Birbhum Violence : ‘ममता’ की छांव में जो हो रहा है, उस पर पूरे देश का चिंतित होना जरूरी है
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास नया नहीं है. यहां पर राजनीतिक वर्चस्व के लिए हत्या और हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन इससे पहले प्रतिद्वंद्वी पार्टी के कार्यकर्ताओं की ही नृशंस हत्या की जाती रही है. हालांकि बीरभूम केस ने बता दिया है कि अब ये हिंसा आम लोगों की भी जान ले रही है.
खेला होबे’ का नारा देने वाली पश्चिम बंगाल (West Bengal) की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के राज्य में ‘खूनी खेला’ की परंपरा इतनी बुलंदियों पर क्यों है? ऐसा क्यों लगता है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति (Bengal Politics) आज भी 70 के दशक से आगे नहीं बढ़ पाई है. ऐसा क्यों लगता है कि पश्चिम बंगाल में जब भी चुनाव होगा, खून बहेगा ही बहेगा? क्या ममता बनर्जी इस खून खराबे को भी जस्टिफाई कर सकती हैं?
ये सवाल ममता बनर्जी को चुभ जरूर सकते हैं, एजेंडा से प्रेरित जरूर लग सकते हैं, लेकिन ये पश्चिम बंगाल की बेहद कड़वी सच्चाई है, जिसे उन्हें स्वीकार करना चाहिए और प्रदेश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी इस अराजकता को खत्म करना चाहिए. उनसे पश्चिम बंगाल की जनता जिस ‘परिवर्तन’ की उम्मीद करती है, उसे धरातल पर लाना चाहिए.
बीरभूम नरसंहार की घटना शर्मसार करने वाली है
पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के रामपुर हाट में हुई हिंसा में 8 लोगों को जिंदा जला देने की घटना सामने आई है. इसमें एक नवविवाहित जोड़ा भी शामिल था, जो अपने घर त्योहार मनाने आया था. लिली खातून और काजी साजिदुर रहमान ने दो महीने पहले जनवरी में ही बीरभूम के नानूर में निकाह किया था. लेकिन इस घटना की पूरी राजनीतिक त्रासदी समझिए. रामपुर हाट के एक ग्राम पंचायत के एक उप प्रमुख और ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के एक नेता की हत्या होती है. जिसका नाम भादू शेख है. वो एक दुकान पर बैठे हुए थे, जब उन्हें मोटरसाइकिल सवार दो अज्ञात लोगों ने बम से मारा और उनकी हत्या कर दी.
इस हत्याकांड से भादू शेख खेमे के लोग आपा खो बैठते हैं. किसी ने ये नहीं सोचा कि ये मामला क्राइम का भी हो सकता है. इसके पीछे कोई और वजह भी हो सकती है. लोगों ने पुलिस का रुख करने तक की जहमत नहीं उठाई. कानून अपने हाथ में ले लिया और फिर शेख के बगटूई गांव में नृशंस हिंसा शुरू हो गई. रात भर उत्पात जारी रहा. विरोधियों के घर के दरवाजे बाहर से बंद करके आग लगा दी गई. जिसमें एक नवविवाहित जोड़े समेत 8 लोगों को जिंदा जला देने की रूह कंपा देने वाली खबर सामने आई.
सुबह तक हिंसा की आग में पूरा गांव राख हो चुका था. दृश्य इतना वीभत्स था कि पुलिस लाशें तक नहीं गिन पा रही थी. माना जा रहा है कि मारे गए लोगों में दो बच्चे भी रहे होंगे. इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि लोगों ने किस दहशत और किस तड़प के साथ दम तोड़ा होगा. इस नृशंस नरसंहार के बाद दो प्वाइंट ऐसे थे, जिनकी वजह से हिंसा आगे नहीं बढ़ी. पहला प्वाइंट ये कि इस अपराध में शामिल दोनों ही गुट ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस से जुड़े थे. दूसरा प्वाइंट ये कि दोनों ही पक्ष मुस्लिमों के थे. पूरा देश जानता है कि अगर ये विपक्षी पार्टियों के बीच हुआ होता या हिंदू-मुसलमान के बीच हुआ होता तो पूरे पश्चिम बंगाल में राजनीतिक और सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़क सकती थी. सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल को इतना संवेदनशील किसने बना रखा है?
पश्चिम बंगाल में छह दशक से खूनी संघर्ष जारी है
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास नया नहीं है. यहां पर राजनीतिक वर्चस्व के लिए हत्या और हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन इससे पहले प्रतिद्वंद्वी पार्टी के कार्यकर्ताओं की ही नृशंस हत्या की जाती रही है. साल 2001 में पश्चिमी मेदिनीपुर के अंगारिया गांव में इसी तरह एक घर को घेरकर उसमें आग लगा दी गई थी.
तृणमूल कांग्रेस के 5 कार्यकर्ताओं समेत कुल 11 लोगों को जिंदा जला दिया गया था. आरोप लगा था कि इसके पीछे माकपा समर्थकों का हाथ था, जिन्होंने राजनीतिक रंजिश में अंगारिया नरसंहार की घटना को अंजाम दिया. पश्चिम बंगाल की इसी दुखती रग को ममता बनर्जी ने पकड़ा था और ‘परिवर्तन’ का नारा देकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थीं.
पश्चिम बंगाल में एक ऐसी लहर चली कि पश्चिम बंगाल से वामपंथ का किला ही नहीं ढहा, बल्कि नामोनिशान मिट गया. माना जा रहा था कि ममता बनर्जी के सत्तारूढ़ होने से बंगाल अपने बुरे दौर से बाहर निकल जाएगा. लेकिन ममता बनर्जी ने वही किया, जो उनकी पूर्ववर्ती सरकारें करती आई थीं. तथाकथित ‘भद्रलोक’ का ना सिर्फ कुख्यात कैडर ही टीएमसी में शिफ्ट हुआ, बल्कि दशकों की खूनी परंपरा भी शिफ्ट हो गई.
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में राजनीतिक हिंसा
बीरभूम नरसंहार के बाद राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने एक बयान दिया. उन्होंने राज्य में हुई हिंसा को ‘आगजनी और तांडव’ बताया. इसके बाद से राज्यपाल और मुख्यमंत्री एक बार फिर सामने आ गए. ममता बनर्जी ने कड़े तेवर अपनाते हुए कहा कि राज्यपाल को अनुचित बयान देने से परहेज करना चाहिए. अब ममता बनर्जी ही बताएं- इतने बड़े नरसंहार को ‘आगजनी और तांडव’ कहने से भी ज्यादा फीका कोई शब्द हो सकता है क्या?
पश्चिम बंगाल में पिछले साल हुए चुनाव में पूरे देश ने भयानक रक्तपात देखा था. यहां तक कि नतीजे आने के बाद भी हिंसक झड़पें हुईं और 5 मई, 2021 को 24 घंटे के अंदर 17 लोग मार दिए गए. इनमें से बीजेपी ने अपने 9 कार्यकर्ता बताए थे, जबकि टीएमसी ने 7 अपने कार्यकर्ता बताए थे. इस चुनाव में बीजेपी ने पूरा जोर लगा रखा था, लेकिन ममता का किला नहीं ढहा. नतीजा ये हुआ कि बीजेपी के खेमे में भागमभाग मच गई. पार्टी का साथ देने वालों के पीछे मौत भागने लगी. ये लोकतंत्र है क्या? इसे भी राजनीति कहा जाना चाहिए क्या?
पश्चिम बंगाल पहुंचकर केंद्र सरकार भी महज एक पार्टी क्यों बन जाती है?
हिंदुस्तान में राजनीति का अतीत किसी से छिपा नहीं है. इसे इतिहास में पढ़ने की जरूरत नहीं है. हमारे बीच ऐसे तमाम लोग अभी भी जीवित हैं, जिन्होंने देश में राजनीति का वीभत्स और हिंसक चेहरा देखा है. देश में राजनीति के नाम पर बूथ कैप्चरिंग होती रही है, बम फूटते रहे हैं, गोलियां चलती रही हैं, चुनाव से पूर्व और चुनाव के पश्चात मर्डर होते रहे हैं. लेकिन ये सब अब अतीत का हिस्सा हो चुका है. पश्चिम बंगाल जैसे इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर अब हर राज्य में EVM का बटन चुनाव का एकमात्र हथियार होता है. लेकिन सवाल उठता है कि जब हिंदुस्तान अपनी आजादी का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा हो, जब पूरे देश में चुनावों को लोकतंत्र के महापर्व की तरह देखा जाने लगा हो, तब पश्चिम बंगाल में ‘खूनी खेला’ क्यों चल रहा है?
दरअसल, आज के दौर की असल समस्या ये है कि समस्या को देखने का नजरिया भी विचारों में बंट गया है. वर्ना सवाल ये भी पूछा जाना चाहिए कि ये कैसा गणराज्य है, जिसमें केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार, पश्चिम बंगाल पहुंचकर सिर्फ पार्टी रह जाती है. केंद्र सरकार कभी पश्चिम बंगाल में सरकार के तौर पर पहुंच ही नहीं पाती, वहां पर सरकार पहुंचकर भारतीय जनता पार्टी हो जाती है? क्या ये विभाजित विचारधारा, पश्चिम बंगाल को एक समान स्तर पर ला पाएगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)