पहाड़ी जिले : लड़कियों का पढ़ाई करना मुश्किल, खोखला साबित होता ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा

रूढ़िवादी सोच में दबे पहाड़ के गांव….
पहाड़ी जिले बागेश्वर के गांवों में ज्यादातर लड़कियों का कहना था कि कोई भी काम लिंग के आधार पर बंटा नहीं होना चाहिए। आजादी के 75 साल बाद भी हमने अपने समाज के अंदर न जाने कितने ही खोखले विचारों एवं रूढ़िवादी परंपराओं को जगह दे रखी है, जिनकी वजह से असंख्य लड़कियों की सपने देखने की आजादी तक छिन गई है।
पहाड़ की जिंदगी
पहाड़ की जिंदगी

जिन समस्याओं को लेकर हम इतने आश्वस्त हो चुके हैं कि उनके मुद्दे अब हमारे लिए खत्म हो गए हैं, उन समस्याओं ने उत्तराखंड के दूरस्थ पहाड़ी जिले बागेश्वर के गांवों में न जाने कितने सपनों और आकांक्षाओं को दबा रखा है। वर्ष 1997 से पहले बागेश्वर अल्मोड़ा जिले का हिस्सा हुआ करता था। विकास की रफ्तार को तेजी देने के लिए इस नए जिले को तीन विकास खंडों-बागेश्वर, गरुड़ और कपकोट में विभाजित किया गया। पर दो दशकों से अधिक समय बीतने के बाद भी यह जिला कई समस्याओं से जूझ रहा है। गरुड़ विकास खंड के चोरसो गांव की लड़कियां कहती हैं कि उन्हें अपने सपने पूरे करने के अवसर ही नहीं मिलते, तो वे कहां से यह सोचें कि उनका विकास कैसे होगा? उन्हें स्कूल जाने के लिए सड़क अच्छी मिल जाए और बाजार तक उनकी पहुंच आसान हो जाए, तो उन्हें लगेगा कि विकास हो रहा है। पर जब उनकी इन्हीं समस्याओं की तुलना घर के लड़कों से करने को कहा गया, तो उनके जवाब अलग थे। इसी जिले के एक अन्य विकासखंड कपकोट के एक गांव उत्तरौड़ा की रहने वाली लड़कियां लैंगिक असमानता पर बेबाकी से अपनी राय रखती हैं और कई परंपराओं पर सवाल भी करती हैं। यहां की कम ही लड़कियां नौकरी करती हैं, क्योंकि जितने मौके लड़कों को मिलते हैं, उतने मौके न तो उन्हें मिलते हैं, न ही परिवार के लोग उन पर खर्च करना चाहते हैं। इस गांव की

ज्यादातर लड़कियों का कहना था कि कोई भी काम लिंग के आधार पर बंटा नहीं होना चाहिए। आजादी के 75 साल बाद भी हमने अपने समाज के अंदर न जाने कितने ही खोखले विचारों एवं रूढ़िवादी परंपराओं को जगह दे रखी है, जिनकी वजह से असंख्य लड़कियों की सपने देखने की आजादी तक छिन गई है। बघर भी कपकोट विकास खंड का एक गांव है, पर कनेक्टिविटी की समस्या से जूझता यह गांव अलग-थलग होकर रह गया है। गांव में न आंगनबाड़ी है,  न ही किसी तरह का नेटवर्क आता है। पहाड़ी पर बसे इस गांव तक पहुंचने के रास्ते इतने संकरे और जोखिम भरे हैं कि मुश्किल से सुविधाएं पहुंच पाती हैं। यहां की लड़कियां बताती हैं कि पास में सिर्फ एक ही स्कूल है और अगर उसमें पढाई नहीं करनी, तो पैदल दो घंटे से ज्यादा चलकर जाना पड़ता है। सातवीं में पढ़ने वाली कृष्णा रोज टैक्सी से कपकोट पढ़ने जाती है, जहां पहुंचने में दो घंटे से ज्यादा लगता है। खराब आर्थिक स्थिति और संकुचित सोच के कारण गांव की अधिकतर लड़कियां इतनी दूर पढ़ने नहीं जा सकतीं, अतः पास के स्कूल में पढाई करती हैं। इस गांव की सरिता के मुताबिक,  यहां की लड़कियों को बहुत सारे अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। जैसे-माहवारी के दौरान पूरे एक हफ्ते लड़की को घर के बाहर रहना पड़ता है और उस दौरान उसे छुआछूत का भी सामना करना पड़ता है। यहां की लड़कियों से बात करते हुए पता चला कि उनकी समस्याएं दोहरी हैं।

एक तो उन्होंने ऐसी जगह जन्म लिया, जो सुविधाओं से बहुत दूर है, और दूसरी यह कि उन्होंने लड़की के रूप में जन्म लिया है। कोरोना के दौरान जब स्कूल और कॉलेज ऑनलाइन पढ़ाई का रुख करने लगे थे, तब इन गांवों के बच्चे अपनी पढाई से सिर्फ इसलिए दूर हो गए थे, क्योंकि इन सीमावर्ती गांवों में नेटवर्क नहीं आता। ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा यहां खोखला हो जाता है। संविधान द्वारा दिए गए सारे नियम, अधिकार और कानून भी यहां खोखले हो जाते हैं, क्योंकि यहां की लड़कियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना पड़ रहा है। कनेक्टिविटी और अन्य मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे इन गांवों में उन कारकों को ढूंढना, जो विकास में बाधा हैं, आपको अन्य सामाजिक समस्याओं की तरफ भी ले जाएंगी। किशोरी बालिकाओं का यह कहना, कि उनकी समस्याएं दोहरी हैं, इस बात की ओर इशारा हैं कि विकास की योजनाओं का क्रियान्वयन भी दोहरा है, जिस कारण समग्र विकास का नारा सिर्फ नारा बनकर रह गया है। इन गांवों की लड़कियों को उम्मीद है कि एक दिन उन्हें भी वे सारे अवसर मिलेंगे,  जिनसे उन्हें सदियों से वंचित रखा गया है। लेकिन कैसे? इसका जवाब हर उस समाज को ढूंढना होगा, जो स्वयं को सभ्य कहता है।

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