अगर सिस्टम चाहता है कि लोग कानून न तोड़ें, तो वैसी सुविधाएं देना चाहिए

वह रविवार का दिन था और मैं मुम्बई लोकल में सफर कर रहा था। मुम्बई में दो तरह की ट्रेन होती हैं- फास्ट और स्लो- जैसे कि एक्सप्रेस और पैसेंजर रेलगाड़ियां होती हैं। फास्ट ट्रेन कुछ स्टेशनों पर नहीं रुकती और विशेष ट्रैक पर चलती है। जबकि स्लो ट्रेन सभी स्टेशनों पर रुकती है। मैं जिस फास्ट गाड़ी में था, उसमें ठीक-ठाक भीड़ थी।

अचानक टीटीई ने एक कम्पार्टमेंट में प्रवेश किया और यात्रियों के टिकट चेक करने लगा। 80 पैसेंजरों के कम्पार्टमेंट में सात बेटिकट पाए गए। वे सभी अच्छे कपड़े पहने थे और कुछ के गले और अंगुलियों में तो ज्वेलरी भी थी। टीटीई ने सभी पर जुर्माना लगाया और उन्होंने बिना किसी प्रतिरोध के उसे चुका दिया। जब टीटीई जुर्माना वसूल रहा था, तब कुछ गपशप-प्रेमी खुसफुस करने लगे कि ड्रेस तो बढ़िया है पर टिकट लेने का पैसा नहीं है।

टीटीई अगले स्टेशन पर उतर गया, जिसके बाद वे सातों आपस में बातें करने लगे। उनकी बात से मुझे समझ आया कि उन्होंने इसलिए टिकट नहीं लिया था, क्योंकि उनके पास पैसा नहीं था, बल्कि स्टेशन काउंटर के बाहर इतनी लम्बी कतार थी कि अगर वे लाइन में लगते तो यह फास्ट लोकल चूक जाते, जो उन्हें मात्र 45 मिनटों में अपने गंतव्य तक पहुंचा सकती थी, जबकि स्लो ट्रेन में 1 घंटा 20 मिनट लगते थे।

अगली ट्रेन एक घंटे बाद थी। 40 साल पहले मेरे साथ भी यही हुआ था, जब मैं एक समाचार-पत्र के लिए काम करता था और रेलवे को कवर करता था। तब मैंने एक स्टोरी की थी, जिसका विषय था- मुम्बईकर कानून क्यों तोड़ते हैं? स्टोरी में अनेक लोगों से बात की गई थी और उसका शीर्षक था- बेटिकट यात्रियों के लिए कौन जिम्मेदार- रेलवे या पैसेंजर्स?

इस स्टोरी के बाद मध्य रेलवे के तत्कालीन डिवीजनल रेलवे मैनेजर अमृतलिंगम् रामजी ने यात्रियों को सरलता से टिकट मुहैया कराने के लिए अनेक उपाय आजमाए, पर उनके तमाम प्रयास नाकाफी साबित हुए। क्योंकि मुम्बई शहर रोज हजारों नए यात्रियों को अपनी ओर खींचता था। इस शनिवार मुझे यह वाकिया याद हो आया, जब उसी मध्य रेलवे ने मोबाइल एप्प पर अपने अनरिजर्व्ड टिकटिंग सिस्टम या यूटीएस को मोडिफाई करने का निर्णय लिया, ताकि यात्रीगण घर बैठे टिकट ले सकें।

रेलवे का यूटीएस एक जीपीएस आधारित एप्प है, जो जियो-फेंसिंग का उपयोग करते हुए भौतिक क्षेत्रों का सीमांकन करता है। एप्प पर केवल तभी टिकट बुक किए जा सकते हैं, जब यात्रीगण निकटतम रेलवे स्टेशन से कम से कम 30 मीटर की दूरी पर हों और सम्बंधित बोर्डिंग स्टेशन के दो किलोमीटर के दायरे में हों। यह इसलिए किया गया था ताकि लोग टीटीई को देखते ही टिकट खरीदकर रेलवे को धोखा देने की कोशिश न करें।

एक अन्य विकल्प था क्यूआर कोड में वह सुविधा देना, जिसकी मदद से यात्रीगण किसी भी कियोस्क से हार्ड कॉपी में टिकट पा सकें। दोनों ही सुविधाओं के चलते यात्रियों को कतार में खड़े होने की जरूरत नहीं होती। अगर आप स्विट्जरलैंड के लूज़ेन जैसे किसी स्टेशन पर जाएं तो पाएंगे कि वहां अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों- जिनके पास लोकल एप्प नहीं होता- के अलावा कोई भी टिकट नहीं खरीद रहा है। काउंटर पर मौजूद क्लर्क न केवल पर्यटकों को टिकट जारी करता है, बल्कि धैर्यपूर्वक उनके प्रश्नों के उत्तर भी देता है। आसानी से टिकट मिलने के कारण उन देशों के लोग सहज ही कानून का पालन करते हैं।

फंडा यह है कि अगर आप चाहते हैं कि लोग कानून न तोड़ें, तो उन्हें वैसी सुविधाएं दीजिए, जो उन्हें कानून-पालन का अवसर दें और फिर बदलाव देखिए। बिना कारण उन्हें दोष मत दीजिए।

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