सात ऐसे मुद्दे, जो सुर्खियों में नहीं आए पर महत्वपूर्ण हैं
फोटो जर्नलिस्ट्स की पहली पसंद कंगना रनौत हैं। इस सबके दरमियान, लोकसभा और राज्यसभा की अग्रिम पंक्तियों में बैठने वाले बड़ी पार्टियों के सांसद ही खबरों पर हावी होते हैं। किसी अलिखित नियम के चलते, मीडिया द्वारा कवरेज के लिए उठाए जाने वाले मुद्दे राजनीति पर ही केंद्रित होते हैं।
अगर कोई मुद्दा राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण नहीं है तो उसके सुर्खियों में रहने की संभावना भी कम होती है। लेकिन हाल ही में सांसदों द्वारा उठाए गए सात ऐसे मुद्दे देखें। इन पर चर्चा भले न हुई हो, लेकिन ये नागरिक कल्याण के जरूरी मसले हैं।
1. राजमार्गों पर सड़क हादसे, घनश्याम तिवारी, भाजपा : गत 5 वर्षों में हाईवे पर होने वाली दुर्घटनाओं में लगभग 8 लाख लोगों की मृत्यु हुई है। भारत में अप्राकृतिक और असामयिक मौतों में से लगभग आधी सड़क हादसों के कारण होती हैं। संसद में सरकार ने खुद माना है कि सड़क दुर्घटनाओं में 50% की कमी लाने के लक्ष्य को प्राप्त करने में हम विफल रहे हैं।
2. एसिड अटैक पीड़ितों के लिए पुनर्वास, संजय सिंह, आप : पिछले 11 वर्षों में, 200 महिलाएं एसिड अटैक से पीड़ित रही हैं। पीड़ितों को समय पर न्याय पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कुछ मामले तो 20 साल तक चलते रहे हैं। 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने एसिड अटैक पीड़ितों के लिए मुफ्त इलाज का आदेश दिया था। उन्हें महज 5 लाख रुपया मुआवजा मिलता है।
3. थैलेसीमिया रोगियों को रक्तदान, सागरिका घोष, टीएमसी : भारत में ट्रांसफ्यूजन के लिए स्वस्थ रक्त की खासी किल्लत है। हमें हर साल 14.6 मिलियन यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है और 7 मिलियन यूनिट कम पड़ जाती है। थैलेसीमिया के लगभग डेढ़ लाख रोगी जीवित रहने के लिए ऐसे रक्त पर निर्भर हैं। उनके लिए जीवन रक्षक दवाओं की भी कमी है। असंक्रमित रक्त की पर्याप्त आपूर्ति के लिए स्क्रीनिंग प्रोटोकॉल को मजबूत करने की तत्काल आवश्यकता है।
4. स्कूल परिवहन की सुरक्षा, फौजिया खान, एनसीपी-एसपी : 2021 के डेटा के अनुसार, स्कूल परिवहन के रूप में उपयोग किए जाने वाले दो में से एक वाहन में सीट बेल्ट, स्पीड गवर्नर या ट्रांसपोर्ट मैनेजर्स नहीं हैं। सर्वेक्षण में शामिल चार में से तीन माता-पिता यह बताने में सक्षम नहीं थे कि स्कूल बसों में जीपीएस और सीसीटीवी सक्रिय हैं या नहीं। वाहनों में सुरक्षा उपकरण और प्राथमिक चिकित्सा किट की भी कमी है। आपातकालीन संपर्क जानकारी का अभाव होता है। स्कूल परिवहन सुरक्षा पर कोई व्यापक नीति नहीं है।
5. बच्चों में नशे की लत, अजीत गोपछड़े, भाजपा: खास तौर पर गरीब बच्चों में नशे की लत चिंता का विषय बनती जा रही है। ये बच्चे दर्द निवारक बाम, फेविकोल, पेंट, पेट्रोल, डीजल, तारपीन, नेल पॉलिश रिमूवर, कफ सिरप जैसे आसानी से उपलब्ध पदार्थों को नशे के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। बच्चों को इन पदार्थों की बिक्री प्रतिबंधित नहीं है। 2022 तक, 10 से 17 वर्ष के बीच के 1.5 करोड़ बच्चे ऐसे पदार्थों के आदी थे।
6. लो-कॉस्ट जीन थेरेपी, हारिस बीरन, आईयूएमएल : स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी (एसएमए) एक लाइलाज और दुर्लभ जेनेटिक डिसऑर्डर है, जो देश में सालाना 8,000 से 25,000 लोगों को प्रभावित करता है। यह रीढ़ की हड्डी में नर्व सेल्स को प्रभावित करता है और इलाज न किए जाने पर यह जानलेवा हो सकता है। दो साल से कम उम्र के शिशुओं में इस बीमारी के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जीन थेरेपी दवा की कीमत 17 करोड़ रुपए है। मॉलिक्यूल थेरेपी- जिसके लिए सालाना 30 बोतल दवा की जरूरत होती है- की कीमत 6.2 लाख रुपए प्रति बोतल है। दुर्लभ बीमारियों के लिए दवाओं के स्थानीय निर्माण को निर्धारित करने वाली राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति (2021) को एसएमए पर भी लागू किया जाना चाहिए।
7. प्लास्टिक प्रदूषण, अयोध्या रामी रेड्डी अल्ला, वाईएसआरसीपी : केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अनुमान है कि भारत में हर साल 35 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। इसमें से लगभग आधा कचरा इकट्ठा किया जाता है, जिसमें से 50% को रिसाइकिल किया जाता है। बाकी कहां जाता है? लैंडफिल, नदियों और समुद्र में। या उसे जला दिया जाता है, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता है। प्लास्टिक हमारे हवा, पानी और भोजन में भी समा रहा है।
किसी अलिखित नियम के चलते, खबरों में छाए रहने वाले मुद्दे अकसर राजनीति पर केंद्रित होते हैं। अगर कोई मुद्दा राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण नहीं है तो उसके सुर्खियों में रहने की संभावना भी कम होती है। जबकि दूसरे मुद्दे भी हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)