राजीव सचान। मुर्शिदाबाद में नए वक्फ कानून का संवैधानिक तरीके से विरोध का बहाना करते हुए हिंदुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाने वाली हिंसक भीड़ के उत्पात को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। इसमें हिंसा की जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन करने और ममता सरकार की जवाबदेही तय करने की मांग की गई है।

सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा, पता नहीं, लेकिन यह पता है कि जब मई 2021 में बंगाल में विधानसभा चुनाव बाद भीषण हिंसा की जांच के लिए ऐसी ही एक याचिका दायर की गई थी तो उसकी तत्काल सुनवाई नहीं हो पाई थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की जिस दो सदस्यीय पीठ को इस याचिका की सुनवाई करनी थी, उसकी एक जज इंदिरा बनर्जी मामला सुनने से पीछे हट गई थीं। वह बंगाल से ही थीं।

तब तृणमूल कांग्रेस समर्थकों की भीषण अराजकता के चलते बंगाल से कई लोग जान बचाकर असम में शरण लेने को मजबूर हुए थे। उन्हें महीनों तक वहीं रहना पड़ा था। कहना कठिन है कि वे सब अपने घरों को लौट पाए थे या नहीं? यह कहना तो और भी कठिन है कि मुर्शिदाबाद हिंसा के जो पीड़ित जान बचाने के लिए मालदा और अन्यत्र शरण लेने को मजबूर हुए हैं, वे अपने घरों को लौट सकेंगे या नहीं?

यह कहना इसलिए अधिक कठिन है, क्योंकि एक तो खुद पलायन करने वाले अपनी वापसी को लेकर सुनिश्चित नहीं और दूसरे, तृणमूल कांग्रेस के नेता यह समझाने में लगे हुए हैं कि हिंसाग्रस्त इलाकों में सब ठीक है। कुछ तो मुर्शिदाबाद की अराजकता को सीमा सुरक्षा बल की साजिश बता रहे हैं।

यह तो गनीमत रही कि कलकत्ता हाई कोर्ट ने मुर्शिदाबाद में केंद्रीय बलों की तैनाती के आदेश दिए, अन्यथा वहां कुछ इलाके हिंदुओं से विहीन भी हो सकते थे। मुर्शिदाबाद बांग्लादेश से सटा वह जिला है, जहां हिंदू आबादी घटते-घटते 33 प्रतिशत रह गई है। अगली जनगणना में वह और घट जाए तो हैरानी नहीं। इसलिए और नहीं, क्योंकि आबादी के असंतुलन के मामले में बंगाल के कुछ इलाके बांग्लादेश की राह पर हैं।

स्थिति तब तक नहीं बदलेगी, जब तक पीड़ित लोग आत्मरक्षा के लिए सक्रिय नहीं होते और अन्याय के प्रतिरोध के लिए खुद को सक्षम नहीं बनाते। अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन्हें ऐसा करना ही होगा, क्योंकि मुर्शिदाबाद सरीखी आतंक भरी अराजकता में सुरक्षा बल जब तक दखल देते हैं, तब तक नुकसान हो चुका होता है और अक्सर वह स्थायी होता है। लोग अपने ही देश में शरणार्थी बन जाते हैं। कश्मीर घाटी से भगाए गए कश्मीरी हिंदू आज तक अपने घरों को नहीं लौट सके हैं।

मुर्शिदाबाद की हिंसा के दौरान पुलिस जिस तरह मूकदर्शक बनी रही, वह कोई नई बात नहीं। वैसे तो हर राज्य की पुलिस वहां की सरकार के दबाव-प्रभाव में ही काम करती है, लेकिन बंगाल पुलिस ने खुद को एक तरह से तृणमूल की शाखा में तब्दील कर लिया है। वहां के डीजीपी वही राजीव कुमार हैं, जिनके घर जब सीबीआइ ने सारदा घोटाले की जांच में हेराफेरी करने के आरोप में छापा डाला था तो ममता बनर्जी धरने पर बैठ गई थीं।

लोकसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग ने उन्हें डीजीपी पद से हटा दिया था, पर चुनाव निपटते ही ममता ने उन्हें बहाल कर दिया। मुर्शिदाबाद में नए वक्फ कानून का विरोध कथित तौर पर वक्फ की जमीन बचाने के लिए किया गया, लेकिन वह दूसरों को उनकी जमीन से बेदखल करने में तब्दील हो गया। साफ है कि वक्फ कानून का विरोध अराजकता फैलाने का बहाना ही था। मुर्शिदाबाद इसका शर्मनाक उदाहरण है कि भारत का शासन तंत्र किस तरह भारत भूमि में ही घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है।

आखिर ऐसा असहाय-निरुपाय शासन तंत्र अपनी जान बचाकर भागे लोगों को फिर से अपने घरों को लौटने का साहस और संबल कैसे दे सकता है? बंगाल में कानून का शासन नहीं, बल्कि वहां शासन करने वालों का कानून है, यह निष्कर्ष राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का था, जिसने 2021 के विधानसभा चुनाव बाद हुई हिंसा की छानबीन की थी। मुर्शिदाबाद की हिंसा इसकी पुष्टि करती है कि बंगाल में आज भी कानून का शासन नहीं है।

वक्फ कानून विरोधियों का दुस्साहस किस तरह बढ़ा हुआ है, इसे इससे समझा जा सकता है कि वे राज्य के अन्य हिस्सों में भी उपद्रव कर रहे हैं और इस दौरान पुलिस को भी निशाना बना रहे हैं। यदि सुप्रीम कोर्ट बंगाल में दखल नहीं देता नहीं तो वक्फ कानून विरोधियों ने जैसा उत्पात मुर्शिदाबाद में मचाया, वैसा ही देश के दूसरे हिस्सों में देखने को मिल सकता है। इसकी अनदेखी न की जाए कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में आगजनी और तोड़फोड़ का सिलसिला सबसे पहले बंगाल से ही शुरू हुआ था। फिर ऐसा ही देश के दूसरे हिस्सों में भी देखने को मिला था।

पता नहीं केंद्र सरकार बंगाल में किस तरह हस्तक्षेप कर सकती है, लेकिन कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि प्रधानमंत्री मुर्शिदाबाद से जान बचाकर मालदा में शरणार्थी बन गए लोगों से मिलने जाएं। यदि गुजरात दंगों के पीड़ितों से मिलने अटल बिहारी वाजपेयी जा सकते हैं और मुजफ्फरनगर दंगा पीडितों के आंसू पोछने मनमोहन सिंह तो मुर्शिदाबाद की भयावह हिंसा के शिकार लोगों से मिलने प्रधानमंत्री मोदी क्यों नहीं जा सकते? यह ध्यान रहे कि मुर्शिदाबाद की हिंसा दंगा नहीं है। यह अगस्त 1946 की डायरेक्ट एक्शन डे की याद दिलाने वाली बर्बरता है।