मुफ्त योजनाओं पर कैसे लगे लगाम …?
सुविधाओं और मुफ्त की रेवड़ी में फर्क करना होगा, रियायतों के लिए आधार भी तय करना पड़ेगा…
मुफ्त की रेवड़ियां बांटकर वोट बटोरने की होड़ लगी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार पर प्रहार किया कि वह लोगों की सुविधाएं बंद करने पर तुली है और टैक्स से जो पैसा आ रहा है उससे सरकार अपने दोस्तों का कर्ज माफ कर रही है।
उधर मुफ्त में लोगों को चीजें देने के वादों पर सुप्रीम कोर्ट में फिर बहस हुई। इस बहस में ही केजरीवाल के प्रहार का जवाब भी है। सुप्रीम कोर्ट में कहा गया कि सुविधाओं और पैसा बांटने में फर्क है। जहां तक केजरीवाल जी जो घोषणाएं कर रहे हैं- गैर कामकाजी महिलाओं को हजार रु., बेरोजगारों को पैसा, ये सब सुविधाएं नहीं हैं। ये खुली बंदरबांट है। मुफ्त की रेवड़ियां हैं।
वैसे केंद्र ने जो किसानों को नकद पैसा देना शुरू किया है वह भी सुविधा की श्रेणी में नहीं आता और वह भी नहीं जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने 60 से ऊपर की महिलाओं की बस यात्रा फ्री की है। एक तरफ केंद्र सरकार रेलवे में बुजुर्गों को टिकट पर मिलने वाली रियायत बंद कर रही है और दूसरी तरफ उप्र सरकार बुजुर्ग महिलाओं की बस यात्रा निःशुल्क कर रही है। यह विरोधाभास क्यों?
इतना ही नहीं, मुफ्त की सरकारी घोषणाएं जिनके लिए की जाती है, उनसे उन्हीं लोगों को परेशानी भी होती है। चीफ जस्टिस ने सुप्रीम कोर्ट में इसके दो किस्से सुनाए। उन्होंने कहा- ‘मेरे ससुर एक कर्मठ किसान हैं। उन्होंने किसानों को बिजली कनेक्शन न मिलने पर याचिका लगाने को कहा। मैंने कहा ये सरकार की नीति है। हम कुछ नहीं कर सकते। कुछ दिन बाद सरकार ने सारे अवैध कनेक्शन वैध कर दिए। मैं अपने ससुर से आंखें चुराता रहा। कुछ नहीं बोल पाया।’
चीफ जस्टिस ने दूसरा किस्सा ये सुनाया, ‘मेरे घर के आस पास लोगों ने बिना अनुमति कई मंजिलों के घर बना लिए। हमने ज्यादा मंजिल नहीं बनाईं। कुछ दिन बाद सरकार ने सभी अवैध मंजिलों को वैध कर दिया!’
दरअसल, बेरोजगारों को पैसा, महिलाओं को पैसा और ऐसी ही अन्य घोषणाएं जब तक नहीं कर दें कुछ राजनीतिक दलों को अपनी जीत का भरोसा ही नहीं होता, यही वजह है कि मुफ्त की सुविधाएं बांटी जा रही हैं और करदाता को ठगा जा रहा है। उसको टैक्स में पिछले नौ सालों में कोई रियायत नहीं दी गई।
मध्यम वर्ग दुनियाभर का बोझ अपने कंधे पर लिए हुए हैं। उसकी खोज- खबर लेने वाला कोई नहीं है। जिस चुनाव आयोग को इन फ्री की घोषणाओं पर अंकुश लगाना चाहिए वह हाथ पर हाथ धरे बैठा है। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल होने वाले हलफनामे को पहले ही मीडिया में लीक करके मुफ्त की वाहवाही बटोरने में लगा हुआ है।
होना तो यह चाहिए कि जो कुछ भी रियायतें हैं (फ्री की सुविधा नहीं) वे सब आर्थिक आधार पर दी जाएं, न कि जातीय या समूह के आधार पर। तब तो जरूरतमंद तक सुविधा पहुंचेगी वर्ना लोग बीच में ही खाते रहेंगे और पैसा बर्बाद होता रहेगा।