कुलपतियों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप: यूनिवर्सिटी पर क्या पड़ता है असर?

 कुलपतियों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप: यूनिवर्सिटी पर क्या पड़ता है असर?

यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) ने नए नियम बनाए हैं जिनसे राज्यपालों को विश्वविद्यालयों के कुलपति चुनने में ज्यादा शक्ति मिल सकती है. कई राज्य सरकारें इस बात से खुश नहीं हैं.

यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) के नए नियमों पर कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर नया विवाद खड़ा हो गया है. यह सिर्फ एक प्रशासनिक बदलाव नहीं है, बल्कि इसके कई शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं. आइए, विस्तार से समझते हैं कि यूनिवर्सिटीज पर इसका क्या असर हो सकता है.

यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन) के नए ड्राफ्ट 2025 में कुछ ऐसे प्रावधान हैं जिनसे राज्य के राज्यपालों को कुलपतियों (VCs) की नियुक्ति में अभूतपूर्व शक्तियां मिल सकती हैं. कई राज्य सरकारें इससे सहमत नहीं हैं और उन्होंने इन नियमों पर कड़ी आपत्ति जताई है.

राज्यपाल आमतौर पर स्टेट यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति भी होते हैं. नए नियमों के अनुसार, कुलपति पद के लिए उम्मीदवारों की छंटाई और नियुक्ति में राज्यपालों की भूमिका काफी बढ़ जाएगी. यह राज्यों के शिक्षा मंत्रालयों की शक्तियों को कम कर सकता है और विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता को खतरे में डाल सकता है.

राज्य सरकारों का कहना है कि यह कदम भारतीय संविधान के खिलाफ है और इससे उच्च शिक्षा में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ेगा. उनका मानना है कि विश्वविद्यालयों को स्वतंत्र रूप से अपने कुलपति चुनने का अधिकार होना चाहिए. 

कुलपति की नियुक्ति के लिए UGC के नए ड्राफ्ट में क्या नियम है
यूजीसी ने कुलपतियों की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यपालों की भूमिका को और मजबूत कर दिया है. इन नियमों में कुछ ऐसे बदलाव हैं जिनसे केंद्र सरकार का दखल बढ़ सकता है. नए नियमों के अनुसार, ‘चांसलर/विजिटर’ तीन विशेषज्ञों वाली ‘सर्च-कम-सिलेक्शन कमेटी’ का गठन करेंगे. 2018 के नियमों में यह नहीं बताया गया था कि कमेटी का गठन कौन करेगा.

नए नियमों में कमेटी के सदस्यों के बारे में स्पष्ट बताया गया है: एक सदस्य चांसलर/विजिटर द्वारा नामित होगा, एक सदस्य यूजीसी अध्यक्ष द्वारा नामित होगा, एक सदस्य विश्वविद्यालय के सर्वोच्च निकाय (सीनेट/सिंडिकेट/कार्यकारी परिषद) द्वारा नामित होगा. इससे केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों को कमेटी में बहुमत मिल जाएगा. 2018 के नियमों में कमेटी के गठन के बारे में इतनी स्पष्टता नहीं थी.

पहले राज्य सरकार तीन नामों की लिस्ट राज्यपाल को भेजती थी और उनमें से एक को राज्यपाल अपना प्रतिनिधि चुनते थे. अब राज्यपाल सीधे अपना प्रतिनिधि नामित करेंगे. कमेटी में यूजीसी का एक प्रतिनिधि पहले से ही होता था और अब भी होगा. यह जरूरी भी है क्योंकि शिक्षा के मानकों को बनाए रखना यूजीसी का काम है. 

कैसे चुने जाते हैं कुलपति?
विश्वविद्यालय का कुलपति उसका सर्वोच्च अधिकारी होता है. यूजीसी के 2018 के नियमों के अनुसार, जब किसी विश्वविद्यालय में कुलपति का पद खाली होता है, तो सबसे पहले एक ‘सर्च-कम-सिलेक्शन कमेटी’ बनाई जाती है. इस कमेटी में हायर एजुकेशन सेक्टर के प्रख्यात जानकार, शिक्षाविद और प्रशासक होते हैं. यह कमेटी कुलपति पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवारों की तलाश करती है.

इसके बाद, कुलपति पद के लिए अखबारों, वेबसाइट या अन्य माध्यमों से विज्ञापन देकर आवेदन मांगे जाते हैं. अलग-अलग शैक्षणिक संस्थानों, संगठनों और विद्वानों से उम्मीदवारों के नाम मांगे जा सकते हैं. कमेटी खुद भी देशभर में उपयुक्त उम्मीदवारों की तलाश कर सकती है. कमेटी सभी आवेदनों और नामांकनों की जांच करती है और इंटरव्यू के माध्यम से उम्मीदवारों का मूल्यांकन करती है. अंत में कमेटी 3-5 उम्मीदवारों की एक लिस्ट तैयार करती है और उसे चांसलर को भेजती है. चांसलर कमेटी की ओर से सुझाए गए नामों में से किसी एक व्यक्ति को कुलपति नियुक्त करते हैं. चांसलर आमतौर पर राज्यपाल होते हैं.

राज्य और निजी विश्वविद्यालयों में भी कुलपति चुनने के लिए एक कमेटी बनाई जाती है. इस कमेटी में एक सदस्य यूजीसी के अध्यक्ष द्वारा चुना जाता है. बाकी सदस्यों का चयन राज्य के अपने कानून के हिसाब से होता है. केरल में 1974 में बना एक कानून बताता है कि राज्यपाल खुद तीन लोगों की एक कमेटी बनाएंगे. एक सदस्य यूनिवर्सिटी की सीनेट द्वारा चुना जाएगा. एक सदस्य यूजीसी अध्यक्ष द्वारा चुना जाएगा. एक सदस्य राज्यपाल खुद चुनेंगे. यह कमेटी जिस व्यक्ति के नाम पर सहमत होगी, उसी को राज्यपाल कुलपति नियुक्त करेंगे.

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विश्वविद्यालय का कुलपति उसका सर्वोच्च अधिकारी होता है.

UGC के नए नियम से यूनिवर्सिटीज पर क्या असर पड़ेगा?
एबीपी न्यूज ने गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में मास कम्युनिकेश डिपार्टमेंट के पूर्व डीन सीपी सिंह से बातचीत की. प्रोफेसर सीपी सिंह ने कहा, ‘आमतौर पर भारत में राज्यों के विश्वविद्यालयों की स्थिति खस्ताहाल है. न पढ़ाई की स्थिति अच्छी है, न अनुशासन की स्थिति अच्छी है, राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत ज्यादा है. जिस राज्य में विश्वविद्यालय होते हैं, वहां की सरकार का बहुत ज्यादा दखल होता है. ये विश्वविद्यालय राज्य की राजनीति के प्रयोगशाला बन गए हैं. ये कोई अच्छे काम के लिए प्रयोगशाला नहीं है. इस स्थिति को सुधारने के लिए राज्यपाल को अब पहले से ज्यादा शक्तियां दी गई हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई की स्थिति, अनुशासन की स्थिति बहुत अच्छी है.’

प्रोफेसर सीपी सिंह ने आगे कहा, ‘अगर ये एक मापदंड मान लिया जाए कि राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं या माना जाए कि केंद्र का दखल और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ जाएगी, लेकिन साथ ही राज्य की यूनिवर्सिटी की स्थिति भी सुधर जाएगी तो बुरा नहीं है. अगर कहीं स्थिति खराब है और उस स्थिति को सुधारने के लिए कोई फैसला लिया गया है तो उसका परिणाम आने का इंतजार करना चाहिए.’

कुलपति की जिम्मेदारी क्या होनी चाहिए?
ये समझने के लिए एबीपी न्यूज ने JNU से रिटायर्ड इकोनॉमिस्ट प्रोफेसर अरुण कुमार से बीत की. उन्होंने बताया, ‘यूनिवर्सिटी का काम सिर्फ एडमिनिस्ट्रेशन करना नहीं है, बल्कि इनका मुख्य काम नई जानकारी जनरेट करना है. नई जानकारी जनरेट करने के लिए सबसे अहम रोल कुलपति का होता है. ये इतना आसान नहीं है. यहां कट-पेस्ट से काम नहीं चलता है. समाज में जरूरी है socially relevant new knowledge generation. मतलब समाजिक रूप से प्रासंगिक नए ज्ञान का सृजन. ये मुख्य जिम्मेदारी होनी चाहिए.’

प्रोफेसर अरुण कुमार ने आगे बताया, ‘देश में यूनिवर्सिटी तो ढेर सारी है, लेकिन हर जगह से नई जानकारी जनरेट नहीं हो रही है. क्योंकि वहां लोग उतने काबिल नहीं है. इसी वजह से स्टूडेंट्स को भी नई जानकारी नहीं मिल पाती है और जब नौकरी के लिए जाते हैं तो कंपनियां कह देती हैं- आप काबिल नहीं हैं.’

वहीं प्रोफेसर सीपी सिंह ने बताया, ‘विश्वविद्यालय विद्या का केंद्र हैं. इनका मुख्य उद्देश्य है- शिक्षण, परीक्षण, शोध. कुलपति को उस राज्य की चुनौतियों से निपटते हुए शोध (रिसर्च) पर फोकस करना चाहिए और उसे प्रोत्साहन करना चाहिए. ये तभी संभव होगा जब कुलपति भी खुद इतने योग्य होंगे और वह केंद्र या राज्य सरकारों के कुप्रभावों से मुक्त होंगे. आजकल ज्यादातर कुलपति इन चीजों पर ध्यान देने के बजाय जिन्होंने उन्हें नियुक्त किया है उन्हें खुश करने में लगे होते हैं.’

उन्होंने ये भी कहा कि “अगर कुलपति के चिंतन के केंद्र में वह विश्वविद्यालय है तो सुधार होगा ही. अगर उसके चिंतन के केंद्र में राज्यपाल बनना है, किसी आयोग का सदस्य बनना है, दूसरे विश्वविद्यालय का कुलपति बनना है या अपने आंकाओं को खुश करना है तो निश्चित रूप से आपके विश्वविद्यालय तरक्की नहीं करेंगे. अमेरिकी विश्वविद्यालय आज दुनिया में अपना नाम रोशन कर रहे हैं इसका मुख्य कारण यही है कि उनके प्रमुख बाहरी प्रभावों से मुक्त होते हैं. अगर कोई बाहरी प्रभाव वह लेते हैं तो ज्ञान का प्रभाव होता है. वह ज्ञान की चुनौती को स्वीकार करते हैं, साथ ही अपने फैकल्टी और छात्रों को भी स्वीकार करना सिखाते हैं.”

यूनिवर्सिटीज का एजुकेशन लेवल कैसे सुधरेगा?
प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा, ‘जब यूनिवर्सिटी में सबसे ऊपर लेवल पर (कुलपति) ऐसा व्यक्ति होगा जिसे पता है कि नई जानकारी कैसे जनरेट करनी है, तभी कुछ बदलाव आएगा. अभी ज्यादातर वही लोग अपॉइंट होते हैं जिनका पॉलिटिकल प्रेशर होता है या मनी पॉवर होता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर राज्य के राज्यपाल और यूजीसी के चेयरमैन एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह काम कर रहे होते, वे केंद्र के एजेंट की तरह काम नहीं करते, तो आज स्थिति कुछ अलग होती. तब हम ये उम्मीद कर सकते थे वाइस चांसलर का उम्मीदवार कोई जानकारीेबल व्यक्ति होगा. मगर, आज आने वाले ज्यादातर वाइस चांसलर उम्मीदवार एक विचारधारा वाले आ रहे हैं. उन्हें अकेडमी से कोई मतलब नहीं है.’

क्या सरकार को जानकारी जनरेशन के कोई मतलब नहीं है?
प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा- राज्य सरकार चाहती है यूनिवर्सिटी का कुलपति ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिस पर उनका कंट्रोल हो. केंद्र सरकार चाहती है उसकी पार्टी की विचारधारा वाला व्यक्ति कुलपति होना चाहिए. ऐसे में राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार दोनों को यूनिवर्सिटी पर बस अपना कंट्रोल चाहिए. उन्हें जानकारी जनरेशन से कोई मतलब नहीं है. 

प्रोफेसर का कहना है कि आज ज्यादातर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी ही वाइस चांसलर को अपॉइंट करती है. क्योंकि पहले राज्य सरकार का ज्यादा हस्तक्षेप होता था, तो उसे कम करने के लिए यूजीसी ने नया नियम बनाया है. इससे अब राज्यपाल के हाथ में सारी पॉवर चली जाएगी और यूजीसी के चेयरमैन भी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्ति किए हए हैं. नए नियम के तहत सेलेक्शन कमेटी में शामिल होने वाले तीन सदस्यों एक ही विचारधारा वाले व्यक्ति हो गए हैं. अगर सारे वाइस चांसलर की राजनीतिक रूप से नियुक्त होगी तो यूनिवर्सिटी से कुछ नया उम्मीद करना मुश्किल है.

हालांकि, इस पर प्रोफेसर सीपी सिंह ने कहा, ‘इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सरकारें राजनीतिक उद्देश्यों से काम करती रही हैं. लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार से ऐसा उम्मीद कर सकते हैं कि वह राजनीतिक उद्देश्यों से काम नहीं करती है.’
 
UGC के नए नियम से फैकल्टी और स्टूडेंट्स पर क्या असर पड़ेगा?
प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा, ‘अगर वाइस चांसलर एक विचारधारा वाला तो होगा, तो वह फैकल्टी भी अपनी विचारधारा वाले लोगों को अपॉइंट करेगा. जैसे जेएनयू में आजकल सारी नियुक्ति बीजेपी और आरएसएस से जुड़े लोगों के हो रहे हैं. ऐसा पहले भी होता था. जब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी, तो उनका प्रेशर रहता था. लेकिन तब कम से कम उनके पास कुछ काबिल लोग थे. आज ऐसे ऐसे लोग अपॉइंट किए जा रहे हैं जिनको जानकारी है ही नहीं. जब फैकल्टी सही तरीके से पढ़ा नहीं पाएंगे, तो स्टूडेंट्स भी पिछड़ जाएंगे. जबकि, यूनिवर्सिटी में हर तरह के आईडिया को अहमियत दी जानी चाहिए, उन्हें इस पर चर्चा करने की आजादी होनी चाहिए.’

प्रोफेसर अरुण कुमार ने उदाहरण देते हुए समझाया कि पहले जेएनयू में बहुत अच्छा वाइब्रेंट एडमॉसफेसर था. मतलब, बच्चों में एक एनर्जी थी और उत्साह से भरे रहते थे. पहले कैंपस में जगह-जगह विचार-विमर्श और खुली चर्चाएं चल रही होती थी. अब ये सब रुक गया है, अगर होता भी है तो अच्छा माहौल नहीं मिल पाता. जब विचार-विमर्श और खुली चर्चाएं होती हैं तो बच्चों में नए आईडिया जनरेट होते हैं. बहुत-सी ऐसी यूनिवर्सिटीज भी हैं कि जब एक विचारधारा वाले वाइस चांसलर आए तो कॉलेज की स्थिति खराब हो गई. 

वहीं प्रोफेसर सीपी सिंह का कहना है कि विचारधारा की बात नहीं है. असल में कोई विचारधारा होती ही नहीं है. सिर्फ अपना स्वार्थ होता है. पार्टियों से लोग जुड़ते हैं और अपना स्वार्थ देखते हैं. अगर किसी विचारधारा से राजनीति चलती, तो कोई नेता एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल नहीं होता. 

अब उद्योगपति भी बन सकेंगे कुलपति!
यूजीसी के नए नियमों के मसौदे में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर एक दूसरा बड़ा बदलाव भी किया है. अब सिर्फ प्रोफेसर ही नहीं, बल्कि उद्योग जगत के एक्सपर्ट या अनुभवी पेशेवर भी सीधे कुलपति नियुक्त किए जा सकते हैं. 

इस पर प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा, ‘कुलपति को कम से कम अपने सब्जेक्ट की जानकारी होनी चाहिए. अगर बाहर से किसी नॉन एकेडमी या इंडस्ट्री के किसी व्यक्ति को लाया जाएगा, तो और बात बिगड़ जाएगी. किसी यूनिवर्सिटी का हेड एकेडमिक होना चाहिए और समाज में उसकी इज्जत होनी चाहिए. अगर रेसपेक्ट नहीं होगी, तो कोई उनकी सुनेगा नहीं. वह अपने आदेश का पालन नहीं करवा पाएंगे. न ही उन्हें पता होगा कि यूनिवर्सिटी कैसे चलती है.’

हालांकि, प्रोफेसर सीपी सिंह का कहना है कि किसी उद्योगपति का कुलपति बनना कुछ भी गलत नहीं है. क्योंकि जितने भी प्राइवेट यूनिवर्सिटीज हैं उनके कर्ता-धर्ता अक्सर उद्योगपति ही होते हैं. बल्कि कुलपति से भी ऊपर चांसलर होते हैं और कुलपतियों की नियुक्ति करते हैं. ये कुलपति आमतौर पर किसी सरकारी यूनिवर्सिटी में कुलपति के पद से रिटायर हुए होते हैं. मेरा अनुमान है कि भारत में आज जिस तरीके से प्राइवेट यूनिवर्सिटीज काम कर रही हैं, अगले 10 साल के भीतर देश के टॉप-20 यूनिवर्सिटी में कम से कम 10 विश्वविद्यालय निजी होंगे. 

कुलपतियों की नियुक्ति: केरल में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच क्या हुआ विवाद
पिछले कुछ सालों से कई राज्यों में गैर-भाजपा सरकारों और राज्यपालों के बीच विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर टकराव देखा गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि राज्यपाल केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त किए जाते हैं और कई बार राज्य सरकारों की पसंद से अलग फैसले लेते हैं. 

2021 में केरल के तत्कालीन राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कन्नूर यूनिवर्सिटी के कुलपति गोपीनाथ रवींद्रन की पुनर्नियुक्ति का विरोध किया था. इस विवाद के बाद 2023 में केरल विधानसभा ने एक कानून पारित किया जिसके अनुसार राज्यपाल की जगह प्रसिद्ध शिक्षाविदों को यूनिवर्सिटी का चांसलर बनाया जाएगा. हालांकि, इस कानून को अभी राष्ट्रपति की मंजूरी मिलना बाकी है.

कर्नाटक सरकार भी चाहती है कि उसे अपने राज्य के विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त करने  में ज्यादा आजादी मिले. इसके लिए दिसंबर 2024 में कर्नाटक विधानसभा ने ‘कर्नाटक स्टेट रूरल डवलपमेंट एंड पंचायती राज यूनिवर्सिटी’ में  राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को चांसलर बनाने के लिए एक कानून पारित किया. हालांकि, इस कानून को अभी राज्यपाल की मंजूरी मिलना बाकी है.

पश्चिम बंगाल में कुलपतियों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा मामला
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर कानूनी लड़ाई छिड़ी हुई है. जून 2023 में राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने 13 स्टेट यूनिवर्सिटीज में अकेले ही अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति कर दी थी. राज्य सरकार ने इस फैसले को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन न्यायालय ने राज्यपाल के फैसले को सही ठहराया. इसके बाद राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. जुलाई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित को कुलपति पद के लिए उम्मीदवारों का चयन करने के लिए अलग-अलग सर्च-सिलेक्शन कमेटी का प्रमुख नियुक्त किया. 

इससे पहले, पश्चिम बंगाल विधानसभा ने ‘यूनिवर्सिटी लॉ (अमेंडमेंट) बिल 2023’ पारित किया था. इस कानून के अनुसार, राज्य की सभी यूनिवर्सिटी में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को चांसलर बनाया जाएगा. हालांकि, इस विधेयक को अभी राज्यपाल की मंजूरी मिलना बाकी है. 

महाराष्ट्र में कुलपति नियुक्ति पर राजनीतिक उठापटक
साल 2021 में महाराष्ट्र में जब उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार सत्ता में थी, तब विधानसभा ने एक कानून पारित किया जिससे राज्यपाल की शक्तियां कम हो गईं. इस कानून के अनुसार, राज्यपाल केवल राज्य सरकार द्वारा सुझाए गए कुलपति उम्मीदवारों को मंजूरी दे सकते थे. कुलपति चुनने में राज्य के उच्च और तकनीकी शिक्षा मंत्री को ज्यादा अधिकार मिल गए. यह कानून तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के पास लंबित रहा.

फिर जब साल 2022 में सरकार बदली और एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने, तो नई सरकार ने यह कानून वापस ले लिया गया. इसके साथ ही कुलपतियों की नियुक्ति की पुरानी व्यवस्था फिर से लागू हो गई, जिसमें राज्यपाल का अंतिम फैसला ही मान्य होता है. 

2022 में डीएमके सरकार ने राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्य सरकार को देने के लिए दो विधेयक पारित किए. लेकिन इन विधेयकों को राज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी.

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