जिम्मेदारों में अब जवाबदेही की भावना क्यों नहीं रही?

हाल ही के चंद वायरल वीडियो देश में कुप्रशासन की हालत का सटीक चित्र प्रस्तुत करते हैं। गुजरात के मोरबी में प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले सिविल अस्पताल की तेजी से मरम्मत करते कामगार एक विडम्बना का दृश्य सामने रखते हैं।

जब एक छोटा-सा कस्बा आपराधिक लापरवाही के परिणामस्वरूप गिरे पुल की त्रासदी से उबरने की कोशिश कर रहा होता है, तब यह सोचना कितना विचित्र है कि अस्पताल में रंगाई-पुताई करवाकर दुनिया की आंखों से कुछ छुपाया जा सकेगा। लेकिन यह चुनावी मौसम है और गुजरात मॉडल की चमक कायम रहना जरूरी है। आखिर हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जिसमें अच्छी तस्वीरें प्रस्तुत करना सब चीजों से बढ़कर हो गया है।

एक और दृश्य देखें। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम-रहीम का सत्संग चल रहा है, जिसमें मंत्रियों और विधायकों सहित वीवीआईपी लोग शामिल हैं। हत्या और दुष्कर्म के अपराधी डेरा प्रमुख चालीस दिनों की पैरोल पर जेल से बाहर आए थे। संयोग से उनका बाहर आना तब हुआ, जब हरियाणा में उपचुनाव और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं।

इन दोनों राज्यों में डेरा के अनेक समर्थक हैं। एक वीडियो में एक मंत्री अपराधी से आशीर्वाद लेते दिखाई देते हैं, मानो सबके सामने उन्हें उनके गुनाहों से बरी कर रहे हों। एक और वायरल वीडियो को भी यहां याद कर ही लें, जिसमें 2002 के बिल्किस बानो केस में हत्या और दुष्कर्म के ग्यारह दोषियों का गुजरात में फूलमालाओं से स्वागत किया जाता है।

एक अन्य वीडियो में पश्चिमी दिल्ली के एक सांसद लोगों से एक समुदाय का आर्थिक बहिष्कार करने का आह्वान करते दिखाई देते हैं। याद रहे कि हरियाणा, हिमाचल, गुजरात की तरह दिल्ली में भी चुनाव होने जा रहे हैं। दिल्ली के नगरीय निकाय चुनावों पर बहुत कुछ दांव पर लगा है। ये तमाम दृश्य एक गहरे नैतिक और राजनीतिक संकट को हमारे सामने रखते हैं, जो आज हमारे लोकतांत्रिक ढांचे के सम्मुख मुंह बाए खड़ा हो गया है।

सबसे पहली बात यह है कि जिम्मेदारों में जवाबदेही की भावना नहीं रही है। आखिर मोरबी में सरकारी अधिकारी यह सफेद झूठ बोलकर कैसे बच सकते हैं कि उन्हें मालूम ही नहीं था मरम्मत के बाद पुल को सार्वजनिक उपयोग के लिए खोल दिया गया है‌? पुल पर सुरक्षा के जाहिर अभाव को नजरअंदाज करते हुए भारी भीड़ को दोषी ठहराना अपने दायित्वों से निर्लज्जता से मुंह फेर लेना नहीं है?

इसी तरह हरियाणा सरकार यह कैसे कह सकती है कि उसे डेरा प्रमुख को पैरोल पर छोड़े जाने के बारे में जानकारी नहीं थी। बिल्किस मामले में भी दोषियों की रिहाई पर गृह मंत्रालय आखिर कैसे मूक रह सकता था? और दिल्ली के उन सांसद पर अभी तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई है? ये तमाम घटनाएं बताती हैं कि देश में संस्थागत अनुशासन का कैसे ह्रास हो गया है और अनेक स्तरों पर सुप्रशासन की कितनी क्षति हुई है।

नगरीय-प्रशासन तो सुस्ती और भ्रष्टाचार के लिए बदनाम है ही। मोरबी प्रशासन एक पुराने पुल के लिए सुरक्षा के बुनियादी मानकों की पड़ताल नहीं कर पाया, यह एक स्याह हकीकत का आईना है। साथ ही, कठोर सवाल पूछे जाने पर सत्ता में बैठे लोगों की चुप्पी यह भी बताती है कि नैतिक मानदंडों का कितना पतन हुआ है।

आखिर गुजरात की डबल इंजिन की सरकार इस बात की जिम्मेदारी कैसे नहीं लेगी कि उसने पुल के रखरखाव के लिए एक ऐसी निजी कम्पनी को ठेका दे दिया था, जिसे सिविल इंजीनियरिंग की परियोजनाओं में अतीत का कोई अनुभव नहीं था? जबकि उस पुल के लिए स्पष्टतया किसी विशेषज्ञ के संरचनागत ऑडिट की जरूरत थी।

जब हर हाल में सत्ता हासिल करना ही मूलमंत्र बन जाए तो लोकतंत्र में नैतिकता का समावेश कैसे होगा? महाराष्ट्र में जो हो रहा है, उसी का उदाहरण लें। वहां विपक्ष के द्वारा नारा लगाया जा रहा है- पनास खोखे, एकदम ओके।

इस नारे की बुनियाद में वह दावा है, जिसमें कहा गया था कि शिवसेना के हर बागी विधायक को पाला बदलने के लिए 50 करोड़ रुपए दिए गए थे। लेकिन जब यही विपक्ष सत्ता में था तो उसे वसूली सरकार कहा जाता था और उसके तत्कालीन गृहमंत्री तो अब भी मनी लांड्रिंग और वसूली के आरोप में जेल में हैं। ऐसा लग रहा है, जैसे नागरिकों से पूछा जा रहा है कि सिक्के के दो खोटे पहलुओं में से उन्हें कौन चाहिए?

मोरबी में अधिकारी यह बोलकर कैसे बच सकते हैं कि उन्हें मालूम ही नहीं था मरम्मत के बाद पुल को सार्वजनिक उपयोग के लिए खोल दिया गया है‌? भीड़ को दोषी ठहराना दायित्वों से मुंह फेर लेना नहीं है?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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