देश के हितों पर चोट करती विदेशी सहायता ?

देश के हितों पर चोट करती विदेशी सहायता, भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए और अधिक सक्रिय होना होगा
अमेरिका में बदले राजनीतिक परिदृश्य और डोनाल्ड ट्रंप की साफगोई वाली विदेश नीति इसमें तात्कालिक रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है लेकिन भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए और अधिक सक्रिय होना होगा। इसलिए और भी क्योंकि आम तौर पर विदेशी सहायता देने वालों के अपने संकीर्ण स्वार्थ होते हैं। विदेशी फंडिंग के जटिल से जटिल मार्गों को रोकने का प्रबंध करना चाहिए।
….अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जबसे अंतरराष्ट्रीय विकास के लिए संयुक्त राज्य अमेरिकी एजेंसी अर्थात यूएसएड का अमेरिकी विदेश विभाग में विलय करने का निर्णय लिया है, तबसे इस एजेंसी के कार्यकलापों को लेकर चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन हो रहे हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे कुछ अच्छे प्रयासों पर धन खर्च करने वाली यह संस्था अमेरिका के सत्ता परिवर्तन अभियान का जरिया भी बनी हुई थी।
अमेरिकी विदेश विभाग के पूर्व अधिकारी माइक बेंज ने दावा किया है कि यूएसएड ने विभिन्न माध्यमों से बांग्लादेश में तख्तापलट को प्रोत्साहित करने के बाद भारतीय विमर्श को भी प्रभावित करने का प्रयास किया। बेंज के अनुसार अमेरिका ने बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार को कमजोर करने के लिए सांस्कृतिक तनाव का इस्तेमाल कर उनकी सरकार के खिलाफ भावनाओं को भड़काया।
बेंज ने आरोप लगाया है कि यूएसएड अन्य अमेरिकी सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर भारत में मोदी विरोधी राजनीतिक कथानक को तैयार करने के लिए लगातार प्रयास करती रही है। इस कथानक का उपयोग 2019 के आम चुनावों में मोदी विरोधी हवा बनाने के लिए तो किया ही गया, साथ ही आनलाइन विमर्श में हेराफेरी करने, विपक्षी आंदोलनों को वित्तपोषित करने और कुछ दृष्टिकोणों को सेंसर करने के लिए भी किया गया।
बेंज की मानें तो यूएसएड और उसके सहयोगियों ने प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को गलत सूचनाएं यानी फेक न्यूज प्रचारित करने का आरोपित बनाकर पेश किया और ऐसा चित्रण तैयार करने के बाद फेसबुक, वाट्सएप, यूट्यूब और ट्विटर (एक्स) जैसे इंटरनेट मीडिया नेटवर्क पर मोदी समर्थक सामग्री को सेंसरशिप के दायरे में लाने का औचित्य गढ़ा। बेंज का दावा है कि यूएसएड से जुड़े संगठनों ने भारत में फेक न्यूज की फर्जी रिपोर्ट तैयार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया और डिजिटल फोरेंसिक समूहों के साथ सहयोग भी किया।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूएसएड का उस फ्रीडम हाउस नामक संस्था से गठजोड़ है, जो भारतीय लोकतंत्र को लगातार निचले पायदान पर रखती है और यह संदेश देने की कोशिश करती है कि भारत में लोकतंत्र कमजोर होता जा रहा है। इन सनसनीखेज दावों के बीच विकिलीक्स ने भी उजागर किया है कि यूएसएड ने स्वतंत्र पत्रकारिता के विकास का दावा करने वाली इंटरन्यूज नामक एक अन्य संस्था को लगभग 4,100 करोड़ का अनुदान दिया।
इस अनुदान का एक हिस्सा भारत भी आया, जिसमें बड़ी रकम सुप्रीम कोर्ट के एक वकील की ऐसी संस्था को मिली, जिसके परामर्शदाता और उसके द्वारा संचालित कार्यशालाओं में मोदी विरोधी एक्टिविस्ट और पत्रकारों के नाम सामने आते हैं। ये सभी मोदी सरकार के धुर विरोधियों में गिने जाते हैं। इनमें से कई की गिनती वामपंथियों में भी होती है।
यह भी कोई संयोग नहीं कि अमेरिकी दूतावास ने 1.6 करोड़ के बजट की घोषणा से पब्लिक मीडिया ट्रेनरों की नियुक्ति के लिए जो मुहिम चलाई थी, उसके नेतृत्व के लिए इन्हीं के बीच के एक यूट्यूबर पत्रकार को चुना था और उसे दूतावास निमंत्रित किया था। द पैंफलेट नामक पोर्टल ने कुछ समय पहले यह उजागर किया था कि अंधविरोध से ग्रस्त घोर मोदी विरोधी और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता एक भारतीय पत्रकार पर अमेरिका में बनाई गई डाक्युमेंट्री को फोर्ड फाउंडेशन से आर्थिक सहायता मिली थी।
इससे पहले राजीव गांधी फाउंडेशन को जार्ज सोरोस से अनुदान मिलने की खबर आई थी, परंतु अब सैम पित्रोदा के एनजीओ जीकेआइ को भी यूएसएड से पैसा मिलने की बात सामने आई है। यह ध्यान रहे कि राहुल गांधी के अमेरिकी कार्यक्रमों को आयोजित करने का कार्यभार सैम पित्रोदा के जिम्मे ही रहता है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गांधी परिवार के राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से चंदा मिला था।
इसके चलते फाउंडेशन का विदेश चंदे संबंधी एफसीआरए लाइसेंस को रद कर दिया गया था। भारतीय राजनीति और भारतीय मीडिया में विदेशी दखल का चलन नई बात नहीं है। मित्रोखिन आर्काइव्स में वर्णित सोवियत रूसी हस्तक्षेप से लेकर चीनी फंडिंग प्राप्त एक न्यूज पोर्टल की ओर से देश में अराजकता फैलाने के प्रकरण समय-समय पर उजागर होते रहे हैं। देश की राजनीति में विदेशी और खासकर अमेरिकी हस्तक्षेप और राजनीतिक एवं मीडिया कथानक को पैसे के दम पर तोड़ने-मरोड़ने का प्रयास इस मायने में भिन्न है कि यह बेशर्मी से खुलेआम हो रहा है।
यूएसएड के जरिये अमेरिकी प्रयास इस मायने में और भी खतरनाक थे कि वे राजनीति के अलावा लोकतंत्र के विभिन्न अंगों को प्रभावित और अधिग्रहित कर भारतीय संप्रभुता को खुली चुनौती दे रहे थे। इसके अलावा ऐसे प्रयास दूरगामी सामाजिक एवं सांस्कृतिक विप्लव की जमीन भी तैयार करते हैं। यूएसएड द्वारा मोटा चंदा प्राप्त वर्ल्ड विजन और परोक्ष रूप से सहायता प्राप्त जोशुआ प्रोजेक्ट इसका उदाहरण हैं। ये संस्थाएं न सिर्फ मतांतरण करा रही हैं, बल्कि हिंदुओं के प्रति घृणा का माहौल भी तैयार करती हैं।
चाहे राजनीति हो या पत्रकारिता, एक्टिविज्म हो या फिर सामाजिक कार्य, भारत में सभी प्रकार के लोगों को अपनी रुचि और अपने मंतव्य के अनुसार चलने की पूरी छूट है, परंतु एक संप्रभु राष्ट्र का स्वाभिमान इसकी अनुमति कभी नहीं दे सकता कि विदेशी ताकतों और विदेशी पैसे के बल पर देश की दशा-दिशा प्रभावित हो। यह बहुत चिंताजनक बात है कि न सिर्फ पत्रकार और एक्टिविस्ट किस्म के लोग, बल्कि कुछ राजनेता भी अमेरिकी हाथों में खेलने को तैयार हैं।
ऐसी दुष्चेष्टा की जितनी निंदा की जाए, कम है। इसके प्रति देश को सावधान रहना होगा। इसके साथ ही सरकार को भी चाहिए कि विदेशी फंडिंग के जटिल से जटिल मार्गों को रोकने का प्रबंध करे। अमेरिका में बदले राजनीतिक परिदृश्य और डोनाल्ड ट्रंप की साफगोई वाली विदेश नीति इसमें तात्कालिक रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है, लेकिन भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए और अधिक सक्रिय होना होगा। इसलिए और भी, क्योंकि आम तौर पर विदेशी सहायता देने वालों के अपने संकीर्ण स्वार्थ होते हैं।
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)