सभी के लिए एक नागरिक संहिता में बुराई क्या है?

जैसे ही राजस्थान के भाजपा सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने राज्यसभा में समान नागरिक संहिता यानी यूसीसी को प्रस्तुत किया, अल्पसंख्यकवादी सेकुलर-लॉबी सक्रिय हो गई। उनका मकसद स्पष्ट था। वे इस विधेयक और उसके प्रस्तोता दोनों को अमान्य करना चाहते थे।

राष्ट्रीय दैनिकों और पोर्टलों में इस आशय के शीर्षक दिखाई देने लगे कि ‘यूसीसी पर राज्यसभा में अराजकता!’ या ‘भाजपा के राज्यसभा सांसद के कारण विपक्षी बेंचों पर कोलाहल हुआ!’ विधेयक में व्यवधान डालने की कोशिशों के बावजूद उसे सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया और 63 सदस्यों ने उसके पक्ष और 23 ने विपक्ष में वोट डाले।

कोई भी सजग नागरिक पूछ सकता है कि आखिर इस पर कोलाहल क्यों हुआ? गौर करने वाली बात यह है कि अलग-अलग पर्सनल लॉ ब्रिटिश राज की विरासत हैं। यह उनकी बांटो और राज करो की प्रशासनिक नीति के अनुरूप था। मजे की बात है कि आज गोवा ही इकलौता ऐसा राज्य है, जहां यूसीसी है, जबकि वह पुर्तगाली उपनिवेश था।

स्वतंत्र भारत में यूसीसी लाने की कोशिश की गई थी और इसे प्रधानमंत्री नेहरू और कानून मंत्री आम्बेडकर का समर्थन प्राप्त था। लेकिन इसके बजाय हिंदू कोड बिल लाया गया। संविधान ने सिखों, बौद्धों और जैनों को भी हिंदू की श्रेणी में रखा था। मुस्लिम, ईसाई और पारसी इससे बाहर रखे गए।

इसका खामियाजा इन समुदायों की स्त्रियों ने ही सबसे ज्यादा भुगता, जैसा कि बाद में शाहबानो मामले में देखा गया। तीन तलाक का उन्मूलन इसी कड़ी में देरी से किया गया भूलसुधार था। इस साल कई राज्यों में यूसीसी पर फिर से बहस गर्म है। इनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और केरल शामिल हैं।

यूसीसी का सबसे कड़ा विरोध ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन या एआईएमआईएम द्वारा किया जा रहा है, जो इसे असंवैधानिक और अल्पसंख्यक-विरोधी बता रहे हैं। तथाकथित सेकुलर आलोचक भी इससे सहमत हैं। जैसी कि उम्मीद की जाती है, विदेशी मीडिया ने भी इस पर अपना रुख जाहिर कर दिया है और इसे देश पर हिंदुत्व थोपने की एक और कोशिश बताया है।

जहां तक विधेयक को प्रस्तुत करने का सवाल है तो हमें याद रखना चाहिए कि यह एक निजी सदस्य बिल था, जिसे किसी राजनीतिक दल का अधिकृत समर्थन नहीं था। वैसे भी प्राइवेट मेम्बर्स बिल आसानी से कानून नहीं बनता है। वह अमूमन लम्बित विधेयकों के ठंडे बस्ते में चला जाता है। विधेयक का विरोध करने वाले पूछ रहे हैं कि किरोड़ी लाल मीणा कौन हैं।

उन्हें बताया जाना चाहिए कि 70 वर्षीय वयोवृद्ध राजनेता न केवल एमबीबीएस हैं, बल्कि अपने राज्य और समुदाय में वे बहुत सम्मानित भी हैं। उन्होंने दूसरी बार यह विधेयक रखने का प्रयास किया है। मार्च 2020 में भी वे एक बार इसकी कोशिश कर चुके थे। राज्यसभा में विधेयक का विरोध करते हुए द्रमुक के तिरुचि शिवा ने कहा कि यह सेकुलरिज्म के विरुद्ध है।

क्या उन्हें नहीं पता कि यूसीसी एक नीति निर्देशक सिद्धांत के रूप में हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 है। उसमें कहा गया है कि राज्यसत्ता पूरे भारतीय परिक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुनिश्चित करेगी। यानी संविधान के अनुसार यूसीसी को प्रस्तुत और लागू करना भारतीय गणराज्य का दायित्व है। तो क्या हमारा संविधान ही सेकुलरिज्म के विरुद्ध है?

विधेयक को रोकने के लिए यह भी कहा गया कि इससे देश बंटेगा और उसकी संस्कृति-बहुलता को ठेस पहुंचेगी। तो क्या देश की एकता तभी कायम रहेगी, जब अल्पसंख्यकों के लिए पृथक से नियम होंगे? और क्या भारतीय विविधता का यह अर्थ है कि कानून की नजर में अलग-अलग समुदायों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाए?

आखिर विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि से जुड़े मामलों में सभी धर्मों-समुदायों के लोगों के लिए एक समान कानून में क्या बुराई है? इसका यह मतलब नहीं है कि परम्परागत रीतियां समाप्त हो जाएंगी। इससे इतना ही होगा कि अगर किसी नागरिक को लगता है कि उसके साथ जुल्म हो रहा है तो वह अपने लिए न्याय की तलाश कर सकता है।

नगालैंड, मेघालय, मिजोरम जैसे विशिष्ट क्षेत्रों के स्थानीय नियम-कायदों की तो संविधान खुद ही रक्षा करता है। यह बात अब धीरे धीरे स्पष्ट हो रही है कि यूसीसी का समय आ चुका है।

क्या विविधता का यह अर्थ है कि कानून की नजर में अलग समुदायों के साथ अलग व्यवहार किया जाए? विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि से जुड़े मामलों में सभी के लिए एक समान कानून में क्या बुराई है?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *