वहीं, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि माओवादी हथियार छोड़ दें, क्योंकि जब कोई भी माओवादी मारा जाता है तो किसी को खुशी नहीं होती। माओवादियों ने शांति-वार्ता की पेशकश अवश्य की है, परंतु हथियार छोड़ने के संबंध में कुछ नहीं कहा है। दरअसल माओवादी सुरक्षा बलों के हाथों लगातार मात खाने के बाद और नुकसान नहीं होना देना चाहते। माओवादियों ने हाल में अपने सदस्यों को सुरक्षात्मक कदम उठाने के निर्देश भी दिए थे ताकि वे पुलिस के चंगुल में न फंसें।

जहां तक पूर्व में शांति के पक्ष में किए गए प्रयासों का प्रश्न है, तो सरकारों का अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। वर्ष 2002 में भी नक्सलियों ने आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के समक्ष एक माह के लिए हिंसा छोड़ने और शांति-वार्ता का प्रस्ताव रखा तो वह आगे इसलिए नहीं बढ़ सका, क्योंकि तब नक्सली हथियार छोड़ने को तैयार नहीं थे।

वार्ता की आड़ में नक्सल विचारधारा की मुख्य दो पार्टियां सीपीआइ (एमएल) पीपुल्स वार और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर आफ इंडिया मिलकर सीपीआइ (माओवादी) पार्टी बनाने में व्यस्त थीं। 2004 में इन दो पार्टियों का विलय हो गया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि बातचीत का समय नक्सलियों ने अपने राजनीतिक एजेंडे को प्रसारित करने के लिए उपयोग किया था।

शांति-वार्ता का अगला प्रयास तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा मई 2010 में किया गया। सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के माध्यम से माओवादियों के नाम गृहमंत्री ने एक पत्र लिखकर माओवादियों को 72 घंटे के लिए हिंसा रोकने के लिए अनुरोध किया, ताकि वार्ता के लिए माहौल तैयार किया जा सके, परंतु उसी दौरान एक जुलाई, 2010 को माओवादियों की केंद्रीय कमेटी के सदस्य आजाद की आंध्र प्रदेश पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो जाने के बाद बातचीत के प्रयास वहीं रुक गए।

वर्ष 2011 के बाद से माओवादी खुद यह मानते आए हैं कि उनका जन-आधार लगातार घट रहा है। सुरक्षाबल नए-नए कैंप और पुलिस थाने स्थापित कर लगातार आगे बढ़ रहे हैं। माओवादियों की पीपुल्स लिबरेशन गोरिल्ला आर्मी की कई कंपनियां कमजोर होकर प्लाटून के आकार में बदल गई हैं। दिसंबर 2020 में जब माओवादियों की केंद्रीय कमेटी ने अपने संगठन की समीक्षा की तो पाया कि पूरे देश में वे पीछे-हटने की स्थिति में हैं।

अपनी तथाकथित क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए माओवादियों की केंद्रीय कमेटी ने तब कुछ निर्णय लिए, परंतु वे अपना नुकसान होना नहीं रोक पाए और लगातार कमजोर होते गए। वर्ष 2024-25 में अब तक 330 से अधिक माओवादी मारे जा चुके हैं जिसमें कई बड़े लीडर भी हैं। वर्ष 2024 में केंद्र सरकार ने जब राज्य सरकारों से मिलकर मार्च 2026 तक माओवाद समाप्त करने का लक्ष्य रखा, नए कैंप स्थापित करके माओवादियों को सुरक्षात्मक कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया तो ऐसी स्थिति में माओवादियों ने अब फिर शांति-वार्ता का प्रस्ताव रखा है।

माओवादी स्थायी समाधान के लिए हथियार छोड़ने को तैयार हैं अथवा नहीं, यह स्पष्ट नहीं किया है। पुराने अनुभवों से तो केवल यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि बिना हथियार छोड़ने की शर्त पर बातचीत का रास्ता अपनाया जाता है तो माओवादी इस अवधि में केवल अपने आप को संगठित करने और अपने नेतृत्व को बचाने का प्रयास करेंगे। हजारों सुरक्षाकर्मियों ने इस लड़ाई में अपने प्राण न्योछावर किए हैं। माओवादियों द्वारा आत्मसमर्पण भी लगातार बढ़ रहा है।

निचले स्तर के माओवादी यह समझ चुके हैं कि वे सरकार के खिलाफ यह लड़ाई नहीं जीत सकते। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर विकास की कई योजनाएं लागू कर रही हैं ताकि आदिवासियों का जीवन स्तर बेहतर हो सके। छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल में ‘नियद-नेल्लानार’ (आपका अपना सुंदर गांव) योजना लागू की है जिसके अंतर्गत सुरक्षा कैंप के चारों ओर के गांव में ग्रामीणों को मूलभूत सुविधाएं प्रदान किया जाना है।

दूरगामी इलाकों में सड़कें बन रही हैं, मोबाइल टावर लग रहे हैं, बैंक एवं पोस्ट आफिस की शाखाएं खुल रही हैं। सरकार ने माओवाद-मुक्त पंचायत में एक करोड़ रुपये के विकास कार्य करने की घोषणा की है। इसलिए अब जरूरी है कि माओवादी यह स्पष्ट करें कि क्या वे स्थायी समाधान के लिए हथियार छोड़ने को तैयार हैं? अर्थात क्या वे सशस्त्र क्रांति का रास्ता त्यागने के लिए तैयार हैं?

यदि माओवादी हथियार छोड़ने को तैयार नहीं होते तो उनकी मंशा स्पष्ट हो जाएगी कि वे केवल कुछ समय की मोहलत चाहते हैं, ताकि निचले स्तर के माओवादी पार्टी छोड़कर न जाएं, बड़े लीडर सुरक्षित किए जा सकें और उनको पुन:संगठित होने का कुछ समय मिल सके। यदि माओवादियों की मंशा ऐसी है तो सरकार को बातचीत का रास्ता अपनाने से बचना चाहिए।

(लेखक छत्तीसगढ़ कैडर के पूर्व आईपीएस अफसर हैं)