आइए! राजनीतिक नैतिकता की राख बटोरें !
आइए! राजनीति में नैतिकता की ढलती सांझ की राख बटोरें! नैतिकता की ढलान इसलिए क्योंकि वोट कब्जाने-कबाड़ने के नित-नए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं, जो पूरी तरह से ईमानदार तो नहीं ही कहे जा सकते।
ज्यादातर राज्य मतदाताओं को तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं। यहां तक कि नकद पैसा भी दिया जा रहा है। कोई रोक-टोक नहीं है। रोक-टोक इसलिए नहीं है क्योंकि इस तरह के प्रलोभनों को रोकने के कोई पक्के-लिखित नियम-कायदे ही नहीं हैं।
जो थोड़े-बहुत हैं भी तो उन्हें सख्ती से लागू करने के लिए कोई टीएन शेषन नहीं हैं। अब तो चुनाव आयोग खुद राजनीतिक शेरो-शायरी करता घूम रहा है! वोटिंग के एक दिन पहले थोड़ी-बहुत सख्ती दिखाई जाती है लेकिन वह भी केवल देखने की ही होती है। जिसको जो कुछ बांटना-देना होता है, वह सब तो कर ही लेता है।
कहने को महिलाओं को हर महीने दी जाने वाली धनराशि उनके उत्थान में सहायक है, लेकिन यह सब आखिर है तो वोट बटोरने की ही योजनाएं। अगर आप सही में महिला उत्थान के लिए ही समर्पित हैं तो यह सब हमेशा एक जैसा क्यों नहीं होता? मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों के उदाहरण सामने हैं। यहां चुनाव से पहले तो इस योजना में जो भी आवेदन आए, सबको पैसा दिया जाता रहा लेकिन चुनाव जीतने के बाद अब छंटनी की जा रही है।
मतलब चुनाव पूर्व तो बड़ी संख्या में अपात्र महिलाओं को भी पैसे दिए जाते रहे। अब जांच हो रही है और अपात्रों को हटाया जा रहा है। अगर आपके पास पहले जांच का समय नहीं था और सही मायने में गरीब महिलाओं का उत्थान चाहते थे, तो चुनाव बाद ये योजना लाते। चुनाव से पहले तो आपकी मंशा ज्यादा से ज्यादा संख्या में वोट हासिल करने की ही रही होगी!
उधर कर्नाटक में चलिए तो वहां की सरकार ने सरकारी टेंडरों में अति पिछड़ों के नाम पर मुस्लिमों के लिए कोटा तय कर दिया। सरकार जानती है कोर्ट से यह फैसला रिजेक्ट हो सकता है लेकिन इससे उसे कोई मतलब नहीं है।
वह तो इस तरह की घोषणाएं करके उस चिह्नित वर्ग की सहानुभूति हासिल करना चाहती है ताकि चुनाव जब आएं तो यह घोषणा उस वर्ग को याद रहे। चूंकि सालभर बाद राज्य में चुनाव होने वाले हैं इसलिए तमिलनाडु ने भाषा को लेकर एक तरह का नया मोर्चा खोल दिया है। वहां की सरकार ने रुपए के लोगो को ही बदल दिया। तमिल में कर दिया।
क्यों? क्योंकि अपनी भाषा से तमिलनाडु के लोगों को जितना प्यार है, हिंदी को वो उतना ही नापसंद करते हैं। चुनाव में सरकार इन दोनों बातों को अच्छी तरह भुनाना चाहती है। मजे की बात यह है कि बाकी पार्टियों के वहां जो हित जुड़े हुए हैं, उनके कारण वे भी तमिलनाडु सरकार का खुलकर विरोध नहीं कर पा रही है।
बाकी पार्टियां मुख्यमंत्री स्टालिन के इस काम को गलत तो बता रही हैं लेकिन किसी में ये कहने की हिम्मत नहीं है कि तमिलनाडु में भी हिंदी का लोगो ही चलने दीजिए। तमिल वाला नहीं चलेगा। क्योंकि ऐसा कहते ही उनका भी जो थोड़ा बहुत वोट बैंक है, वो खाली हो सकता है।
उधर दक्षिणी राज्यों में इस वक्त जनसंख्या को लेकर एक नया बवाल मचा हुआ है। वहां की सरकारें कह रही हैं कि जितने ज्यादा बच्चे पैदा कर सको, करो! हर बार मैटरनिटी/पैटरनिटी लीव मिलेगी। बाकी सहूलियतों में भी कोई कमी नहीं आएगी।
दरअसल, 2026 में लोकसभा सीटों का परिसीमन होने वाला है। होगा या नहीं, यह सरकार पर निर्भर है। परिसीमन में जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटें तय होती हैं। अभी जो 543 लोकसभा सीटें हैं, वे 1971 की जनसंख्या के आधार पर हैं। तब देश की जनसंख्या लगभग 54 करोड़ थी। इसलिए दस लाख वोटरों पर एक लोकसभा सीट तय की गई थी।
दस लाख का मानदंड मानें, और 2011 की जनसंख्या- जो कि 121 करोड़ थी- तो इसके अनुसार लोकसभा सीटें 1210 हो जाएंगी। दक्षिणी राज्यों की समस्या यह है कि उन्होंने जनसंख्या पर नियंत्रण किया और इस शुभ कार्य का उन्हें राजनीतिक नुकसान होने वाला है।
आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में अभी कुल 129 सीटें हैं और उन्हें परिसीमन से मात्र 55 सीटों का फायदा होगा, जबकि उत्तर में यानी हिंदी पट्टी में दो सौ से ज्यादा सीटें बढ़ने वाली हैं। हिंदी पट्टी में पॉपुलर राजनीतिक दलों को फायदा यह होगा कि वे दक्षिण राज्यों से एक भी सीट न मिलने पर भी आसानी से बहुमत प्राप्त कर लेंगे। दक्षिण का रोना यही है कि उसका राजनीतिक महत्व पहले से और ज्यादा घट जाएगा।
हालांकि सच यह भी है कि भारी-भरकम नई लोकसभा में भी अभी केवल 888 सांसदों के ही बैठने की जगह है।
वोट हासिल करने के नित नए तरीकों का मुजाहिरा वोट कब्जाने-कबाड़ने के नित-नए तरीके ईजाद किए जा रहे हैं, जो पूरी तरह से ईमानदार तो नहीं ही कहे जा सकते। ज्यादातर राज्य मतदाताओं को तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं। नकद पैसा भी दिया जा रहा है। कोई रोक-टोक नहीं है।