जब बात जनसंख्या जैसे मुद्दे की हो तो राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति चाहिए

11 जुलाई को विश्व-जनसंख्या दिवस पर उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो कुछ भी कहा, उस पर विवाद उठने लगा है। सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने योगी को चेतावनी देने के अंदाज में कहा है कि बच्चे जाति से नहीं, अल्लाह की मर्जी से पैदा होते हैं। बर्क के बयान पर हम बात करें, उससे पहले जरा देखना चाहिए कि आखिर योगी ने कहा क्या था?

योगी ने जनसंख्या-स्थिरीकरण पखवाड़ा की शुरुआत करते हुए कहा, “ऐसा न हो कि किसी एक वर्ग की आबादी बढ़ने की स्पीड ज्यादा हो और जो मूल निवासी हों, उनकी आबादी को जागरूकता के प्रयासों से नियंत्रित कर दिया जाए।” इसके साथ उन्होंने और भी कई बातें कहीं, जिनमें एक “वर्ग-विशेष” की बढ़ती आबादी पर चिंता अलग-अलग तरह से व्यक्त की गई थी।

मुख्यमंत्री चूंकि संवैधानिक मर्यादा से बंधे हैं, इसलिए उन्होंने वर्ग-विशेष कहा। उनके लिखे को अगर “बिटवीन द लाइन्स” पढ़ा जाए, तो वह कुछ ऐसा होगा, “मुसलमानों की बढ़ती जनसंख्या असुविधा की बात है। इससे जनसांख्यिकीय असंतुलन पैदा हो रहा है। ऐसा न हो कि मुसलमान तो पूरी स्पीड से आबादी बढ़ाते रहें और हिंदू ही कुछ दिनों में पॉपुलेशन के हिसाब से कम हो जाएं।” (यह बात लेखक की अपनी व्याख्या है)

अपनी बात आगे बढ़ाने से पहले आपको जनसंख्या संबंधी कुछ आंकड़े बता देता हूं। 1951 की जनगणना में हिंदू 30.6 करोड़ (82.1%) और मुस्लिम 3.54 करोड़ (9.49%) थे। 1951 में भारतीय जनगणना से पता चला कि 83 लाख ईसाई थे। विभाजन से पहले भारत की आबादी में 66 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या थी। चूंकि कोरोना की वजह से अब तक 2021 की जनगणना नहीं हुई है, तो हम यहां बेस-लाइन 2011 की जनगणना को ही मानेंगे। उस हिसाब से देखें तो फिलहाल, हिंदुओं की आबादी 96.63 करोड़ है, जो कि कुल जनसंख्या का 79.8 फीसद है। मुसलमानों की आबादी 17.22 करोड़ है, जो कि जनसंख्या का 14.23 फीसद होता है।

यानी, 1951 से 2011 तक मुसलमान 3.54 करोड़ से बढ़कर 17.22 करोड़ हुए, तो हिंदू 30.6 करोड़ से बढ़कर 96.63 करोड़ हुए। हालांकि, मुसलमानों में अभी भी जनसंख्या वृद्धि का प्रतिशत 24 फीसदी (2011 के सेंसेक्स के आधार पर) है, तो हिंदुओं की आबादी 16.8 फीसदी की दर से बढ़ रही है। अक्सर, पिछले दशक की वृद्धि के आधार पर या चीन का उदाहरण देकर यह कहा जाता है कि मुसलमानों की बेतहाशा जनसंख्या-वृद्धि हमारा कंसर्न नहीं होना चाहिए, लेकिन इसमें कुछ बातें चालाकी से छिपा ली जाती हैं।

जैसे, यह तो कहा जाता है कि 1991-2001 के दौरान मुसलमानों में जनसंख्या-वृद्धि दर जहां 29 फीसदी थी, वहीं पिछले बेसलाइन यानी 2001-2011 के दौरान यह केवल 24 फीसदी ही रही। अक्सर ही, उदारवादी लोग इसे दिखाकर कहते हैं कि मुसलमानों के साथ ज्यादती की जाती है, लेकिन वे यह नहीं बताते कि इस दौरान हिंदुओं की वृद्धि दर 16.8 फीसदी हो गई है। यह जानकारी भी छिपा ली जाती है कि 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की आबादी 0.8 फीसद बढ़ी है, तो हिंदुओं की आबादी में 0.7 फीसद की कमी दर्ज की गई।

इसके साथ कुछ और आंकड़े भी गिनाए जाते हैं। जैसे, राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों में कुल मातृत्व दर या टोटल फर्टिलिटी रेट (जितने बच्चों को एक महिला अपने पूरे जीवनकाल में जन्म देती है) में सबसे अधिक 9.9 फीसदी की गिरावट आई, लेकिन यह नहीं बताया जाता कि 2.36 के साथ यह अब भी देश में सबसे अधिक है, जबकि हिंदुओं की टोटल फर्टिलिटी रेट 1.94 ही है।

कहने की जरूरत नहीं कि आंकड़ों की बाजीगरी को अगर किनारे रख दिया जाए तो भारत में आजादी के बाद मुसलमानों की आबादी जहां पांच गुणा से अधिक बढ़ी है (3.54 करोड़ से लगभग 18 करोड़) तो हिंदुओं की आबादी तीन गुणा (30 करोड़ से 90 करोड़) ही बढ़ी है। इसको अगर टोटल फर्टिलिटी रेट या एकल परिवारों की बढ़ती संख्या के मद्देनजर देखें तो यह जरूर ही कंसर्न का विषय लगेगा। इसके लिए किसी जहरीले तथाकथित धर्मगुरु या महंत की बात सुनने की जरूरत नहीं है, जो लगातार हिंदुओं का आह्वान सा करते नजर आते हैं कि हिंदू भी जहालत का अनुसरण करें और जीवन का फुल टाइम ध्येय बच्चे पैदा करने को ही बना लें।

अब जरा इन आंकड़ों से निकलकर हम जरा सीएम आदित्यनाथ के बयान के असल मायने खोजें। आखिर, उन्हें यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी कि एक वर्ग-विशेष की जनसंख्या बढ़ी तो अराजकता बढ़ेगी। इसी के साथ यह भी याद कर लें कि एक न्यूज-चैनल के एंकर ने भी यह सवाल पूछा था, ‘मुसलमान अगर बहुमत में ही आ गए तो क्या हो जाएगा?’ इस सवाल को दो-तीन एंगल से देखने की कोशिश करते हैं। अभी ताजा मामला हम झारखंड का देख सकते हैं, जहां मुसलमानों की आबादी बढ़ी तो देश के संवैधानिक मूल्यों को ही दरकिनार कर स्कूलों को जबरन जुमा यानी शुक्रवार को बंद करवाया जाने लगा। इस तरह के और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन वह विषयांतर होगा।

जनसंख्या असीमित हो सकती है, लेकिन हमारे संसाधन सीमित हैं। भारत वैसे भी अतिशय जनसंख्या वाला देश है। अगर चीन की बात हम करें, तो चीन के क्षेत्रफल और लगातार दूसरे देशों की सीमाओं में उसके अतिक्रमण को भी याद रखें। उसकी साम्राज्यवादी लिप्सा और महत्वाकांक्षा को भी याद रखें। दूजे, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि चीन में लोकतंत्र नहीं है। वहां एक पार्टी की तानाशाही है। वहां की असल तस्वीरें भी बहुत छन कर ही आ पाती हैं। तो, चीन की खुशहाली की जो तस्वीरें हम देख रहे हैं, वह फैक्चुअली करेक्ट ही हों, यह जरूरी नहीं।

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात जो तेजस्वी यादव जैसे लोग चीन से तुलना करते वक्त भूल जाते हैं कि चीन ने बहुत सख्ती से वन-चाइल्ड पॉलिसी लागू की थी। देंग शियाओ ने 60 के दशक में जो सख्त नीति बनाई, उसी का परिणाम हुआ कि चीन में लोग अपने बच्चों को ही पहचानने से इंकार करने लगे। इस पॉलिसी को इतनी सख्ती से लागू किया गया कि आज निगेटिव बर्थ रेट की वजह से चीन को फिर से अपनी जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा रहा है।

अखिलेश यादव हों या तेजस्वी यादव, जब वे कहते हैं कि अराजकता का आबादी से नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की बर्बादी से संबंध है, तो वे भूल जाते हैं कि असल में वे कितनी बड़ी समस्या को कालीन के अंदर बुहार दे रहे हैं। चूंकि इन्हें बढ़ती आबादी से होने वाली समस्याओं से दो-चार नहीं होना पड़ता, लंबी कतारों में नहीं लगना पड़ता, इनके लिए विशेष सुविधाएं उपलब्ध हैं, तो ये अपनी राजनीति चमका सकते हैं।

बढ़ती आबादी, चाहे हिंदू हो या मुस्लिम, अपने साथ कई तरह की समस्याएं लाती हैं, जिनमें अन्न-जल की कमी से लेकर शिक्षा के मौकों और प्रतियोगिता का गलाकाट होना भी संभव है। एक गलती संजय गांधी ने की थी, जब इमरजेंसी के समय उन्होंने जबरन नसबंदी करवाई और उसके बाद से आज तक नेता इस विषय पर कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं करते, या बोलते हैं तो उल्टा ही बोलते हैं।

भारत की जरूरत है कि तत्काल जनसंख्या-नियंत्रण पर एक सुनियोजित नीति बनाए और तुरंत लागू करे। यूपी में अगस्त 2021 में ही जनसंख्या नियंत्रण कानून से जुड़ा ड्राफ्ट तैयार हो चुका है। राज्य विधि आयोग के अध्यक्ष आदित्य मित्तल ने 16 अगस्त 2021 को सीएम योगी को यह ड्राफ्ट सौंपा था। उसे भी अब लागू करना चाहिए।

जब बात हमारे भविष्य की हो, तो उसे राजनीति की चौसर पर कुर्बान नहीं कर सकते।

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