भारत के विकास में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी,लेकिन वैश्विक औसत के मुकाबले पीछे !

भारत के विकास में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी, लेकिन वैश्विक औसत के मुकाबले पीछे

कानून होने के बावजूद, यौन उत्पीड़न की शिकायतें बढ़ रही हैं. 2022-23 में ऐसी 260 शिकायतें लंबित थीं, जो 2023-24 में बढ़कर 435 हो गईं.

भारत में महिलाओं की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी बदलाव आया है. आजकल ज्यादा से ज्यादा महिलाएँ नौकरी और व्यापार में हिस्सा ले रही हैं. सरकार के आँकड़ों के अनुसार, पिछले छह सालों में महिलाओं की आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी बहुत बढ़ी है. 2017-18 में जहाँ केवल 23.3% महिलाएँ काम कर रही थीं, वहीं 2023-24 में यह संख्या बढ़कर 41.7% हो गई है. गाँवों में यह वृद्धि और भी तेज हुई है, जहाँ 2017-18 में 23.7% महिलाएँ काम करती थीं, अब 46.5% तक पहुँच गई हैं. शहरों में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन पुरुषों की तुलना में यह अभी भी कम है. पुरुषों की भागीदारी 76-77% के आसपास है, जबकि वैश्विक स्तर पर महिलाओं की औसत भागीदारी 50% है. भारत में यह अभी भी उससे कम है.

हालाँकि प्रगति हुई है, लेकिन महिलाओं के सामने कई चुनौतियाँ भी हैं. सबसे बड़ी समस्या है काम और निजी जीवन के बीच संतुलन बनाना. एक अध्ययन के अनुसार, 67% महिलाएँ इस संतुलन को बनाए रखने में दिक्कत महसूस करती हैं. इसका एक बड़ा कारण यह है कि घर के काम और बच्चों की देखभाल का बोझ ज्यादातर महिलाओं पर ही पड़ता है. एक सर्वे के मुताबिक, महिलाएँ हर दिन 236 मिनट घर के कामों में बिताती हैं, जबकि पुरुष केवल 24 मिनट. यह असमानता महिलाओं के लिए नौकरी करना और मुश्किल बना देती है. इसके अलावा, वेतन में भी अंतर है. पढ़ाई-लिखाई में महिलाएँ पुरुषों के बराबर आ चुकी हैं, फिर भी उन्हें कम पैसे मिलते हैं. कुछ क्षेत्रों में यह अंतर और बढ़ गया है. 2022-23 में यह अंतर थोड़ा कम हुआ, लेकिन अभी भी गाँवों में यह ज्यादा है.

कार्यस्थल पर सुरक्षा भी एक बड़ी चिंता है. कई जगहों पर महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल नहीं है. कानून होने के बावजूद, यौन उत्पीड़न की शिकायतें बढ़ रही हैं. 2022-23 में ऐसी 260 शिकायतें लंबित थीं, जो 2023-24 में बढ़कर 435 हो गईं. एक सर्वे में पता चला कि 59% संगठनों ने यौन उत्पीड़न रोकने के लिए जरूरी समितियाँ तक नहीं बनाईं. इसके अलावा, समाज की सोच भी महिलाओं के रास्ते में रुकावट डालती है. कुछ जगहों पर  परिवार अपनी बेटियों को नौकरी करने से रोकते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा कम होगी. यह सोच खासकर गाँवों में ज्यादा देखने को मिलती है.

महिलाओं की नेतृत्व में हिस्सेदारी भी बहुत कम है. संसद में केवल 13.6% महिलाएँ हैं, और बड़ी कंपनियों के बोर्ड में सिर्फ 17.6%. इससे नीतियाँ बनाते समय महिलाओं की जरूरतों पर कम ध्यान जाता है. इसके अलावा, ज्यादातर महिलाएँ असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं, जहाँ न तो वेतन अच्छा है, न नौकरी की सुरक्षा और न ही कोई सामाजिक लाभ. लगभग 81% महिलाएँ ऐसे क्षेत्रों में हैं. डिजिटल दुनिया तक पहुँच भी एक समस्या है. गाँवों में केवल 33% महिलाएँ इंटरनेट का इस्तेमाल करती हैं, जबकि पुरुषों में यह आँकड़ा 57% है. इससे शिक्षा और नौकरी के अवसरों में कमी आती है.

काम की जगह पर भी कई सुविधाएँ नहीं हैं. जैसे कि साफ-सुथरे शौचालय, बच्चों की देखभाल के लिए केंद्र, या सुरक्षित परिवहन. केवल 17.5% संगठन बच्चों की देखभाल की सुविधा देते हैं, और 37% संगठन मातृत्व अवकाश भी नहीं देते. ये सब चीजें महिलाओं को नौकरी करने से रोकती हैं.

सरकार और कंपनियाँ इस दिशा में कुछ कदम उठा रही हैं. सरकार ने कई योजनाएँ शुरू की हैं, जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, स्टैंड अप इंडिया, और स्किल इंडिया मिशन. इनसे महिलाओं को नौकरी और व्यापार में मदद मिल रही है. सरकार अब महिलाओं के कल्याण की बजाय उनके नेतृत्व पर जोर दे रही है. कंपनियाँ भी यौन उत्पीड़न रोकने के लिए नीतियाँ बना रही हैं और समितियाँ बना रही हैं. कुछ कंपनियाँ अपने कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त कदम उठा रही हैं, जैसे देर रात काम करने वालों के लिए कैब की सुविधा या सुरक्षा गार्ड की व्यवस्था.

कानून भी बनाए गए हैं. 2013 का यौन उत्पीड़न रोकथाम कानून, 2018 का आपराधिक कानून संशोधन, और 2005 का घरेलू हिंसा रोकथाम कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए हैं. निर्भया फंड और वन स्टॉप सेंटर जैसी योजनाएँ भी पीड़ितों की मदद के लिए हैं.

लेकिन अभी और काम करने की जरूरत है. कानूनों को और सख्त करना होगा. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा देनी होगी. कंपनियों को अपने वेतन में पारदर्शिता लानी होगी, ताकि पुरुषों और महिलाओं को समान पैसे मिलें. महिलाओं को नेतृत्व के लिए तैयार करने के लिए प्रशिक्षण और मार्गदर्शन की जरूरत है. समाज की सोच बदलने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाने होंगे.

काम की जगह को और बेहतर करना होगा. वहाँ सम्मान का माहौल होना चाहिए. सुरक्षा के लिए कैमरे और महिला सुरक्षाकर्मी होने चाहिए. साफ शौचालय, बच्चों की देखभाल केंद्र, और लचीले काम के घंटे जैसी सुविधाएँ देनी होंगी. मातृत्व अवकाश को और बढ़ाना होगा.

महिलाओं की शिक्षा और कौशल पर भी ध्यान देना होगा. अगर उन्हें बेहतर शिक्षा और प्रशिक्षण मिले, तो वे ज्यादा आत्मविश्वास के साथ काम कर सकेंगी. सुरक्षा के लिए और कदम उठाने होंगे. पुलिस को संवेदनशील बनाना होगा. लोगों में जागरूकता लानी होगी. आपातकालीन ऐप्स और निगरानी जैसी तकनीकों का इस्तेमाल करना होगा.

घर के काम को भी महत्व देना होगा. समाज और नीतियों को ऐसा करना होगा कि यह बोझ केवल महिलाओं पर न पड़े. पुरुषों को भी इसमें बराबर हिस्सा लेना होगा.

महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से देश को बहुत फायदा हो सकता है. अगर महिलाएँ ज्यादा काम करें, तो अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, उत्पादकता बढ़ेगी, और नई खोजें होंगी. अगर महिलाओं को व्यापार में बाधाएँ न आएँ, तो वे ज्यादा लोगों को नौकरी दे सकती हैं. इससे पुराने और कम उत्पादक व्यवसायों की जगह नए और बेहतर व्यवसाय ले सकते हैं. महिलाओं की कमाई से उनके परिवार और समाज को भी फायदा होता है. वे अपने बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज्यादा खर्च करती हैं.

भारत ने महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में अच्छा काम किया है. लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है. असमानता, सुरक्षा की चिंताएँ, और पुरानी सामाजिक सोच अभी भी रास्ते में आ रही हैं. इसके लिए कानून, कंपनियों की नीतियाँ, सरकारी योजनाएँ, और समाज की सोच में बदलाव लाना होगा. अगर ये सब हो सका, तो भारत की महिलाएँ अपनी पूरी ताकत दिखा सकती हैं. इससे न केवल समाज में बराबरी आएगी, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी. यह न सिर्फ़ न्याय की बात है, बल्कि भारत को “विकसित भारत” बनाने का एक जरूरी कदम भी है.

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