बौद्ध धर्म अपनाने वाले डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम को क्यों नहीं चुना?
बौद्ध धर्म अपनाने वाले डॉ. आंबेडकर ने इस्लाम को क्यों नहीं चुना? गिनाई थीं ये वजह
Ambedkar Jayanti 2025: बचपन से ही भेदभाव का सामना करने वाले बाबा साहेब समाज से पूरी तरह से वर्ण और जाति व्यवस्था को खत्म करना चाहते थे. इसीलिए एक समय ऐसा आया जब उन्होंने धर्म बदलने का फैसला कर लिया, लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म को चुना. जानिए, उन्होंने इस्लाम को क्यों नहीं अपनाया.

भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर आजीवन मानवता के लिए लड़ते रहे. समाज में व्याप्त भेदभाव को खत्म करने और कमजोरों, मजदूरों और महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ते रहे. निचले तबके के लोगों को समानता का अधिकार दिलाने के लिए वह अपना सबकुछ समर्पित करते रहे. बचपन से ही भेदभाव का सामना करने वाले बाबा साहेब तो समाज से पूरी तरह से वर्ण और जाति व्यवस्था को खत्म करना चाहते थे. इसीलिए एक समय ऐसा आया जब उन्होंने धर्म बदलने का फैसला कर लिया.
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर हिन्दू धर्म में पैदा हुए पर उन्होंने कहा था कि वह हिन्दू के रूप में मरेंगे नहीं. इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था. हर 14 अप्रैल को उनकी जयंती मनाई जाती है. इसी बहाने आइए जान लेते हैं कि उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया? उन्होंने इस्लाम क्यों नहीं अपनाया?
माता-पिता की 14वीं संतान थेबाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को अपने माता-पिता की 14वीं संतान के रूप में हुआ था. उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल अंग्रेजों की सेना में सूबेदार थे. वह कबीर के अनुयायी भी थे. डॉक्टर आंबेडकर केवल दो साल के थे, तभी उनके पिता रिटायर हो गए. वह सतारा में स्कूली शिक्षा हासिल कर रहे थे, तभी माताजी का निधन हो गया. तब बाबा साहेब की उम्र केवल छह साल थी. इसके बाद उनकी चाची ने देखभाल की. बाद में अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए वह बम्बई (अब मुंबई) चले गए. वहां भी छुआछूत और भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा.
देश-विदेश में पाई शिक्षा पर जारी रहा भेदभावदेश-विदेश से उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद बाबा साहेब ने नौकरी की पर छुआछूत और अपने साथ होने वाले भेदभाव के कारण उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी. साल 1924 में दलित वर्गों के कल्याण के लिए बाबा साहेब ने एक एसोसिएशन शुरू किया. सर चिमनलाल सीतलवाड़ इसके अध्यक्ष और डॉ. आंबेडकर खुद इस एसोसिएशन के चेयरमैन थे. इस एसोसिएशन का उद्देश्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना, आर्थिक स्थिति में सुधार और दलितों की शिकायतों की अगुवाई करना था. यही नहीं, साल 1927 में दलितों की समस्याओं को हल करने के लिए बहिष्कृत भारत समाचार पत्र भी शुरू किया गया.

बाबा साहेब ने घोषणा की थी कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, लेकिन हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं.
1935 में घोषणा कर सबको चौंकायाइन सबसे बीच बाबा साहेब छुआछूत, भेदभाव और जाति व्यवस्था से काफी दुखी रहते थे. महाराष्ट्र में नासिक जिले के येवला में 13 अक्तूबर 1935 को दलितों का एक प्रांतीय सम्मेलन हुआ. इसी सम्मेलन में बाबा साहेब ने घोषणा की थी कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, लेकिन हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं. तब बाबा साहेब के हजारों अनुयायियों ने उनके इस फैसले का समर्थन किया था. साल 1936 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी महार सम्मेलन में भी बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म को छोड़ने की वकालत की थी.
साल 1936 में ही 15 अगस्त को दलितों के हितों की रक्षा के लिए बाबा साहेब ने स्वतंत्र लेबर पार्टी बनाई, जिसमें ज्यादातर श्रमिक शामिल थे. कांग्रेस ने साल 1938 में अस्पृश्यों के नाम में बदलाव का एक विधेयक पेश किया था, जिसकी बाबा साहेब ने आलोचना की थी. उनका मानना था कि नाम बदलना मात्र किसी समस्या का समाधान नहीं है. साल 1942 में बाबा साहेब की लिखी किताब हू वर द शूद्र? प्रकाशित हुई.
साल 1956 में बन गए बौद्धइस बीच वह केंद्र सरकार में मंत्री रहे और तमाम अन्य सम्मान और उपाधियों से सम्मानित किए गए पर जाति प्रथा का दंश बचपन से झेल रहे बाबा साहेब ने 14 अक्तूबर 1956 को अपने 3.65 लाख अनुयायियों के साथ हिन्दू छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया था. बाबा साहेब का कहना था कि उनको वह धर्म पसंद है जो स्वाधीनता, समानता और भाईचारा सिखाता है. किसी व्यक्ति के विकास के लिए जिन चीजों की आवश्यकता है, वह है करुणा, समानता और स्वतंत्रता. धर्म इंसान के लिए है न कि इंसान धर्म के लिए. बाबा साहेब का मानना था कि हिन्दू धर्म में करुणा, समानता और स्वाधीनता नहीं है.

14 अक्तूबर 1956 को अपने 3.65 लाख अनुयायियों के साथ हिन्दू छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया था.
इसलिए नहीं अपनाया इस्लामबाबा साहेब ने अपना धर्म बदलने से पहले उन्होंने इस्लाम और ईसाई जैसे धर्मों का भी गहराई से अध्ययन किया था. इसके बाद उन्होंने माना कि इस्लाम भी हिन्दू धर्म जैसा ही है. इसमें भी छुआछूत तब व्यापक समस्या थी. शशि थरूर ने बाबा साहेब की जीवनी लिखी है. इसमें वह लिखते हैं कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने शायद इसलिए इस्लाम धर्म को तवज्जो नहीं दी, क्योंकि यह एक बंद धार्मिक व्यवस्था जैसी थी. बाबा साहेब मुसलमानों और गैर मुसलमानों के बीच भेदभाव करने वाली सोच के विरोधी थी. बाबा साहेब की इस समझ का प्रमाण बंटवारे के बाद मिल भी गया. पाकिस्तानी मुसलमानों के व्यवहार से अनुसूचित जाति के लोगों काफी प्रभावित हुए. पाकिस्तान बनने के बाद वह अनुसूचित जाति के लोगों पर दबाव बनाया गया कि वे अपना धर्म बदलें और इस्लाम अपना लें या फिर जान दे दें.
बाबा साहेब ने इसलिए अपनाया बौद्ध धर्मबाबा साहेब का मानना था कि बौद्ध धर्म प्रज्ञा, करुणा के साथ ही समता का संदेश देता है. इन तीनों की ही बदौलत इंसान एक अच्छा और सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकता है. प्रज्ञा का मतलब है अंधविश्वास के साथ ही साथ परालौकिक शक्तियों के खिलाफ समझदारी होना. करुणा यानी प्रेम और दुखियों-पीड़ित के प्रति संवेदना और समता का मतलब है धर्म, जात-पात, लिंग और ऊंच-नीच का विचार किए बिना इंसान के लिए बराबरी में विश्वास करना.