चुनावों के चार महीने बाद ही क्यों सुलगा महाराष्ट्र?
विश्वास करना कठिन है, लेकिन महाराष्ट्र में हाल में हुई हिंसा की घटनाओं को भड़काने में सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन के सदस्य या उनके समर्थक भी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से शामिल बताए गए हैं। नागपुर में औरंगजेब का पुतला जलाया गया। इसके बाद वहां साम्प्रदायिक दंगे भड़के, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और 30 घायल हो गए।
लाखों की संपत्ति का भी नुकसान हुआ। यह घटना खुल्दाबाद से औरंगजेब की कब्र को हटाने के लिए एक महीने से चलाए जा रहे आंदोलन का परिणाम थी। इसके चंद दिनों बाद उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के समर्थकों ने मुंबई के एक स्टूडियो में तोड़फोड़ की, जहां स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने कथित रूप से उनके नेता का मजाक उड़ाया था।
ये दोनों ही घटनाएं विधानसभा चुनाव में महायुति की शानदार जीत के बमुश्किल चार महीने बाद हुई हैं। जबकि आप सोच सकते हैं कि इतनी बड़ी जीत- जिसने विपक्षी महा विकास अघाड़ी को तहस-नहस कर दिया है- के बाद सत्तारूढ़ गठबंधन सुशासन और विकास के अपने वादों को पूरा करने के लिए जुट गया होगा। बहुमत से जीतने वाले गठबंधन के घटक-दलों पर ऐसी कौन-सी मजबूरी आन पड़ी कि वे अपने समर्थकों की लगाम नहीं कस पाए? हिंसा की घटनाओं से आखिर नई सरकार की ही तो छवि खराब हुई है।
न तो मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और न ही उनके उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने आक्रोश को शांत करने और हिंसा को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए। वास्तव में, फडणवीस ने तो नागपुर में दंगों से एक सप्ताह पहले 10 मार्च को औरंगजेब की कब्र को हटाने की मांग को राजनीतिक वैधता प्रदान करते हुए एक समारोह में कहा था कि ‘हम सब भी यही मानते हैं।’
इसी तरह, हालांकि शिंदे ने मुंबई के हैबिटेट स्टूडियो में तोड़फोड़ का समर्थन तो नहीं किया, लेकिन यह कहते हुए परोक्ष रूप से इसे उचित ठहराया कि ‘क्रिया की प्रतिक्रिया होती है’। शिवसेना के बाद बीएमसी के कुछ अधिकारी भी हथौड़े लेकर स्टूडियो पहुंच गए। तब से वह स्टूडियो अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गया है।
इन घटनाओं के तीन कारण हो सकते हैं। पहला कारण विशुद्ध राजनीतिक है। मुंबई, पुणे और अन्य शहरों में अरसे से लंबित म्युनिसिपल चुनाव अब और नहीं टाले जा सकते और इन्हें जल्द से जल्द कराना होगा। इनमें भी बीएमसी पर सबकी नजर है, क्योंकि यह देश का सबसे अमीर स्थानीय निकाय है।
प्रबल संभावना है कि महायुति के सहयोगी दल इन चुनावों में अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे। परंपरागत रूप से बीएमसी पर शिवसेना का दबदबा रहा है। लेकिन अब जब शिवसेना दो गुटों में बंट गई है, तो भाजपा को अपने अवसर बेहतर लग रहे हैं। वहीं शिंदे के लिए बीएमसी चुनाव उनके इस दावे को पुख्ता करने का अवसर हैं कि असली शिवसेना के मुखिया वे ही हैं, उद्धव ठाकरे नहीं।
इन चुनावों में बहुत कुछ दांव पर लगा है। भाजपा और शिंदे की शिवसेना- दोनों ही अपने कार्यकर्ताओं को आगे की बड़ी लड़ाई के लिए तैयार कर रहे हैं। भाजपा ने इसके लिए ध्रुवीकरण की अपनी आजमाई नीति को चुना और औरंगजेब इसके लिए एक आसान शिकार था।
शिवाजी के बेटे सम्भाजी महाराज पर औरंगजेब द्वारा किए गए अत्याचारों का विवरण देने वाली फिल्म ‘छावा’ भी बिल्कुल सही समय पर आई। दूसरी तरफ शिंदे की सेना भी हिंसा और तोड़फोड़ की अपनी नीति पर लौट आई है, जो शिवसेना की पहचान थी।
दूसरा कारण जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश हो सकती है, क्योंकि फडणवीस सरकार चुनाव के समय किए वादों से धीरे-धीरे पीछे हट रही है। लाड़की बहिन योजना के तहत गरीब महिलाओं के बैंक खातों में हर महीने 2,500 रु. डाले जाते हैं। लेकिन वित्तीय बाधाओं के कारण योजना लड़खड़ा रही है।
मजे की बात यह है कि अगले साल के बजट में इसके लिए कोई आवंटन नहीं किया गया है, जिससे महिलाओं में डर बढ़ रहा है कि योजना को बंद कर दिया जाएगा। वैसे भी चुनावों के बाद से इसके लिए धनराशि का वितरण अनियमित रहा है और लाखों महिलाओं ने शिकायत की है कि उनके खातों में कोई पैसा नहीं आया है।
और तीसरा कारण तो जगजाहिर है कि फडणवीस और शिंदे के बीच तालमेल नहीं जम रहा है। शिंदे ने सरकार से निकलने के संकेत दिए हैं, जबकि फडणवीस ने शिंदे के नेतृत्व वाली पिछली सरकार द्वारा लिए गए कई फैसलों की जांच का आदेश देकर अपने ही गठबंधन सहयोगी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है। मालूम होता है कि महायुति का यह अंदरूनी तनाव ही अब महाराष्ट्र की सड़कों पर फैलने लगा है।
बहुमत से विधानसभा चुनाव जीतने वाले महायुति के घटक-दलों पर ऐसी कौन-सी मजबूरी आन पड़ी कि वे अपने समर्थकों की लगाम नहीं कस पाए? महाराष्ट्र में हुई हिंसा की घटनाओं से नई सरकार की ही तो छवि खराब हुई है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)