गांधारी का न्याय …! अपराधी संसद तक पर हावी हैं …..
गांधारी का न्याय
लाखों कुर्बानियों के बाद देश अंग्रेजों से मुक्त हुआ और स्वयं देश ने अपने ही करोड़ों देशवासियों को अंग्रेज बना दिया। यह कार्य अभी और तेज गति पकड़ता जा रहा है। लोकतंत्र की अवधारणा जिनके भरोसे तय की गई थी, वो लोग तो अब रहे ही नहीं। लोकतंत्र के आज जो पुजारी बैठे हैं, वे तो देश को बेच खाने में लगे हैं। इन्होंने भारत की संस्कृति से पूरी तरह पल्ला झाड़ दिया। भारतीयों को अपनी जमात में शामिल तक नहीं करते। हमारे लोकतंत्र के तीन में से दो पाए तो आज भी अंग्रेज हैं। जो अंग्रेज नहीं बन पाया, वह ‘बगुला भगत’ हो गया। भाग्य भारत का!
देश के नए मुख्य न्यायाधीश धनंजय चन्द्रचूड़ ने नौ नवम्बर को शपथ लेने के बाद कहा था-‘शब्दों से नहीं, काम करके दिखाएंगे। आम आदमी के लिए काम करेंगे। बड़ा मौका है। बड़ी जिम्मेदारी है। आम आदमी की सेवा करना मेरी प्राथमिकता है। देखते जाइए, चाहे तकनीकी रिफॉर्म हो, रजिस्ट्री रिफॉर्म, ज्यूडिशियल रिफॉर्म हो, उस सबमें नागरिक को प्राथमिकता देंगे।’ न्यायाधीश चन्द्रचूड़ से कुछ समय पहलेे न्यायाधीश एन. वी. रमना भी मुख्य न्यायाधीश रहे थे। रमना ने भी पद पर रहते न्यायपालिका के भारतीयकरण की बात कही थी। उनका मतलब था भारतीय आबादी की जरूरतों और संवेदनाओं के अनुरूप न्याय प्रणाली को ढालकर नागरिकों तक पहुंच बढ़ाना।
आज देश में न्यायिक अधिकारियों की स्वीकृत संख्या 24112 है। पिछले छह वर्षों में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इन्हीं छह सालों में जिला न्यायालयों में लम्बित मामलों की संख्या दो करोड़ 65 लाख से बढ़कर चार करोड़ ग्यारह लाख हो गई। यह भी 55 प्रतिशत की वृद्धि है। उल्लेखनीय यह भी है कि इनमें से आधे मामलों में सरकार वादी है। इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के हजारों मामलों में दिए गए फैसले धूल खा रहे हैं। तब न्याय कैसे नागरिक तक पहुंचेगा? इससे तो मेरे लिए तो न्यायपालिका का अस्तित्व ही प्रश्नों के घेरे में आ गया। क्या इसकी गारण्टी देना न्यायपालिका का उत्तरदायित्व नहीं है कि प्रत्येक फैसले को समय के साथ लागू कराया जाए? कम से कम जिस न्यायाधीश ने फैसला दिया, उसको तो देखना ही चाहिए कि फैसला लागू हो गया। वरना, उसके भी होने के अर्थ समाप्त हो जाते हैं।
आज न्यायालयों/अधिकारियों को यह चिन्ता तो रहती है कि न्यायाधीशों की संख्या कम है। लम्बित मामलों की संख्या बढ़ रही है। क्या इसका एक ही कारण है? क्या आम नागरिक कानूनों की चाल, मुकदमों के निस्तारण और उनकी क्रियान्विति से संतुष्ट है? कानून अंग्रेजी में, नागरिक अंग्रेजी का जानकार ही नहीं। उसके लिए वकील क्या कह रहा है, सामने वाला वकील क्या कह रहा है, न्यायाधीश की प्रतिक्रिया क्या है, सब काला अक्षर भैंस बराबर है।
वह तो कोर्ट रूम के बाहर बैठकर बीड़ी पीता रहता है। कई तारीखों के बाद यह पता चलता है कि यह निर्णय आया है। निर्णय भी कई मामलों में बाप की जगह बेटा सुनता है। यही न्याय हम नागरिकों तक पहुंचाना चाहते हैं? छह साल में लम्बित मामलों का डेढ़ गुणा हो जाना न्यायपालिका के ढांचे और विभिन्न प्रक्रियाओं का श्रेष्ठ उदाहरण है।
दूसरी ओर कानून बनाने वाले, फैसला देने वाले तथा लागू करने वाले (कार्यपालिका) सभी समान विचारधारा के हैं। अत: नागरिक मूल लाभार्थी होते हुए भी मूक दर्शक बना रहता है। उसे तो बिल ‘डालर’ में चुकाने हैं, बस। चाहे घर बिक जाए। सारे नए व्यवसाय अंग्रेजों की तर्ज पर चल पड़े। भारतीय पिस रहा है, बस। चाहे वकील, डॉक्टर, इंजीनियर हो या अन्य। कोई भारतीयों की भाषा में सेवा नहीं करता। न ही फीस हमारी आर्थिक स्थिति के अनुरूप है। माननीय मुख्य न्यायाधीश को उन सब पहलुओं का अध्ययन कराना चाहिए कि किन-किस कारणों से न्याय आम नागरिक तक नहीं पहुंच पाता। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते-मनाते हमारी आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे पहुंच गई और हम साल-दर-साल विकास करते जा रहे हैं। करते ही रहेंगे। क्योंकि हमारा विकास का जिम्मा भी अंग्रेजी-दां हाथों में है।
हमारी न्यायपालिका भी अंग्रेजी-दां है। भारतीय नागरिक इसे नहीं समझ सकते। कानून बनाने वालों को भी भारत का ज्ञान नहीं है। भारत आत्मा को जीता है, अंग्रेज मात्र शरीर को। शरीर क्षणभंगुर है। भारत माटी की गंध है। आज देश की न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार के साये से नहीं बच पाई है। बड़े घरानों में भ्रष्टाचार पर्दे के पीछे होता है। कई राज्यों में विधायिका और कार्यपालिका एक हो गए हैं। न्यायपालिका को तय करना है कि इनसे मिल जाना है या स्वतंत्र रहना है। जब किसी राज्य विधानसभा का अध्यक्ष पत्रकारों को एक-एक हजार रुपए के गिफ्ट वाउचर बांटता है तो न्याय मौन क्यों? जब रामगढ़ बांध, झालाना बाईपास, मैट्रो निर्माण में पुरातत्त्व संरक्षण कानूनों की हत्या, अतिक्रमण, जलमहल आदि मुद्दों पर न्यायालय के फैसलों को सरकार चबा जाती है। सरकार स्वयं अधिकारियों को समन तामील नहीं होने देती, बल्कि उन्हें पदोन्नत कर देती है और न्यायालय मूकदर्शक बन जाए, तब नीचे आम नागरिक तक न्याय पहुंचने वाला नहीं है। नेताओं/अधिकारियों के खिलाफ दायर ज्यादातर सरकारी मामलों में भी या तो मामले ही वापस ले लिए जाते हैं या व्यक्ति ही बरी हो जाता है। कभी अवमानना का कोई मुकदमा नहीं चला, न ऐसे मामले पुन: खुलते हैं। तब न्यायालय का भय किसको? इस वातावरण में कोर्ट तो यहां तक कह चुका है कि ‘सरकार को हाईकोर्ट की जरूरत भी है या नहीं।’ शर्म किसी को नहीं आई। सब अंग्रेज हो गए-धर्मान्तरण नहीं, आत्मा सुप्त हो गया। वसुन्धरा सरकार का ‘काला कानून’ देशभक्ति का प्रमाण था? उच्चतम न्यायालय को सबसे पहले न्याय की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए। भय बिन होत न प्रीत। अवमानना की कार्रवाई व्यक्तिश: होनी चाहिए, पदनाम से नहीं। भले ही नेता या मंत्री शामिल हो, फैसला दबाने में।
सरकार और जनता के मध्य यह टकराव पिछले 75 सालों से निरन्तर चल रहा है। अंग्रेजी मानसिकता पर लगे भारतीयता के मुखौटे इस टकराव का मूल कारण है। नेताओं का पहनावा भारतीय भले ही हो, मानसिकता में कार्यपालिका के ही भक्त हैं। हमें कानूनों को देश के दर्शन-जीवनशैली, समाज व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाना और लागू करना चाहिए, भले ही विदेशों में कुछ और कारण हों। हमारी आधी आबादी (48 प्रतिशत) गरीबी की रेखा के नीचे है। क्या कानून इनके लिए नहीं है? क्यों नहीं सामाजिक कानून बनने से पहले चर्चा में आएं। यदि मेडिकल एसोसिएशन, बार एसोसिएशन आदि को कानून मान्यता दे सकता है, तब जातीय पंचायतों को क्यों नहीं। एक और नई जातियां हैं, दूसरी ओर परम्परागत। इसी तरह निजी जीवन के कानून यहां के सामाजिक परिपेक्ष्य को ध्यान में रखकर बनने चाहिएं। उदाहरण के लिए लिव-इन-रिलेशनशिप का कानून इस देश की जरूरत नहीं है। जिसे रहना है, रहे। भारत में स्त्री का एक सम्मानजनक दर्जा है, वह शक्ति भी है और पतिव्रता भी। देश के कितने त्योहार/उपवास वह पति की उम्र के लिए करती है। लिव-इन-रिलेशनशिप एक मौखिक अनुबन्ध जैसा है, जिसमें अन्त में स्त्री को ही घर छोड़ना पड़ता है। विदेशी महिला शरीर के लिए जीती है। दो-तीन विवाह भी कर लेती है।
एक कारण कोर्ट में तारीखें पड़ते जाना भी है। आज कई डॉक्टर ऐसे हैं जो अस्पताल को मरीज भेजते हैं, तो उन्हें बिल पर कमीशन मिलता है। लगभग सभी विदेशी व्यवसाय धन केन्द्रित हैं। अंग्रेजी-दां सरकारी सत्ताधारी भी इनकी ही भाषा समझते हैं। कानूनों के समक्ष एक देश में दो देशों को ध्यान में रखकर फैसला करना बड़ी चुनौती है। जो फैसला देश के बड़े हित में तथा सरकार के विरुद्ध जाएगा, वह लागू कौन करेगा? शिकायत भी कौन करेगा। नीचे वाले की तो सुनवाई कहां होती है!
माननीय न्यायाधिपति! सबसे पहले तो सारे फैसले-जो लागू नहीं हुए-सूचीबद्ध कराएं। एक नया विभाग इनको समयबद्ध लागू करवाए। इसके बिना कानून की स्वतंत्रता पर अब विश्वास होना आसान नहीं। न्यायाधीशों के प्रशिक्षण में भी भारतीय संस्कृति, मूल्य तथा आत्मा के धरातल के विषय अनिवार्य हों। गीता भी एक ग्रन्थ है, जो विश्व के सभी धर्मों से पुराना है। मानव मात्र के लिए है। सारा संदर्भ प्राकृतिक है। तब ही कानूनों के प्रभावों का सामाजिक आकलन संभव है। मात्र 10-15 प्रतिशत अंग्रेजी-दां के चिल्लाने से यदि देश की अस्मत पर आंच आती है, अखण्डता बिखरती है, आस्था पर कुठराघात होता है, तब डण्डे के बल पर कानून भले ही लागू कर लें (अंग्रेजों की तरह), नागरिक उसका सम्मान नहीं करेंगे। न्यायपालिका का कद भी उनके दिलों में घटता चला जाएगा। हमारे संकल्प निष्प्रभावी ही रहेंगे। स्वार्थी-प्रभावी लोग सबूत बदलते रहेंगे, फैसले भी बदलते रहेंगे। न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांधकर अब न्याय नहीं कर पाएगी। समय आ गया है जब देश को अपराधियों के विरुद्ध गरीब को न्याय देना है। अपराधी संसद तक पर हावी हैं। फैसला लागू न होना भी तो अन्याय ही है आखिर।