अपनी भाषा को बड़ा बनाने के लिए दूसरी को छोटा सिद्ध क्यों करें?

यह 1899 में लॉस एंजिलिस की घटना है। हमारी ज्ञान परम्परा के शिखर पुरुष स्वामी विवेकानंद से एक अमेरिकी ने पूछा- ‘हाउ आर यू स्वामी जी?’ स्वामी जी ने उत्तर दिया- ‘मैं अच्छा हूं।’ उस अमेरिकी को लगा कि शायद स्वामी जी को अंग्रेजी नहीं आती, इसीलिए हिंदी में जवाब दे रहे हैं। पर उस अमेरिकी को थोड़ी टूटी-फूटी हिंदी आती थी, इसलिए अगला सवाल उसने हिंदी में पूछा- ‘भारत से यहां आकर कैसा लग रहा है आपको?’ इस बार स्वामी जी ने उसे अंग्रेज़ी में उत्तर दिया- ‘आई एम फीलिंग गुड, योर कंट्री इज ब्यूटीफुल’।

अमेरिकी ने कहा- ‘जब मैंने आपसे अंग्रेज़ी में सवाल किया तो आपने हिंदी में जवाब दिया और जब मैंने आपसे हिंदी में सवाल किया तब आपने अंग्रेजी में जवाब दिया, यह क्या पहेली है?’ स्वामी जी मुस्कराए और बोले, ‘जब आपने अपनी मातृभाषा में प्रश्न किया, तब मैंने अपनी मातृभाषा में उत्तर दिया। लेकिन जब आपने मेरी मातृभाषा का सम्मान करते हुए हिंदी में प्रश्न पूछा तो मैंने आपकी मातृभाषा का सम्मान करते हुए अंग्रेजी में उत्तर दिया।’

इस घटना को 123 साल हो गए हैं, लेकिन स्वामी जी की कही हुई यह बात समझने में हम आज तक असमर्थ हैं। हम यह नहीं समझ पाए कि ओछी राजनीति का पहला सिद्धांत ही यह है कि हमें टुकड़ों में बांट दिया जाए। कभी जाति के नाम पर, कभी क्षेत्र के नाम पर तो कभी भाषा के नाम पर।

1. भाषा विवाद है क्या?

तुम्हारी भाषा छोटी, मेरी बड़ी… यही एक वाक्य भाषा विवाद की जड़ है। क्योंकि भाषा सिर्फ़ कम्युनिकेशन का माध्यम नहीं है। हर भाषा के तार उसकी संस्कृति, साहित्य और इतिहास से जुड़ते हैं। जैसे ही हमने किसी भाषा को छोटा कहा, उसके साथ जुड़ी हुई संस्कृति को छोटा कह दिया, साहित्य को छोटा कह दिया, इतिहास को छोटा कह दिया और उस भाषा बोलने वाले इतिहास-पुरुषों को, उस भाषा-कुल में जन्मी विलक्षण महिलाओं को, सबको छोटा कह दिया। दुनिया की सभी भाषाओं का अपना एक विलक्षण सौंदर्य है। यह कहां लिखा हुआ है कि अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को बड़ा बनाने के लिए पहले मैं आपकी भाषा, आपकी संस्कृति को छोटा सिद्ध करूं।

2. क्या हिंदी राष्ट्रभाषा है?

हिंदी राष्ट्रभाषा है और संविधान की 8वीं अनुसूची में उल्लेखित सभी 22 भाषाएं राष्ट्रभाषा हैं। हिंदी के तिरस्कार पर सभी गैर हिंदी भाषियों को उतनी ही पीड़ा होनी चाहिए, जितनी हिंदी भाषियों को होती है। मुझे तकलीफ हुई जब एक प्रसिद्ध नाटककार ‘राम गणेश गडकरी’ ने कहा था कि ‘एक टीन के बर्तन में कंकड़-पत्थर भर के हिलाओ। जो आवाज आए, वही दक्षिण की भाषा है।’ भाषा को ऐसे स्टीरियोटाइप करना गलत है, निंदनीय है। यूरोप का नक्शा देख लीजिए। 40 से ज़्यादा देश हैं पूरे यूरोप में। अनेकता में एकता बनाकर एक साथ रह सकते थे, लेकिन रह नहीं पाए, खंडित हो गए, बिखर गए, इसी भाषाई पाखंड के मिथ्या मोह में। क्या हम चाहते हैं भारत के साथ भी ऐसा ही हो? जनगणना 2011 के अनुसार देश में सिर्फ 7 फीसदी लोग तेलगु बोलते है, सिर्फ 6 फीसदी तमिल भाषी हैं और सिर्फ़ 4 फीसदी कन्नड़ बोलते हैं, लेकिन हिंदी 44 फीसदी से भी ज्यादा लोगों की भाषा है, यानी 53 करोड़ से ज़्यादा लोग हिंदी बोलते हैं। फिर भी हिंदी अपने सम्मान और अस्तित्व के लिए अपने ही देश में संघर्ष कर रही है, यह दुखद है। हम हिंदी भाषियों का भी कर्तव्य है कि बाक़ी भारतीय भाषाओं के साथ सहज महसूस करें, जितना संभव हो उनकी शब्दावली को रोजमर्रा की बातचीत में शामिल करें।

भाषाएं और माताएं, छोटी या बड़ी नहीं होतीं, सिर्फ़ हमारी और तुम्हारी होती हैं। तुम्हारी मां तुम्हारे लिए पूज्य है, मेरी मां मेरे लिए पूज्य है, लेकिन कभी हम आमने-सामने आ गए तो अच्छा होगा कि तुम मेरी मां के चरण छूकर आशीर्वाद ले लो, मैं तुम्हारी मां के चरण छूकर आशीर्वाद ले लूं।

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