आर्कटिक में हर साल पिघल रही है 10-12 फीसदी बर्फ !
आर्कटिक में हर साल पिघल रही है 10-12 फीसदी बर्फ, पूरी दुनिया के लिए ये बड़ी चुनौती
आर्कटिक समुद्री बर्फ़ की कमी को लेकर किए गए शोधों के अनुसार, पिछले चार दशकों में आर्कटिक में समुद्री बर्फ़ के विस्तार में हर दशक 12.6% की कमी आई है.
कभी बर्फ से ढका हुआ आर्कटिक क्षेत्र, आज तेजी से बदल रहा है. इस क्षेत्र में हर साल समुद्री बर्फ़ का 10-12 फीसदी हिस्सा पिघल रहा है, जो पिछले 1,500 सालों में सबसे तेज़ दर है. यह बदलाव सिर्फ आर्कटिक तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर चेतावनी बन चुका है.
समुद्र के बढ़ते स्तर, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन के रूप में इसके प्रभाव हम सभी महसूस कर सकते हैं. आर्कटिक का पिघलता हुआ बर्फ न केवल वहां के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है, बल्कि यह वैश्विक जलवायु के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गया है.
इस रिपोर्ट में हम विस्तार से जानेंगे कि यह आर्कटिक में हो रहे इस बदलाव का दुनिया पर क्या असर हो सकता है, और क्यों हमें इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है.
आर्कटिक बर्फ के पिघलने की दर
आर्कटिक समुद्री बर्फ़ की कमी को लेकर किए गए शोधों के अनुसार, पिछले चार दशकों में आर्कटिक में समुद्री बर्फ़ के विस्तार में हर दशक 12.6% की कमी आई है. यह दर इतनी तेज़ है कि इससे आर्कटिक का पारिस्थितिकी तंत्र धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है और जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को और भी तेज़ कर रहा है. साल 2023 में एमआईटी जलवायु पोर्टल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित किया था, जिसके अनुसार समुद्र में बर्फ़ का स्तर पिछले 1,500 सालों में सबसे कम हो गया है, इसका मतलब है कि आज से 1,500 साल पहले जितनी बर्फ़ थी, अब उतनी नहीं है.
आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ़ का पिघलना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन इस प्रक्रिया में मानवीय हस्तक्षेप ने इसे बहुत तेज़ कर दिया है. शोधकर्ताओं के अनुसार, 2030 तक आर्कटिक महासागर में पहला ऐसा दिन आ सकता है जब समुद्र में बर्फ की कुल मात्रा एक मिलियन वर्ग किलोमीटर से कम हो जाएगी.
इसका मतलब है कि उस दिन समुद्र की सतह पर बर्फ बहुत कम रह जाएगी या बिलकुल नहीं होगी. पहले यह माना जा रहा था कि ऐसा दिन बहुत बाद में आएगा, लेकिन अब यह अंदाजा है कि यह दिन जल्दी आ सकता है. यह खबर सभी के लिए चिंता का कारण बन चुकी है, क्योंकि आर्कटिक का बर्फ़ पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
क्यों पिघल रहे हैं बर्फ
आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ़ पिघलने का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है, जो दुनिया भर के तापमान में वृद्धि का कारण बन रही है. जैसे-जैसे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, आर्कटिक क्षेत्र तेजी से गर्म हो रहा है, जिससे वहां की बर्फ पिघलने लगी है. इसके अलावा, ग्रीनहाउस गैसों, जैसे कि कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन, का अत्यधिक उत्सर्जन वातावरण को और गर्म कर रहा है, जो आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ़ को प्रभावित कर रहा है.
जब बर्फ पिघलती है, तो समुद्र और पानी की गहरी सतह सूर्य की गर्मी को अधिक अवशोषित करती है, जिससे तापमान और बढ़ता है, इस प्रक्रिया को “अल्बेडो प्रभाव” कहा जाता है. इसके साथ ही, आर्कटिक क्षेत्र में मौसम पैटर्न में बदलाव और स्थानीय जलवायु परिवर्तन भी बर्फ़ के पिघलने को तेज़ कर रहे हैं.
आर्कटिक बर्फ़ और वैश्विक जलवायु परिवर्तन
आर्कटिक बर्फ़ का पिघलना केवल उस क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ता है. आर्कटिक में बर्फ़ का बहुत अहम रोल है – यह पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करने में मदद करता है. जब बर्फ पिघलती है, तो वह पानी में बदल जाती है, और पानी समुद्र की गहरी सतह की तरह सूरज की गर्मी को सोख लेता है. वहीं की सफेद सतह सूरज की गर्मी को रिफ्लेक्ट करती है, लेकिन पानी ज्यादा गर्मी को सोख लेता है. इसे “अल्बेडो प्रभाव” कहते हैं. इससे पृथ्वी का तापमान और बढ़ता है, और ग्लोबल वार्मिंग तेज़ हो जाती है.
इसके अलावा, आर्कटिक की बर्फ़ के पिघलने से समुद्र का स्तर भी बढ़ता है. जब बर्फ़ पिघलती है, तो ज्यादा पानी महासागरों में चला जाता है, जिससे समुद्र का स्तर ऊंचा हो जाता है. इसका सबसे ज्यादा असर तटीय इलाकों पर पड़ता है, जैसे मालदीव, बांगलादेश और कुछ यूरोपीय देश, जहां समुद्र तट बहुत निचली जगह पर हैं. इन जगहों पर समुद्र का बढ़ता स्तर बाढ़ और अन्य समस्याओं का कारण बन सकता है.
जैव विविधता पर प्रभाव
आर्कटिक का इकोसिस्टम काफी नाजुक है. यहां पर रहने वाले जीव-जंतु, जैसे ध्रुवीय भालू, सील, व्हेल, और विभिन्न प्रकार की पक्षी, आर्कटिक बर्फ़ पर निर्भर करते हैं. जब बर्फ़ पिघलती है, तो इन जीवों के लिए भोजन और आश्रय की समस्या बढ़ जाती है. उदाहरण के तौर पर, ध्रुवीय भालू, जो बर्फ़ पर शिकार करते हैं, उन्हें भोजन के लिए ज्यादा दूरी तय करनी पड़ती है, क्योंकि बर्फ़ के टुकड़े पहले की तुलना में अधिक दूर होते जा रहे हैं. इसके अलावा, आर्कटिक समुद्री जीवन, जैसे कि विभिन्न मछलियां और शैवाल, जिनका जीवन बर्फ़ के नीचे होता है, उनके लिए भी यह स्थिति खतरनाक साबित हो सकती है.
इतना ही नहीं समुद्र में बढ़ती गर्मी और ताजे पानी के मिश्रण से समुद्री धाराएं बदल सकती हैं, जिससे समुद्र में रहने वाले विभिन्न जीवों की प्रजातियां प्रभावित हो सकती हैं. जैव विविधता का संकट केवल आर्कटिक तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित करेगा.
स्थानीय समुदायों पर प्रभाव
आर्कटिक में रहने वाले स्थानीय लोग, जैसे कि समोईदी और इनुइट, जो पारंपरिक रूप से शिकार और मछली पकड़ने पर निर्भर हैं, उन्हें भी आर्कटिक बर्फ के पिघलने से गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ की कमी का मतलब है कि यह समुदाय अपने पारंपरिक शिकार और मछली पकड़ने के तरीकों में बदलाव करने को मजबूर हो रहे हैं. बर्फ के पिघलने से बर्फ पर आधारित यातायात भी प्रभावित हो रहा है, जिससे उनके लिए अन्य क्षेत्रों में जाना या सामान लाना और भी कठिन हो गया है.
ऐसे में समुद्र के बढ़ते स्तर और तटीय क्षेत्रों में बर्फ़ की कमी से इन समुदायों का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है. इन छोटे समुदायों के पास सीमित संसाधन होते हैं, और उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने के लिए बाहरी सहायता की जरूरत होगी.
क्या है इसका समाधान
आर्कटिक बर्फ़ के पिघलने के खतरों को देखते हुए, यह समय की मांग है कि वैश्विक स्तर पर तत्काल और प्रभावी कदम उठाए जाएं. जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए, सबसे महत्वपूर्ण कदम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है. पिछले कुछ सालों में वैश्विक नेताओं ने जलवायु समझौतों, जैसे पेरिस समझौते, पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन इन प्रयासों को और तेज़ करने की आवश्यकता है.
इसी के साथ, आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ़ के पिघलने के प्रभावों को समझने और उनसे निपटने के लिए और अधिक शोध करने की आवश्यकता है. इस प्रकार के शोधों से यह पता चलेगा कि आर्कटिक बर्फ़ का पिघलना केवल एक पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह एक आर्थिक और सामाजिक संकट भी हो सकता है, जिसके दूरगामी प्रभाव होंगे.