निराश करती नगरीय शासन व्यवस्था ?
यहां न तो अधिकारों का सही तरह वितरण है और न ही पैसे खर्च करने के सुविचारित तौर-तरीके हैं। और तो और नगरीय शासन प्रणाली लोगों से पूरी तरह कटी हुई है। यह भारत में शहरी इलाकों की आम स्थिति है और दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी कोई अपवाद नहीं है। सच तो यह है कि यह शहर-राज्य शेष देश के लिए कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं करता।
…….. शहरी क्षेत्रों में 98 प्रतिशत रिहायश के साथ दिल्ली देश का सबसे अधिक शहरीकृत राज्य है। इन दिनों यहां विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार अभियान चरम पर है। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला भी कायम है। पानी में जहर (अमोनिया) ताजा प्रसंग है, जिस पर राजनीति गर्म है। दिल्ली के लोग पुराने राजेंद्र नगर इलाके में जलभराव के कारण कोचिंग सेंटर में सिविल सेवा के तीन अभ्यर्थियों की मृत्यु की घटना भी नहीं भूले हैं।
मई 2024 में ऑक्सफोर्ड इकोनमिक्स ने दुनिया के बड़े शहरों पर एक अध्ययन जारी किया था, जिसमें दिल्ली को 1000 शहरों में 350वें स्थान पर रखा गया था। यह सही है कि दिल्ली ने आर्थिक और मानव पूंजी सूचकांक में ऊंचा स्थान हासिल किया है, लेकिन जीवन की गुणवत्ता, पर्यावरण और शासन के मामले में यह मीलों पीछे है।
वर्तमान विधानसभा चुनाव में नागरिकों से जुड़े जो मुद्दे सतह पर हैं, उनमें टूटी सड़कें, खराब सीवरेज, स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता, लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा, कचरा कुप्रबंधन के कारण उभरे कूड़े के पहाड़ और अनियंत्रित प्रदूषण शामिल हैं। दरअसल अपने देश में शहरी शासन व्यवस्था की खामियों से ही ग्रस्त है। बेतरतीब विकास और असुरक्षित इमारतें-सड़कें कमजोर सिटी सिस्टम का ही नतीजा हैं।
यहां न तो अधिकारों का सही तरह वितरण है और न ही पैसे खर्च करने के सुविचारित तौर-तरीके हैं। और तो और नगरीय शासन प्रणाली लोगों से पूरी तरह कटी हुई है। यह भारत में शहरी इलाकों की आम स्थिति है और दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी कोई अपवाद नहीं है। सच तो यह है कि यह शहर-राज्य शेष देश के लिए कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं करता।
दिल्ली शायद देश का एकमात्र मेट्रो शहर है, जहां मेयर का कार्यकाल केवल एक वर्ष का है। शहर में तमाम सिविक एजेंसियां हैं, जो निर्वाचित मेयर और दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) की काउंसिल के प्रति जवाबदेह ही नहीं हैं। प्लानिंग, जमीन के इस्तेमाल, जलापूर्ति और स्थानीय परिवहन जैसे अहम मसलों में भी एमसीडी की कोई भूमिका नहीं है। हम जानते हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज हासिल नहीं है।
इस दर्जे के बिना अधिकारों का केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच बंटवारा हो जाता है। इसकी कीमत एमसीडी को अपने हितों के साथ समझौता करके चुकानी पड़ती है। इसके बावजूद यह निराशाजनक है कि चुनावी मैदान में उतरे प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच स्थानीय सरकार की मजबूती, महानगरीय प्रशासन का एक व्यावहारिक, सुचारु ढांचा प्रस्तुत करने का वादा नदारद है।
वास्तव में दिल्ली आज जिन समस्याओं से ग्रस्त है, उनके स्थायी समाधान के लिए नीति-नियामकों का लचर रवैया भारी पड़ रहा है। राजनीतिक दलों ने वोटरों को सीधे लाभ पहुंचाने की घोषणा को अपने लिए अधिक अनुकूल पाया है। उन्हें लगता है कि ये घोषणाएं उनके लिए ज्यादा फायदेमंद हैं, बजाय इसके कि आम लोगों को शहर की प्रगति से जोड़ा जाए। किफायती आवास, साफ-स्वच्छ वातावरण, जलभराव की रोकथाम, स्वच्छ हवा जैसी लोगों की जो बुनियादी जरूरतें हैं, उनकी पूर्ति तभी संभव है, जब समाधान तलाशने और उन्हें लागू करने के उपायों से लोगों को सक्रिय रूप से जोड़ा जाए।
वर्ष 1992 में किए गए 74वें संविधान संशोधन से न केवल नगरीय निकायों को संवैधानिक दर्जा मिला था, बल्कि इससे जमीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण के लिए लोगों की सहभागिता की नींव भी पड़ी थी। यह संवैधानिक संशोधन शक्तियों के निर्धारण से लेकर निकायों के कामकाज, उनके लिए कोष आदि का स्थायी प्रबंध करने वाला था। संविधान ने स्पष्ट रूप से यह अपेक्षा व्यक्त की कि शासन को न केवल लोगों के अधिकतम करीब लाना चाहिए, बल्कि विकास से जुड़ी गतिविधियों के नियोजन में भी आम जनता की सहभागिता सुनिश्चित की जानी चाहिए।
यह कहने में संकोच नहीं कि दिल्ली समेत देश के ज्यादातर राज्य इस संवैधानिक संशोधन को उसकी सही भावना में लागू करने में नितांत असफल साबित हुए। दिल्ली में वार्ड कमेटियों या क्षेत्र सभाओं जैसा कोई औपचारिक प्लेटफार्म नहीं है। यह कल्पना की गई थी कि जिस तरह गांवों में ग्राम सभाएं हैं, ठीक उसी तरह शहरों में क्षेत्र सभाएं संचालित होंगी।
इन सभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधि, एमसीडी के अधिकारी, दूसरी सिविक एजेंसियों के प्रतिनिधि और आम जन एक साथ मिल-बैठकर नियमित रूप से अपने इलाके की समस्याओं पर चर्चा करेंगे और उनके समाधान हासिल करने की कोशिश करेंगे। यह वह मंच होता, जिस पर सामान्य समस्याओं के हल की जिम्मेदारी होती। यही सभा अपने पड़ोस के लिए विकास की योजनाएं भी बनाती। जैसे वह यह तय करती कि कूड़े को कैसे उठाना है और उसका उपचार कहां और किस तरह किया जाना है।
हालांकि वित्त वर्ष 2016-17 में तत्कालीन दिल्ली सरकार ने 70 विधानसभा क्षेत्रों में 3000 मोहल्ला सभाओं के औपचारिक गठन का प्रस्ताव रखा था। इस सुधार के तहत दिल्ली को तीन हजार से छह हजार वोटरों वाले इलाकों में बांटा गया था और हर क्षेत्र के लिए मोहल्ला सभा बनाने का प्रस्ताव था। हर मोहल्ला सभा की प्रति माह बैठक होनी थी, जिसमें अधिकारी लोगों की जरूरतों के अनुसार योजनाओं की प्राथमिकता तय करते। वार्षिक बजट के लिए अपने सुझाव देते और लाभार्थियों की पहचान पारदर्शी तरीके से करते। इसके अलावा मोहल्ला सभा को लोगों की शिकायतों का तत्काल समाधान करना था, लेकिन दुर्भाग्य से यह प्रस्ताव कभी हकीकत का रूप ही नहीं ले सका।
दिल्ली को रहने के लिए बेहतर स्थान बनाने के लिए लोगों की सहभागिता का सपना अधूरा का अधूरा ही रह गया। दुर्भाग्य से यह इस चुनाव में भी मुद्दा नहीं बन पा रहा है। दो करोड़ से अधिक लोगों को ठिकाना देने वाली देश की राजधानी कहीं बेहतर विकेंद्रित नगरीय शासन की हकदार है। एक ऐसा शासन, जो दिल्ली को विश्वस्तरीय शहर बना सके और 21वीं सदी के शहरी भारत के एक आदर्श केंद्र के रूप में स्थापित कर सके।
(लेखक नीति निर्धारक समूह जनाग्रह में नगरीय शासन के विशेषज्ञ हैं)