2024 के जनादेश ने दिया भरोसे को झटका ?

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का मुद्दा पुराना, लेकिन 2024 के जनादेश ने दिया भरोसे को झटका

उन्हें ये काम दिया गया कि वे एक चुनाव के बारे में पूरे देश की विधान सभा, लोकसभा के चुनाव एक साथ हो, इस बारे में लोगों के साथ विचार-विमर्श करे. इसके ऊपर समिति की जो रिपोर्ट पेश की गई थी, उस रिपोर्ट को 17 दिसंबर 2015 में लोकसभा और राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया.  

जब वो रिपोर्ट तैयार की जा रही थी तो उस समय जितनी भी विपक्षी पार्टियां थीं, खासतौर से कांग्रेस, सीपीएम और शरद पवार की अगुवाई वाली एनसीपी, इन सभी दलों ने उसे अव्यवहारिक बताते हुए संविधान के मूल ढांचे के विपरीत बताया. 

वन नेशन वन इलेक्शन के खिलाफ विपक्ष

दरअसल, भारत एक गणतांत्रिक देश है और इसे हम एक राष्ट्र मानकर एक चुनाव कराने की बात कर रहे हैं और ये बातें तब से चली आ रही है. लेकिन 2015 में जो रिपोर्ट आयी थी, उस पूरी रिपोर्ट को पढ़ने के बाद आपके जरूर ये अंदाजा हो जाएगा कि आखिर स्थायी समिति इतनी दुविधा में क्यों है? किस तरह से वन नेशन वन इलेक्शन के पक्ष में अपनी बातें कहें. लेकिन कोई भी वो बात जो तार्किक तरीके से उसकी सहमति के पक्ष में जो कही जानी चाहिए, वो उस रिपोर्ट में भी साफ दिख रही थी. 

अब सवाल ये है कि मोदी सरकार ने फिर से इस बात को दोहराया और चुनाव से पहले भी 2024 में ये बात कही कि वन नेशन वन इलेक्शन के फैसले को वे लागू करने की कोशिश करेंगे. इसी के तहत जब 2024 में सरकार बनी तो फिर इस पर चर्चा तेज हो गई.

लेकिन, इस बार ये दिक्कत है कि पहले की तरह का जनादेश नहीं मिला है. एनडीए को उम्मीद थी कि वे 400 से ज्यादा सीटें हासिल कर लेंगेस जबकि बीजेपी को 370 सीटों जीत का पूरा भरोसा था. शायद उसी के आधार पर ये बात कही भी जा रही थी कि इतने बड़े प्रचंड बहुमत से अगर बीजेपी सत्ता में आ जाएगी तो एक राष्ट्र, एक चुनाव का फैसला हो या नेतृत्व का फैसला है, उसको लागू करने में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं होगी. 

बीजेपी की उम्मीदों को झटका

लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव नतीजे बीजेपी का अपेक्षा के अनुकूल नहीं आए. ये भी कहना यहां पर अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोगों ने उस फैसले को नकार दिया. उस फैसले पर बहुमत का समर्थन नहीं हासिल हुआ, क्योंकि मोदी सरकार ने यह तय कर लिया थी कि हमें इस तरफ बढ़ना है. ऐसे में जाहिर है कि बड़े राजनीतिक विचार इसके पीछे काम कर रहे हैं.

इसके पीछे एक राजनीतिक अवधारणा ये भी काम कर रही है कि जाति गणगणना का टकराव भी इससे होता हुआ दिख रहा है. अभी फिर से इसको दोहराया गया और वन नेशन, वन इलेक्शन प्रक्रिया गत बिल का मसौदा तैयार होता है, फिर सरकार की तरफ से कैबिनेट की बैठक में बिल को स्वीकृति दी जाती हैं.  इस प्रकार सरकार देश के समाने यानी संसद के समाने उसको पेश करती है. 

लेकिन जब संसद के समाने पेश कर रही थी तो ये बात स्पष्ट थी कि इसे समर्थन हासिल नहीं होगा. खासतौर से उस हद तक समर्थन नहीं होगा कि आप एक बिल को पास कराने के लिए जितने समर्थन की जरूरत है, उसकी पूर्ति हो पाएगी. 

एक साथ चुनाव में व्यवहारिक दिक्कतें

संसद में वहीं हुआ, इसे पेश करने के बाद संयुक्त संसदीय समिति को सौंपने का फैसला किया गया. लेकिन, असल सवाल ये है कि हमें धीरे-धीरे एक माहौल बनाने की कोशिश करनी होगी और ये प्रयास लंबे वक्त तक करना होगा. ऐसे लगता है कि 2015 की रिपोर्ट में जो कुछ भी कहा गया है, ये सभी उसी का हिस्सा है. अब इस बिल पर फिर से नए सिरे से बातचीत होगी.  

यह योजना कितनी कामयाब होगी, इसे आगे देखा जाएगा क्योंकि ये एक संवैधानिक प्रावधान है. जैसी हमारे की राजनीतिक स्थितियां हैं, उनमें ये मान लेना की सारे राज्यों के चुनाव एक साथ हो जाएंगे, उसके साथ लोकसभा के चुनाव हो जाएंगे, वो थोड़ा मुश्किल लगता है.

सवाल ये भी है कि राजनीतिक रूप से केन्द्र सरकार जिस तरह फैसले लागू करवाना चाहती है, क्या उससे चुनावों में कोई रूकावट आती है?  इसका जवाब ये है कि संविधान में एक बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वो ये कि नागरिकों को अपनी सरकार चुनने और बनाने का अधिकार दिया गया है. एक मात्र वह ऐसा अधिकार है जिसका प्रयोग नागरिकों को 5 साल में एक बार करना होता है.

लेकिन जो हमारा ढांचा है, केन्द्र की सरकार, राज्य की सरकार, अस्थायी सरकार भी होती है- जो नगर पालिका के रूप में हम देखते है. ऐसे में मान लीजिए एक चुनाव आप किसी तरह से इंजीनियरिंग कर जीतने में कामयाब हो जाते है, तब तो जनता के पास यही विकल्प रह जाता है कि वे दूसरे चुनाव में सावधान हो जाए. फिर दूसरे चुनाव में अपनी जो अपेक्षा होती है, सरकार के जो कामकाज होते है, उसकी वह अपनी समीक्षा रिपोर्ट नागरिक के सामने पेश करती है. ऐसे कई कारण है, जिसकी वजह से वन नेशन वन इलेक्शन पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं.

 

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