अमर जवान ज्योति का ‘विलय’ कर इंदिरा की विरासत मिटाने की कोशिश में सरकार
अमर जवान ज्योति स्मारक का निर्माण दिसंबर 1971 में ढाका के पतन और बांग्लादेश की मुक्ति के कुछ दिनों के भीतर किया गया था. तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने जनवरी 1972 में इसका उद्घाटन किया था. पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में भारत की विजय इंदिरा गांधी की बड़ी उपलब्धि थी.
शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा.’
हिंदी कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की ये पंक्तियां देश के बलिदानी शहीदों की तरह अमर हो गई हैं. इन पंक्तियों को राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट (India Gate) के पास स्थित नेशनल वॉर म्यूजियम (National War Museum) सहित देश भर में बने कई शहीद स्मारकों पर देखा जा सकता है. हालांकि यहां से कुछ फीट की दूरी पर ही अमर जवान ज्योति (Amar Jawan Jyoti) है जहां 1971 के युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देने वाले सैनिकों की याद में निरंतर जलती हुई लौ बुझाई जा रही है.
आधी सदी तक सलामी देने के बाद शहीद जवानों की गाथा कहने वाली ‘अमर जवान’ पर संगमरमर की चौकी के बगल में लगी ज्योति जलना बंद हो जाएगी. हमें बताया जा रहा है कि इसे ‘बुझाया’ नहीं जा रहा है, हालांकि शुक्रवार दोपहर वहां कुछ ऐसा ही हुआ. वहां पर पहले दो फ्लेम थे मगर शुक्रवार शाम से एक ही रहेगा. हमें बताया गया है कि इसका ‘विलय’ यहां से कुछ ही फीट की दूरी पर स्थित राष्ट्रीय युद्ध स्मारक (National War Memorial) की लौ (Flame) के साथ किया जा रहा है. लेकिन ‘विलय’ शब्द से ऐसा लगता है जैसे किसी मंत्रालय या रेल बजट में कुछ हो रहा हो. हमें यह नहीं बताया गया है कि ऐसा करने के पीछे कारण क्या है.
इंदिरा गांधी ने जनवरी 1972 में इसका उद्घाटन किया था
प्रधानमंत्री ने फरवरी 2019 में नेशनल वॉर मेमोरियल का उद्घाटन किया था. यह वास्तव में उन शहीदों को श्रद्धांजलि है जिन्होंने राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया. अमर जवान ज्योति पर जाने और माल्यार्पण करने की परंपरा पहले से रही है. लेकिन उद्घाटन के बाद से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख अमर जवान ज्योति के बजाय गणतंत्र दिवस के मौके पर यहीं माल्यार्पण करते रहे हैं.
हमें बताया गया चूंकि अब ओरिजिनल फ्लेम पर श्रद्धांजलि नहीं दी जा रही है इसलिए इसकी गरिमा कम होने से रोकने का समय आ गया था और इसलिए इस ज्योति का विलय किया जा रहा है. अगर ऐसा है तो यह फैसला 2019 में ही आ जाना चाहिए था. यह एक सहज बदलाव होता और कोई विवाद नहीं होता. लेकिन उस वक्त आधिकारिक सूत्रों ने कहा था कि अमर जवान ज्योति की लौ जलती रहेगी क्योंकि, उन्हीं के शब्दों में, यह हमारे इतिहास का हिस्सा है. इस तरह उनके ही शब्दों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर लौ नहीं बुझाया जा रहा है तो हमारे इतिहास का एक हिस्सा मिटाया जा रहा है.
अमर जवान ज्योति स्मारक का निर्माण दिसंबर 1971 में ढाका के पतन और बांग्लादेश की मुक्ति के कुछ दिनों के भीतर किया गया था. तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने जनवरी 1972 में इसका उद्घाटन किया था. पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में भारत की विजय इंदिरा की एकमात्र बड़ी उपलब्धि नहीं थी. यह नए सिरे से दक्षिण एशिया का राजनीतिक मानचित्र तैयार किए जाने का समय था. ताकतवर राष्ट्रवाद पर जोर देने वाली सरकार के लिए जश्न की बात होनी चाहिए, लेकिन इस सरकार को लगता है कि इंदिरा की उपलब्धि को कम करके वह अपनी छवि चमका सकती है. पिछले महीने बांग्लादेश की स्थापना की गोल्डन एनिवर्सरी मनाई गई थी. इस मौके पर सरकार द्वारा कई इवेंट्स और स्पीच आयोजित किए गए मगर किसी भी स्पीच में इंदिरा गांधी का नाम नहीं था.
हमारे अतीत के एक हिस्से को इतिहास में धकेला जा रहा है
हमारे अतीत के एक हिस्से को इतिहास में धकेला जा रहा है. ऐसा लगता है कि सरकार का यह कदम 1971 की जीत सहित इंदिरा गांधी की विरासत को कम करने की मंशा से निर्देशित है. यह इतिहास को लेकर सरकार की बड़ी चाहत के अनुरूप भी है – कि इसे फिर से लिख और तैयार कर अपनी पहचान से जोड़ा जाए और पिछली सरकारों ने ऐतिहासिक स्थलों और अवसरों को मनाने के लिए जो कुछ भी किया उसे हटाया जाए.
अहमदाबाद में साबरमती आश्रम का पुनर्निर्माण, आधुनिकीकरण और विस्तार की परियोजना इस बात का एक उदाहरण है. इस ग्रैंड इनिशिएटिव के जरिए वहां अधिक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी, उस जगह को टूरिस्ट-फ्रेंडली बनाया जाएगा ताकि दुनिया भर से अधिक से अधिक लोग वहां पहुंचे और गांधी के बारे में अधिक जान पाएं. लेकिन ये गांधी कुछ अलग होंगे. कुछ भी हो गांधी का आश्रम सादगी के लिए जाना जाता था, लेकिन उसे मिटा दिया जाएगा.
हालांकि राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि देने के और भी बेहतर तरीके हैं. वर्तमान मेमोरियल साइट का डिजाइन महान आर्टिटेक्ट चार्ल्स कोरिया (Charles Correa) ने बनाया था. साबरमती आश्रम का रेनोवेशन इस साधारण तथ्य से प्रेरित हो सकता है कि इस मेमोरियल साइट का निर्माण जवाहरलाल नेहरू के समय में हुआ था और उन्होंने ही इसका उद्घाटन किया था.
वर्तमान कांग्रेस को इसकी कोई परवाह नहीं है
एक और ऐतिहासिक मेमोरियल है जिसका नवीनीकरण पिछले साल किया गया था. जलियांवाला बाग मेमोरियल भी विज़िटर्स को आधुनिक और बेहतर बुनियादी ढांचा प्रदान करता है. लेकिन इसमें भी कुछ ऐसे बदलाव हुए जिसे फिर से बदला नहीं जा सकता है. एंट्री/एग्जिट पॉइंट को शिफ्ट कर दिया गया है. शहीदी कुएं के स्थान पर शीशे से ढका हुआ एक डिब्बा सा है जिसमें एक कमल तालाब (Lotus Pond) जोड़ा गया है. यह स्मारक जैसा था वह 1951 की नेहरू सरकार की पुरानी परियोजना थी.
दिल्ली, अहमदाबाद और अमृतसर में हुए इन बदलावों को एक साथ देखने पर जो इरादा समझ में आता है वह है पिछली सरकारों, विशेष रूप से कांग्रेस की सरकारों के राष्ट्रवादी प्रयासों और राष्ट्रवादी संस्थाओं में फेरबदल कर राष्ट्रवादी विचारधारा पर अपना पूरा हक जताना. दरअसल यह इतिहास में बदलाव लाने की नहीं बल्कि इतिहास में कांग्रेस की भूमिका खत्म करने की कवायद है. ऐसा इसलिए क्योंकि वर्तमान सत्ताधारी दल के पास ऐतिहासिक तौर पर दिखाने और जताने के लिए बहुत कुछ है नहीं. यह ऐसा है मानो कांग्रेस से कुछ उधार लिया जा रहा हो. और चूंकि वर्तमान कांग्रेस को इसकी कोई परवाह नहीं है, इसलिए इस मुद्दे पर एक दिन के लिए मीडिया बहस करने के अलावा और रास्ता नहीं है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)