पतन की ओर पश्चिमी सभ्यता ?
निश्चय ही भविष्य का परिणाम पहले से सुनिश्चित नहीं होता। कोई भी अभी लघु दिखता तत्व कभी आगे बढ़कर निर्णायक हो सकता है या कोई आकस्मिक नया तत्व सारे अनुमानों को उलटफेर सकता है किंतु दशकों से विभिन्न क्षेत्रों में विविध संकेतक क्या इंगित कर रहे हैं? राजनीतिक-कूटनीतिक या शैक्षिक-बौद्धिक या जनसांख्यिकी में सभी तथ्य आकलन के लिए सामने हैं।
…. डेढ़ वर्ष पहले इजरायल पर ‘हरकत अल-मुकवामातुल इस्लामिया’ यानी हमास का हमला युद्ध की तरह लंबा चलता रहा। यूरोपीय शक्तियां इसमें निष्क्रिय या निष्प्रभावी रहीं। यह बदलते हालात का संकेत है। छह दशक पहले चार अरब देशों ने इजरायल पर चढ़ाई की थी और चारों को एक सप्ताह में मुंह की खानी पड़ी थी। अब स्थिति यह है कि कोई देश नहीं, बल्कि औपचारिक सत्ता से विहीन एक इस्लामी संगठन ने इजरायल को त्रस्त कर दिया।
अभी भी युद्धविराम हुआ, कोई जीत-हार नहीं हुई, जबकि इन दशकों में युद्ध तकनीक में परिष्कार हुआ है। यह घटनाक्रम इस्लामी राजनीति के समक्ष यूरोप-पश्चिम के पिछड़ने और अंततः गिरने की आशंका को दर्शाता है। महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने 50 वर्ष पहले ही पश्चिम की मानसिक नैतिक स्थिति को आश्चर्यजनक रूप से दुर्बल होता पाया था।
उन्होंने अनुभव किया कि जिन मूल्यों और चेतना से आधुनिक यूरोप महान बना, उससे वह दूर हो चुका है। अब मात्र भौतिक सुख-सुविधा मुख्य प्रेरणा बन रही है। ऐसा समाज किसी विकट चुनौती के सामने घुटने टेकने को तैयार रहेगा। समय ने उन्हें अक्षरशः सही ठहराया। दो दशक पहले इतालवी-अमेरिकी पत्रकार ओरियाना फलासी ने ‘रेज एंड प्राइड’ तथा ‘फोर्स आफ रीजन’ जैसी पुस्तकों में अपने लंबे अनुभव से लिखा था कि यूरोप मर रहा है।
उसने अरब तेल के सामने अपनी प्रतिष्ठा ‘बेच दी’ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुका है। फलत: वहां बाहरी-अंदरूनी, दोनों रूपों में इस्लामी दबदबा बढ़ रहा है। हाल में अमेरिकी विद्वान बिल वार्नर और रिचर्ड बेंकिन ने यूरोप-अमेरिका तथा बांग्लादेश-भारत के घटनाक्रमों के लंबे शोध से वही पाया।
जिहाद इतिहासकार राबर्ट स्पेंसर के अनुसार अधिकांश यूरोपीय देशों का पतन होगा, जहां-तहां छिटपुट प्रतिरोध होते रहेंगे। अभी स्पेनिश लेखक अलवारो पेनास ने लिखा है कि इजरायल के अंततः विनाश की आशंका वास्तविक है। इसके प्रति यूरोपीय और अमेरिकी राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग उदासीन सा है। उसे यह भी समझ नहीं रह गई कि इजरायल के बाद अगला नंबर उसका ही होगा।
यही स्थिति बांग्लादेश में हिंदुओं के क्रमशः विनाश के प्रति भारतीय राजनीतिक वर्ग की है। वह मामूली तथ्य देखने में असमर्थ है। इसकी चेतावनी वर्षों पहले बेंकिन ने अपनी शोध पुस्तक ‘ए क्वाइट केस आफ एथनिक क्लींजिंग’ में दी थी। उनका कहना था कि बांग्लादेश में हिंदुओं के विनाश का अगला चरण भारत में हिंदुओं तथा यूरोप में क्रिश्चियनों का पराभव होगा।
अनेक मुस्लिम नेता और लेखक भी अलग-अलग भाव से यह कहते रहे हैं। उन चिंताओं, चेतावनियों, दावों का कभी तथ्यपरक खंडन नहीं हुआ। उन बातों को ‘अतिवादी’ कहकर अनसुना कर दिया जाता है। यदि कोई ध्यान दिलाए तो अधिकांश बौद्धिक हंस देते हैं कि वैसा भी संभव है भला, पर वे किसी तथ्य, आंकड़े, विवरण, उससे निकलते निष्कर्ष का कोई उत्तर नहीं देते।
श्रीअरविंद ने 1940 में ही कहा था कि यदि मुस्लिम मांगें मान ली गईं तो कश्मीर से हिंदुओं का सफाया हो जाएगा। उस समय भी हमारे तमाम प्रभावी नेताओं-बौद्धिकों ने उसे अनर्गल समझा था। कड़वी सच्चाइयों से मुंह फेरकर केवल अपनी ही काल्पनिक दलील के सहारे, तात्कालिक आरामदेह स्थिति में बने रहना ही यूरोपीय या भारतीय राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग का तरीका रहा है। इजरायल, बांग्लादेश या भारत में भी कश्मीर, बंगाल आदि इलाके वास्तविक स्थिति स्पष्ट दिखा रहे हैं, पर उसका औपचारिक, मौखिक प्रतिकार भी करने से राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग मुंह चुराता है।
उलटे एक वोक किस्म का बौद्धिक वर्ग सदैव उत्पीड़ितों को ही दोषी ठहराने और उत्पीड़कों को आड़ देने में लगा रहता है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों और सामाजिक संगठनों पर वोक दबाव भी उसी का संकेत है। गत वर्ष अमेरिका के ओरेगन में एक आदेश जारी हुआ कि हाईस्कूल उत्तीर्ण होने के लिए ठीक-ठीक पढ़ सकने या सामान्य गणित का जोड़-घटाव करने की क्षमता अब आवश्यक नहीं। वोक बौद्धिक गणित, इतिहास, दर्शन, क्लासिक साहित्य आदि कितने ही ज्ञान-विषयों के विरुद्ध हैं। वे इन विषयों को ‘नस्लवादी’ मानते हैं।
वे जिहाद जैसी वैश्विक परिघटना नहीं देखते। फलत: हमास के बदले इजरायल को दुष्ट कहते हैं। इसी क्रम में अमेरिकी और भारतीय सरकारों को दोषी मानते हैं। सच्चाई बताने वाले लेखकों, पत्रकारों को नस्लवादी, घृणा फैलाने वाले आदि कहकर अपमानित करते हैं। सज्जन मुस्लिमों का उदाहरण दिखाकर वे किसी जिहाद के अस्तित्व से ही इनकार करते हैं।
उलटे इजरायल को नष्ट कर देने की चाह रखने वाले इस्लामी संगठनों का समर्थन करते या मौन रहते हैं। पश्चिमी बौद्धिकता और प्रभावी मीडिया में इसी समझ का अधिक प्रभाव है। कहीं भी वैश्विक जिहाद का खास नोटिस नहीं लिया जाता, सिवा इस रूप में कि इस बहाने निर्दोष मुसलमान परेशान किए जाते हैं।
जिहादी हमलों ने मात्र पिछले साठ वर्षों में ही दुनिया भर में लाखों गैर-मुस्लिमों का संहार किया और इस कार्य में बाधक लगते मुसलमानों को भी मारा, मगर यह तथ्य मुख्यधारा के मीडिया एवं शिक्षण-विमर्श में लुप्त है। इतिहास, राजनीतिशास्त्र या साहित्य के शिक्षण में जिहाद पूरी तरह गायब है। ऐसी स्थिति में नई पीढ़ियां वास्तविकता से परिचित न हों तो भला क्या आश्चर्य!
पश्चिमी सभ्यता का अग्रणी बौद्धिक राजनीतिक वर्ग असुविधाजनक स्थितियों से शुतुरमुर्ग की तरह बचकर सब कुछ सामान्य देखना चाहता है। भारतीय नेता-बौद्धिक तो प्रायः पश्चिम के अंध-अनुयायी ही रहे हैं। सो दुखद सच के बदले सुखद झूठ को महत्व देते हैं। यह दशकों से अविराम चल रहा है। तब बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी।
निश्चय ही भविष्य का परिणाम पहले से सुनिश्चित नहीं होता। कोई भी अभी लघु दिखता तत्व कभी आगे बढ़कर निर्णायक हो सकता है या कोई आकस्मिक नया तत्व सारे अनुमानों को उलटफेर सकता है, किंतु दशकों से विभिन्न क्षेत्रों में विविध संकेतक क्या इंगित कर रहे हैं? राजनीतिक-कूटनीतिक या शैक्षिक-बौद्धिक या जनसांख्यिकी में सभी तथ्य आकलन के लिए सामने हैं।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)