकों के खिलाफ कई विवादित बातें कहीं. इस भाषण में उन्होंने समान नागरिक संहिता का समर्थन भी किया. जस्टिस यादव का यह भाषण इलाहाबाद हाईकोर्ट के परिसर में दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट से एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी है.
महाभियोग क्या होता है?
महाभियोग एक गंभीर मामला है और इसे हल्के में नहीं लिया जाता. महाभियोग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके जरिए संसद सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के किसी जज को उसके पद से हटा सकती है. यह तभी हो सकता है जब जज पर ‘साबित कदाचार’ या ‘अक्षमता’ के आरोप साबित हो जाएं.
भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की प्रक्रिया बताई गई है. यह प्रक्रिया महाभियोग कहलाती है.
- अनुच्छेद 124(4): यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने की प्रक्रिया बताता है.
- अनुच्छेद 218: यह अनुच्छेद कहता है कि हाईकोर्ट के जज को हटाने के लिए भी यही प्रक्रिया लागू होगी.
जस्टिस यादव पर महाभियोग का क्या है कारण?
महाभियोग प्रस्ताव में कहा गया है कि जस्टिस यादव ने ‘सार्वजनिक रूप से राजनीतिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करके’ सीमा लांघ दी है और यह एक गंभीर उल्लंघन है. हाईकोर्ट के जजों को कट्टरपंथी समूहों या दलों से जुड़ने का कोई आधार नहीं है. कोई भी वादकारी उस अदालत में न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता जिसमें एक सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ और बहुसंख्यकवाद के पक्ष में ऐसी पक्षपाती राय रखता हो. एक जज को सभी धर्मों और समुदायों के प्रति निष्पक्ष रहना चाहिए और उसे ऐसे बयान नहीं देने चाहिए जिससे किसी को बुरा लगे.
महाभियोग प्रस्ताव में जस्टिस यादव के कुछ विवादित बयानों का जिक्र किया गया है, जैसे: “राम मंदिर को अपनी आंखों से देखना”, “भारत को बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार चलना चाहिए… यह कानून है”, “मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह हिंदुस्तान है.”
प्रस्ताव में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1997 में जारी ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन’ का भी हवाला दिया गया है जिसमें कहा गया है कि एक जज को सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं होना चाहिए. राजनीतिक मामलों, लंबित मामलों या न्यायिक निर्णय के लिए उठने की संभावना वाले मामलों पर सार्वजनिक रूप से अपने विचार व्यक्त नहीं करने चाहिए. प्रस्ताव में कहा गया है कि जस्टिस यादव के कार्यों से ‘कदाचार के आधार साबित होते हैं और महाभियोग के आरोप बनते हैं’.
जज पर महाभियोग: प्रक्रिया क्या है?
जज पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया ‘जजेस इन्क्वायरी एक्ट 1968’ में बताई गई है. जज पर महाभियोग चलाने के लिए क्या-क्या करना होता है, यह इस कानून में बताया गया है. इस कानून के मुताबिक, महाभियोग का प्रस्ताव तभी माना जाएगा जब लोकसभा (निचला सदन) के कम से कम 100 सांसद और राज्यसभा (ऊपरी सदन) के कम से कम 50 सांसद इसके लिए लिखित में अपनी सहमति दें.
जस्टिस शेखर कुमार यादव के केस में 55 सांसदों के हस्ताक्षर के साथ राज्यसभा सचिवालय में 21 पेज का प्रस्ताव जमा किया गया है. इसमें कपिल सिब्बल के साथ कांग्रेस के पी चिदंबरम और दिग्विजय सिंह, आम आदमी पार्टी के राघव चड्ढा, तृणमूल की सागरिका घोष और साकेत गोखले, आरजेडी के मनोज झा और सीपीआईएम के जॉन ब्रिटास का भी समर्थन है.
जज पर महाभियोग की जांच कैसे होती है?
जब संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया जाता है, तो लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति को एक जांच समिति बनानी होती है. इस समिति में तीन सदस्य होते हैं: सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या एक जज समिति के अध्यक्ष होते हैं. दूसरे सदस्य किसी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होते हैं. तीसरा लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति किसी प्रसिद्ध कानूनविद को इस समिति में शामिल करते हैं. 2011 में जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर जब जांच हुई थी, तो प्रसिद्ध कानूनविद फली नरीमन इस समिति में थे.
समिति जज पर लगे आरोपों की जांच करती है और उन्हें तय करती है. अगर जज पर मानसिक अक्षमता का आरोप है तो समिति उनकी मेडिकल जांच करा सकती है. समिति अपनी जांच की प्रक्रिया खुद तय करती है. साथ ही, समिति सबूत इकट्ठा करती है और गवाहों से पूछताछ करती है.
जज पर महाभियोग की जांच के बाद क्या होता है?
जब जांच पूरी हो जाती है, तो समिति अपनी रिपोर्ट लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति को सौंप देती है. इस रिपोर्ट में जांच के नतीजे और समिति के विचार होते हैं. अध्यक्ष/सभापति इस रिपोर्ट को जल्द से जल्द लोकसभा/राज्यसभा में पेश करते हैं. अगर रिपोर्ट में यह कहा जाता है कि जज दोषी नहीं है, तो मामला वहीं खत्म हो जाता है.
अगर रिपोर्ट में यह कहा जाता है कि जज दोषी हैं, तो उस सदन में जहां महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था, वहां इस पर चर्चा होती है और मतदान होता है.
किस आधार पर जज को हटाया जा सकता है
संविधान में साफ लिखा है कि जज को सिर्फ दो आधार पर हटाया जा सकता है: साबित कदाचार और अक्षमता. साबित कदाचार का मतलब है कि जज ने अपने पद का गलत इस्तेमाल किया है, गलत काम किया है या भ्रष्टाचार किया है. जबकि अक्षमता का मतलब है कि जज शारीरिक या मानसिक रूप से अपना काम करने में असमर्थ है. जांच पूरी होने के बाद समिति अपनी रिपोर्ट संसद को सौंपती है.
संसद जज को हटाने का फैसला ले सकती है. महाभियोग प्रस्ताव पारित होने के लिए संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है. जो सदस्य उस दिन संसद में मौजूद हों और वोट कर रहे हों, उनमें से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों को जज को हटाने के पक्ष में वोट करना होगा. साथ ही, जज को हटाने के पक्ष में वोट करने वालों की संख्या उस सदन के कुल सदस्यों की संख्या के आधे से ज्यादा होनी चाहिए.
अगर संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित हो जाता है तो राष्ट्रपति जज को हटाने का आदेश जारी करते हैं. हालांकि अब तक भारत में किसी भी सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज को महाभियोग से नहीं हटाया गया है.
कब-कब जजों पर चलाया गया महाभियोग?
आजादी के बाद से भारत में 6 बार जजों पर महाभियोग चलाने की कोशिश की गई है, लेकिन एक भी बार यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई. सिर्फ़ दो मामलों में जांच समिति ने जज को दोषी पाया: जस्टिस रामास्वामी और जस्टिस सेन. 6 में से 5 मामलों में जज पर आर्थिक गड़बड़ी का आरोप था. एक मामले में यौन दुराचार का आरोप था.
- 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. उन पर आर्थिक गड़बड़ी का आरोप था. जस्टिस रामास्वामी का बचाव वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने किया था. यह मामला संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में सुना गया था. लेकिन यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया और जस्टिस रामास्वामी एक साल बाद रिटायर हो गए.
- 2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. उन पर भी भ्रष्टाचार का आरोप था. इस मामले में राज्यसभा ने महाभियोग प्रस्ताव पारित कर दिया था. लेकिन लोकसभा में इस प्रस्ताव पर चर्चा होने से कुछ दिन पहले ही जस्टिस सेन ने इस्तीफा दे दिया. जस्टिस सेन के इस्तीफा देने के बाद महाभियोग की प्रक्रिया रद्द हो गई.
- 2015 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जज जस्टिस एसके गंगले पर यौन शोषण का आरोप लगा और उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया. इस मामले की जांच के लिए एक समिति बनाई गई. 2017 में समिति ने जस्टिस गंगले को क्लीन चिट दे दी.
- 2015 में जब जस्टिस जेबी पारदीवाला गुजरात हाईकोर्ट के जज थे, तब उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया. उन्होंने एक फैसले में यह कहा था कि आरक्षण देश को सही दिशा में आगे बढ़ने से रोक रहा है. इस बयान के कारण उनके खिलाफ महाभियोग की मांग की गई. जस्टिस पारदीवाला ने अपने फैसले से यह बयान वापस ले लिया. इसके बाद, तत्कालीन राज्यसभा सभापति हमीद अंसारी ने महाभियोग प्रस्ताव को रद्द कर दिया.
- 2017 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाईकोर्ट के जज जस्टिस सीवी नागार्जुन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. उन पर एक दलित जज को प्रताड़ित करने और आर्थिक गड़बड़ी का आरोप था. राज्यसभा के जिन सांसदों ने इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए थे, उन्होंने बाद में अपने नाम वापस ले लिए. इसके कारण प्रस्ताव के लिए जरूरी हस्ताक्षर की संख्या कम रह गई और यह प्रस्ताव विफल हो गया.
ऐसे ही 2018 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. यह एक राजनीतिक रूप से विवादास्पद मामला था. तत्कालीन राज्यसभा सभापति एम वेंकैया नायडू ने प्रारंभिक चरण में ही इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया.
जजों को हटाना इतना मुश्किल क्यों है?
भारत में जजों को उनके पद से हटाना इतना आसान नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कई प्रावधान हैं. ताकि जज बिना किसी डर या दबाव के अपना काम कर सकें. अगर जजों को डर रहेगा कि उन्हें आसानी से हटाया जा सकता है, तो वो सरकार या किसी ताकतवर व्यक्ति के दबाव में आ सकते हैं और निष्पक्ष फैसला नहीं ले पाएंगे.
तो क्या जज कुछ भी बोल सकते हैं?
भारत में जजों को भी बोलने की आजादी है लेकिन कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना होता है. संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में जजों को भी बाकी नागरिकों की तरह बोलने की आजादी है. लेकिन यह आजादी कुछ सीमाओं के साथ है. जज ऐसा कुछ नहीं बोल सकते जिससे समाज में अशांति फैले, अनैतिकता बढ़े या उनके पद की गरिमा को ठेस पहुंचे. किसी जज को ऐसा कोई स्टेटमेंट नहीं देना चाहिए जिससे ये लगे कि वो किसी के पक्ष में हैं या किसी के खिलाफ.
- बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ ज्यूडिशियल कंडक्ट (2002): यह दस्तावेज जजों के लिए एक तरह की गाइडलाइन है जिसमें यह बताया गया है कि उन्हें कैसे पेश आना चाहिए और क्या करना चाहिए.
- रेस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ ज्यूडिशियल लाइफ (1997): यह दस्तावेज जजों के लिए नैतिक मूल्यों और आदर्शों की व्याख्या करता है.
इसके अलावा, न्यायपालिका के पास अपने अंदरूनी नियम भी हैं जिनके जरिए यह देखा जाता है कि जजों के बयान उचित हैं या नहीं. अगर कोई जज ऐसा बयान देता है जो गलत है, तो उस पर कार्रवाई की जा सकती है.
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह बहुत जरूरी है कि न्यायपालिका निष्पक्ष रहे और लोगों का उस पर विश्वास बना रहे. लोगों को यह विश्वास होना चाहिए कि उन्हें न्यायपालिका से न्याय मिलेगा, चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या पृष्ठभूमि से क्यों न आते हों. न्यायपालिका की निष्पक्षता से लोकतंत्र मजबूत होता है.