कानून में संशोधन के साथ कैसे बढ़ सकती हैं दलबदलुओं की मुश्किलें?
बहुचर्चित और अक्सर दुरुपयोग किए जाने वाले दलबदल विरोधी कानून में संशोधन करने की तैयारी है. संसद के आगामी शीतकालीन सत्र के दौरान मौजूदा कानूनों में संशोधन करने के लिए केंद्रीय कानून मंत्रालय एक नए विधेयक के साथ तैयार है.
बहुचर्चित और अक्सर दुरुपयोग किए जाने वाले दलबदल विरोधी कानून में संशोधन करने की तैयारी है. संसद के आगामी शीतकालीन सत्र के दौरान मौजूदा कानूनों में संशोधन करने के लिए केंद्रीय कानून मंत्रालय एक नए विधेयक के साथ तैयार है.
मौजूदा कानूनों के तहत, जैसे ही कोई विधायक प्रतिद्वंद्वी पार्टी में शामिल हो जाता है तो उस सीट को खाली घोषित कर दिया जाता है. फिर उपचुनाव होता है और संबंधित विधायक को मतदाताओं से नए सिरे से जनादेश लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है. मौजूदा कानूनों के दायरे का विस्तार किया जाना तय है क्योंकि इसमें किसी रजिस्टर्ड पार्टी के सभी पदाधिकारी शामिल होंगे. यदि वे किसी दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं और उस वक्त संसदीय या विधानसभा चुनाव होने में छह महीने से कम का समय बचा है तो नई पार्टी में शामिल होने वाले लोगों के लिए नई पार्टी के चुनाव चिन्ह पर अगले पांच साल तक चुनाव लड़ने पर रोक होगी.
हालांकि, वे निर्दलीय चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र होंगे. निर्वाचित होने पर, वे दल-बदल विरोधी कानून के दायरे में आ जाएंगे क्योंकि निर्दलीय विधायक भी औपचारिक रूप से किसी भी पार्टी में शामिल हो जाते हैं तो वे अयोग्य घोषित किए जाते हैं.
संशोधन में बदलाव के प्रस्ताव
प्रस्तावित संशोधित विधेयक का विचार उन लोगों पर नकेल कसना है, जो अंतिम समय में अपनी पार्टियों को छोड़ देते हैं. पार्टी के पदाधिकारियों पर पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी होती है और अगर वे चुनाव से ठीक पहले दलबदल करते हैं, तो इससे पार्टी में भारी परेशानी होती है.
ऐसे संकेत हैं कि इस संशोधन विधेयक को सभी राजनीतिक दलों का समर्थन मिलेगा क्योंकि सभी राजनीतिक दलों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है, खासकर तब जब वे किसी नेता को चुनाव लड़ने के लिए टिकट देने से इनकार करते हैं या उनकी सिफारिशों को नजरअंदाज करते हैं.
संशोधन की जरूरत
ऐसा प्रतीत हो सकता है कि संशोधित कानून सत्ताधारी बीजेपी को प्रभावित करेगा, चुनाव के ठीक पहले सबसे अधिक दलबदलू नेता बीजेपी में शामिल होते हैं. हालांकि सच्चाई कुछ और है. प्रस्तावित संशोधन बीजेपी को थोड़ी राहत दे सकता है और दलबदलुओं की महत्वाकांक्षाओं पर लगाम लगा सकता है. अक्सर दलबदलू चुनाव लड़ने के लिए ऐसी किसी प्रतिद्वंद्वी पार्टी में शामिल हो जाते हैं, जिसके चुनाव जीतने और सरकार बनाने की सबसे अधिक संभावना होती है.
हालांकि, बीजेपी ऐसे लोगों का स्वागत करती रही है, लेकिन उसे इसकी वजह से समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है, क्योंकि यदि दलबदलूओं की इच्छा पूरी नहीं की जाती है तो वे पार्टी के लिए संकट पैदा करते हैं. या तो वे फिर से बगावत कर देते हैं या फिर चुनाव के दौरान पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं. बीजेपी अब उम्मीद कर सकती है कि चुनाव से पहले वही लोग बीजेपी में शामिल होंगे जिनके पास धैर्य है या जो उसकी विचारधारा से सहमत हैं.
हालांकि यह कोई तय नियम नहीं है, लेकिन परंपरागत रूप से बीजेपी दलबदलुओं को प्रमुखता देने से बचती है. कोशिश होती है कि ऐसे लोगों को बड़ी भूमिकाएं देने से पहले उन्हें बीजेपी की संस्कृति में घुलने दिया जाए. इसका ज्वलंत उदाहरण असम के वर्तमान मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री बनने से पहले लगभग छह साल तक धैर्यपूर्वक अपना समय देना पड़ा था. हालांकि यह उनकी मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा थी जिसने उन्हें कांग्रेस पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर किया था, लेकिन उन्हें बीजेपी में इंतजार करना पड़ा.
भारत में दलबदल विरोधी कानून का इतिहास
दलबदल लंबे समय से सभी राजनीतिक दलों को परेशान कर रहा है. इस प्रथा को रोकने के लिए एक कानून बनाने की आवश्यकता तब महसूस हुई जब हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल जनवरी 1980 में पूरे मंत्रिमंडल के साथ जनता पार्टी से कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. उस वर्ष इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी सत्ता में लौटी थी. दिलचस्प है कि यह इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी ने 1984 में प्रधानमंत्री बनने पर दलबदल को अवैध बना दिया था. 1985 में दल-बदल विरोधी कानून अस्तित्व में आया था. तब से इसमें कई संशोधन हो चुके हैं.
हालांकि संशोधित कानून, एक खामी को दूर नहीं करेगा और इस खामी का बीजेपी विभिन्न राज्यों में इस्तेमाल करती रही है. मौजूदा कानूनों के तहत, निर्वाचित सदस्यों के दो-तिहाई सदस्यों द्वारा दलबदल को विभाजन माना जाता है और दलबदलू अयोग्यता से बच जाते हैं.