सांस्कृतिक समागम का शिखर, परंपरा, धर्म और दर्शन का प्रतीक महाकुंभ !
कुछ इतिहासकारों का मत है कि कुंभ मेला सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुराना है। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने सम्राट हर्षवर्धन के शासन में संपन्न कुंभ मेले का वर्णन किया है। कुंभ मेलों में शास्त्रार्थ होते थे। आध्यात्मिक दार्शनिक विषयों पर चर्चा होती थी। शंकराचार्य ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया था। कुंभ सारी दुनिया को विश्वबंधुत्व लोककल्याण एवं विश्वशांति का संदेश दे रहा है।
…. महाकुंभ अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय है। प्रयागराज में विश्व का सबसे बड़ा मेला सजा है। लाखों श्रद्धालु कड़ाके की ठंड के बावजूद कुंभ का आनंद ले रहे हैं। महाकुंभ देश-विदेश के अनगिनत श्रद्धालुओं की जिज्ञासा है। भारत का चित्त और विवेक सनातन धर्म से प्रेरित है।
इसी धर्म से संचालित भारतीय संस्कृति हजारों वर्ष के अनुभवों का परिणाम है। संस्कृति और परंपरा अंधविश्वास नहीं हैं। ये विशेष प्रकार के इतिहास हैं। इतिहास में शुभ और अशुभ साथ-साथ चलते हैं। शुभ को राष्ट्रजीवन से जोड़ना और लगातार संस्कारित करना संस्कृति है।
राष्ट्रजीवन में बहुत कुछ करणीय है और बहुत कुछ अकरणीय। यहां धर्म, दर्शन, संस्कृति, परंपरा और आस्था राष्ट्रजीवन के नियामक तत्व हैं। ये पांच तत्व राष्ट्रजीवन को ध्येय और शक्ति देते हैं। कुंभ मेला इन्हीं पांचों तत्वों की अभिव्यक्ति है। लाखों श्रद्धालुओं का बिना किसी निमंत्रण प्रयाग पहुंचना आश्चर्य पैदा करता है। करोड़ों लोग आस्थावश आए हैं। तमाम जिज्ञासावश आए हैं और लाखों आश्चर्यवश।
महाकुंभ समागम संस्कृति प्रेमियों का महाउल्लास है। पंडित जवाहरलाल नेहरू भी कुंभ पर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ में लिखा, ‘वास्तव में यह समग्र भारत था। कैसा आश्चर्यजनक विश्वास जो हजारों वर्ष से इनके पूर्वजों को देश के कोने-कोने से खींच लाता है।’ कुंभ स्थल प्रयाग संगम की भूमि भी है। संगम का अर्थ है मिलना। प्रयाग तीन नदियों का संगम है।
यह यज्ञ, साधना, योग और आत्मदर्शन का पुण्य क्षेत्र रहा है। यहां गंगा, यमुना और सरस्वती नदियां गले मिलती हैं। ऋग्वेद के ऋषि ‘इमे गंगे यमुने सरस्वती..’ गाकर स्तुति करते हैं। कुछ लिबरल छद्म सेक्युलर सरस्वती को स्वीकार नहीं करते। सरस्वती का अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा कहा गया है। तीनों संगम में मिलती हैं। तब तप, यज्ञ और योग की तपोभूमि प्रयाग हो जाती है और प्रयाग हो जाता है तीर्थराज।
प्रयाग सामान्य नगर क्षेत्र नहीं है। सरकारें खूबसूरत नगर बना सकती हैं, लेकिन प्रयाग जैसा तीर्थ कोई भी सत्ता नहीं बना सकती। प्रयाग जैसे तीर्थ हजारों वर्ष की तप साधना में विकसित होते हैं। गजब की है यह पुण्यभूमि। पाणिनि ने यहीं पर अष्टाध्यायी लिखी थी। इंडोनेशिया के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ककविन’ में भी प्रयाग कुंभ की महिमा है। तुलसीदास इसे, ‘क्षेत्र अगम गढ़, गाढ़ सुहावा’ कहकर काल का वर्णन करते हैं।
मार्क ट्वेन ने 1895 का कुंभ देखकर लिखा था, ‘आश्चर्यजनक श्रद्धा की शक्ति ने वृद्धों, कमजोरों, युवकों को असुविधाजनक यात्रा में खींचा, इसका कारण क्या है? क्या प्रेम है या कोई भय? मैं नहीं जानता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह अकल्पनीय है। सुंदरतम है।’ वायसराय लिनलिथगो ने 1942 का विशाल कुंभ समागम देखते हुए पंडित मदनमोहन मालवीय से पूछा कि इतने लोगों को निमंत्रित करने में बड़ा धन और श्रम लगा होगा। मालवीय जी ने उन्हें बताया कि सिर्फ दो पैसे का पंचांग देखकर ही यहां लाखों लोग आए हैं।
कुंभ आस्था है। सांस्कृतिक प्रतीक है। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में भी इसका उल्लेख है। सूर्य की 12 राशियों में एक राशि का नाम कुंभ है। मांगलिक कार्यों एवं तप साधना के दौरान सर्वप्रथम कुंभ कलश की स्थापना होती है। पुराणों के अनुसार कलश के मुख में विष्णु हैं। ग्रीवा में रुद्र और मूल में ब्रह्मा हैं। सप्तसिंधु, सप्तद्वीप ग्रह, नक्षत्र और संपूर्ण ज्ञान भी कुंभ कलश में है।
पौराणिक आख्यान के अनुसार एक समय सागर मंथन हुआ था। मंथन से प्राप्त विष महादेव शंकर पी गए, लेकिन मंथन से निकले अमृत कुंभ पर युद्ध हो गया। स्कंद पुराण के अनुसार अमृत घट चार जगह हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गोदावरी के तट पर गिरा था। इन्हीं चार स्थानों पर कुंभ के आयोजन होते हैं। अमृत मिले तो अनंतकाल का जीवन। विश्व के किसी भी विद्वान ने अमृत की चर्चा नहीं की थी।
केवल भारतीय दृष्टि में ही अमृत की प्यास है। अमृत की प्रीति भी अमृत है। सूर्य अमर हैं। उगते हैं। अस्त होते हैं। मास, वर्ष, युग बीतते हैं। नदियां प्रवाहमान रहती हैं। कुंभ मेले में सहस्रों साधु, योगी और मंत्रवेत्ता आए हैं। उनके चित्त में घर-गृहस्थी की चिंता नहीं है, लेकिन लाखों गृहस्थ भी समागम में हैं। सबका विश्वास है कि कुंभ में स्नान और पुष्पार्चन जीवन को सुंदर और समृद्ध बनाएगा।
संस्कृति ही प्रत्येक देश की साधना, उपासना और कर्म को गति देती है। संस्कृतियों की भिन्नता प्रत्येक राष्ट्र की पहचान होती है। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है, ‘भारत में अध्यात्म को, यूनान में सौंदर्य तत्व को, रोम में न्याय और दंड व्यवस्था को, चीन में विराट जीवन के आधारभूत नियमों को, ईरान ने सत् और असत् के द्वंद्व को, मिस्र में भौतिक जीवन की व्यवस्था और संस्कार को और सुमेर जातियों ने दैवीय दंड विधान को अपनी दृष्टि से आदर्श रूप में स्वीकार किया है और उनकी प्रेरणा से संस्कृति का विकास किया है।’
भारतीय संस्कृति और परंपरा में प्रतीक गढ़ने और प्रतीकों को लोकप्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। संस्कृति, परंपरा, धर्म और दर्शन का प्रतीक है कुंभ। ऐसे प्रतीक अल्प समय में नहीं बनते। ओउम् संपूर्णता का प्रतीक है। स्वास्तिक प्रतीक भी लोकप्रिय है। मूर्तियां और मंदिर भी ऐसे ही प्रतीक हैं।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि कुंभ मेला सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुराना है। चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने सम्राट हर्षवर्धन के शासन में संपन्न कुंभ मेले का वर्णन किया है। कुंभ मेलों में शास्त्रार्थ होते थे। आध्यात्मिक दार्शनिक विषयों पर चर्चा होती थी। शंकराचार्य ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया था। कुंभ सारी दुनिया को विश्वबंधुत्व, लोककल्याण एवं विश्वशांति का संदेश दे रहा है। मेले का संदेश सुस्पष्ट है। धर्म, परंपरा, संस्कृति, दर्शन और आस्था के संरक्षण संवर्धन के लिए हम भारत के लोगों को अतिरिक्त श्रम करना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)