यहां तक कि ट्रंप भी इस चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाते रहे हैं, लेकिन उनके सत्ता संभालने के बाद भी इसमें सुधार के कोई आसार नहीं दिख रहे। अमेरिकी चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी विसंगति तो यही है कि उसका कोई मानकीकरण नहीं है। इस मोर्चे पर उसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की चुनाव प्रणाली की ओर देखना चाहिए। अमेरिका में कोई संघीय चुनाव प्राधिकारी संस्था भी नहीं है, जो पूरे देश में चुनाव प्रक्रिया का एक समान नियमन कर सके।

इसके उलट भारत में राष्ट्रीय चुनाव कानून के साथ ही भारत निर्वाचन आयोग जैसी केंद्रीय चुनाव प्राधिकारी संस्था भी है जो संवैधानिक अधिकारों से सशक्त है। इसके अलावा, भारत में देश के सभी निर्वाचन क्षेत्रों में एक ही विधि से मतदान कराने के लिए इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम जैसी व्यवस्था भी है। यह मशीन कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए भी उपयोगी होने के साथ ही कुछ ही घंटों में परिणाम का आकलन करने में सक्षम है।

अमेरिका में चुनाव प्रक्रिया अस्त-व्यस्त एवं अराजक है। विभिन्न राज्यों में मतदान से लेकर मतगणना को लेकर अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं। हर काउंटी के भी अपने चुनाव कानून हैं, जो अलग-अलग तरीके से मतदान प्रक्रिया को संचालित करते हैं। कई जगहों पर मतपत्र की व्यवस्था है, जहां मतदाताओं को अपनी पसंद दर्शाने के लिए मार्कर दिया जाता है। वे चुनाव चिह्नों का उपयोग नहीं करते।

कुछ काउंटी में मतपत्रों के साथ एक मशीन के माध्यम से अपनी पसंद को दर्शाने का प्रविधान है। वर्ष 2000 तक मतदाताओं से उनकी पसंद के प्रत्याशी के नाम पर पंच करने के लिए कहा जाता था। इससे भी अजीब तो यह लगेगा कि कहीं लीवर पंच करके भी मतदान की व्यवस्था रही है। कुछ समय पहले तक पंच करने को लेकर भी राज्यों में अलग-अलग व्यवस्था थी।

टेक्सास में बैलेट को इस तरह पंच करना अनिवार्य रहा कि उसमें पूरा छेद हो जाए। अगर इसमें कुछ कमी रह जाती तो मत की गिनती नहीं होती। इसके उलट फ्लोरिडा में बैलेट को पंच करने की व्यवस्था अपेक्षाकृत उदार रही, जहां आंशिक चिह्न से भी काम चल जाता। इसी को लेकर 2000 के चुनाव में जार्ज बुश जूनियर और अल गोर के बीच चुनावी लड़ाई अदालत की देहरी तक पहुंच गई थी और अंतिम निर्णय आने में कई दिन लग गए थे। इस वाकये के करीब 25 साल गुजर जाने के बाद भी अमेरिका में चुनाव सुधारों की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई। जो संस्थाएं अस्तित्व में भी आईं तो उनकी भूमिका सलाहकार के रूप में ही सीमित होकर रह गई है।

एक आकलन के अनुसार करीब 70 प्रतिशत मतदाता मतपत्र, 23 प्रतिशत पसंद को दर्शाने वाली मशीन और शेष सात प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से मतदान करते हैं। मतपत्रों से चुनाव कराने को लेकर भी अलग-अलग राज्यों में अपनी व्यवस्था है। नियत समय से पूर्व मतदान के भी तरह-तरह के स्वरूप मौजूद हैं। यहां तक कि एक राज्य के अलग-अलग इलाकों में भी एकसमान व्यवस्था नहीं।

जैसे टेक्सास में मतदाता ईवीएम से वोट देंगे या मतपत्र से, यह उनके निवास स्थान से निर्धारित होगा कि वे कहां रहते हैं। अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी तट के समय में अंतराल भी चुनावी विसंगतियों को बढ़ाता है। जैसे न्यूयार्क में शाम छह बजे मतदान संपन्न हो जाता है तो टीवी चैनल एक्जिट पोल दिखाने लगते हैं। उस समय तक कैलिफोर्निया में मतदान के पांच घंटे शेष रह जाते हैं। यह मतदाताओं के मानस को प्रभावित करने का काम करता है।

इससे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की संकल्पना को क्षति पहुंचती है। इसके उलट भारत में लोकसभा चुनाव का परिणाम मतगणना के दिन शाम तक करीब-करीब तय हो जाता है। इसी तरह विधानसभाओं के चुनाव नतीजे तो दोपहर तक ही स्पष्ट हो जाते हैं। वहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव का फैसला होने में कई दिन तक लग जाते हैं। उसके बाद भी विवाद की आशंका बनी रहती है।

डोनाल्ड ट्रंप ने शुरुआती रुझान के आधार पर ही अपनी जीत का एलान कर दिया था, लेकिन औपचारिक घोषणा में कई दिन लग गए, क्योंकि तमाम राज्यों में मतगणना की प्रक्रिया जारी थी। इस प्रकार देखें तो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और चुनावों की कसौटी विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत पूरे संसार में सिरमौर दिखाई पड़ता है। इस मामले में अमेरिका हमसे मीलों पीछे और उसे भारत की बराबरी करने में न केवल बहुत समय लगेगा, बल्कि इसके लिए उसे बहुत प्रयास भी करने पड़ेंगे।

यह निराशाजनक है कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव में नए प्रतिमान स्थापित करने के बावजूद भारत में ही कुछ लोग और विशेष रूप से राजनीतिक दल चुनाव प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाने से बाज नहीं आते। इसके लिए कभी मतदाता सूची और कभी मतदाता पहचान पत्रों के दोहरे क्रमांक के मसले उठाए जाते हैं।

(लेखक लोकतांत्रिक मामलों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)