रेड कॉरिडोर में फंसे नक्सली …?

रेड कॉरिडोर में फंसे नक्सली:झारखंड का सबसे बड़ा लीडर जंगलों में घिरा, पर छत्तीसगढ़ का बस्तर अब भी नक्सल ‘राजधानी’

हम झारखंड के बूढ़ा पहाड़ की चोटी पर खड़े हैं। ठीक सामने वह पेड़ है, जिसके नीचे बैठकर नक्सल लीडर अरविंद ने न जाने कितनों को ‘सजा’ दी है, कितनों पर कहर ढाए हैं। कुछ ऊपर पहाड़ी पर ही उसकी समाधि है। उस तक पहुंचने के लिए सैकड़ों लैंडमाइंस से होकर जाना होगा।

इससे पता चलता है कि एक बुरा दौर गुजर चुका है। साथ में फहरता तिरंगा पुष्ट करता है कि हम आजाद हवा में सांस ले रहे हैं, नक्सलियों की दुनिया में नहीं। इस जगह को अक्टूबर 2022 में सुरक्षाबलों ने कब्जे में लिया है।

55 वर्ग किमी में फैला बूढ़ा पहाड़ छत्तीसगढ़ और झारखंड के बीच बॉर्डर का काम करता है। यह पहाड़ों की एक रेंज है। जंगल इतना घना है कि कोई आसपास खड़ा हो तो भी नजर न आए।
55 वर्ग किमी में फैला बूढ़ा पहाड़ छत्तीसगढ़ और झारखंड के बीच बॉर्डर का काम करता है। यह पहाड़ों की एक रेंज है। जंगल इतना घना है कि कोई आसपास खड़ा हो तो भी नजर न आए।

यह छोटा सा अध्याय रेड कॉरिडोर पर हमारी 5000 किमी लंबी यात्रा की न शुरुआत थी, न अंत। बस एक पड़ाव था। बिहार से निकलकर झारखंड, फिर यहां से उड़ीसा होते हुए छत्तीसगढ़। मतलब रेड कॉरिडोर का बड़ा हिस्सा, जो कई दशकों तक नक्सलियों के आतंक से ग्रस्त रहा।

बीते कुछ साल में यहां हालात बदले हैं। CRPF की भारी तैनाती और स्टेट पुलिस के स्पेशल स्क्वॉड्स के साथ लगातार जॉइंट एक्शन से इस कॉरिडोर में नक्सली घिर चुके हैं। नक्सलियों ने लैंडमाइंस से इलाके पाटे तो पहली बार उनके गढ़ में बमबारी की जा रही है, जिससे उनके पांव उखड़ रहे हैं। मार्च में चकरबंधा पर काबिज होते ही बिहार को नक्सलवाद मुक्त घोषित कर दिया।

……. की पड़ताल में पता चला कि बिहार के बड़े नक्सली भाग चुके हैं, छिटपुट मूवमेंट छोड़ सभी एक्टिविटी खत्म और संगठन ध्वस्त है। गया के चकरबंधा और मुंगेर के भीमबांध पर सुरक्षाबल काबिज हैं। कुछ बहुत दुर्गम ऊपरी इलाकों में नक्सलियों की मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि, ट्रैकिंग लगातार जारी है।

CRPF और पुलिस 2 साल से नक्सल प्रभावित इलाकों में ओरिएंटेड स्पेसिफिक ऑपरेशन चला रही हैं। इसके असर से नक्सलियों का मूवमेंट लगभग खत्म हो गया है।

झारखंड के कुछ हिस्सों जैसे पलामू, लातेहार, गढ़वा, चतरा में नक्सली एक्टिव हैं। पर, इनमें ज्यादातर निचले स्तर के हैं, जो इस फिराक में हैं कि कब उनकी इनामी राशि बढ़ जाए और स्टेट पॉलिसी के तहत सरेंडर कर वे उसे हासिल कर सकें। पारसनाथ भी करीब-करीब शांत है।

PLFI जैसा संगठन छिपकर ठेकेदारों से वसूली में शामिल है। यहां सेंट्रल कमेटी के प्रशांत बोस की गिरफ्तारी और बूढ़ा पहाड़ पर कब्जे के साथ संगठन कमजोर हो चुका है। रीजन के बड़े नक्सल लीडर सेंट्रल कमेटी का मिहिर बेसरा, अनल, बिहार से भागा प्रमोद मिश्र और 200 से ज्यादा हथियारबंद मिलिशिया कोल्हान के जंगलों में घिर चुके हैं। ये रॉकेट लॉन्चर, एके-47 जैसे हथियारों से जरूर लैस हैं, पर सुरक्षाबलों की तैयारी की वजह से अब बचने की कोशिश कर रहे हैं।

वे ग्रामीणों को बरगलाने में लगे हैं, ताकि शील्ड हासिल कर सकें। ओडिशा में हाल की हिंसक घटनाओं को जोड़ें भी, तो लाल आतंक मल्कानगिरी, सुंदरगढ़, नुआपाड़ा और दक्षिण कंधमाल तक सिमट गया है। आंध्रप्रदेश के नक्सली थिंकटैंक गणपति, नंबाला केशव राव वहां से खदेड़े जाने के बाद से छत्तीसगढ़ को सेंटर बनाए हुए हैं।

नक्सलियों से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ के बस्तर डिवीजन में 50 हजार से ज्यादा पैरा मिलिट्री जवान तैनात हैं। इसके बावजूद सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर, अबूझमाड़ जैसे इलाकों में खतरा बरकरार है।

सुकमा-बीजापुर-तेलंगाना का ट्राईजंक्शन सबसे ज्यादा संवेदनशील है। सूत्रों के मुताबिक, मैनपावर और फायर पावर में पिछड़ चुके नक्सली अब सीधी लड़ाई के मूड में नहीं। ज्यादा दबाव पड़ने पर वे नए इलाकों की ओर रुख कर सकते हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हाल ही में उनकी रीइंफोर्समेंट की रणनीति उजागर हुई है। मध्यप्रदेश के बालाघाट को भी फिर एक्टिव करने की योजना हो सकती है।

नक्सलियों के असर वाले इलाके

बिहार के 10 जिले: औरंगाबाद, बांका, गया, जमुई, कैमूर, लखीसराय, मुंगेर, नवादा, रोहतास, पश्चिम चंपारण

झारखंड के 16 जिले: बोकारो, चतरा, धनबाद, दुमका, पूर्वी सिंहभूम, गढ़वा, गिरिडीह, गुमला, हजारीबाग, खूंटी, लातेहार, लोहरदगा, पलामू, रांची, सरायकेला-खरसावां, पश्चिमी सिंहभूम

छत्तीसगढ़ के 14 जिले: बलरामपुर, बस्तर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, धमतरी, गरियाबंद, कांकेर, कोंडागांव, महासमुंद, नारायणपुर, राजनंदगांव, सुकमा, कबीरधाम, मुंगेली

ओडिशा के 10 जिले: बरगढ़, बालांगीर, कालाहांडी, कंधमाल, कोरापुट, मालकानगिरी, नबरंगपुर, नुआपड़ा, राजगढ़, सुंदरगढ़

2022 में बिहार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नक्सलमुक्त घोषित कर दिया है। माना जा रहा है कि 2023 की संशोधित लिस्ट में औरंगाबाद, गया, जमुई और लखीसराय जिले ही रह जाएंगे। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा के चुनिंदा जिलों को छोड़कर ज्यादातर जिलों में नक्सल गतिविधियां न के बराबर हैं।

 

चौतरफा रणनीति, जिससे उखड़ रहे नक्सलियों के पांव
1. फायर पावर से पहाड़ों से धकेला: CRPF के तेजतर्रार अफसरों ने बिहार-झारखंड में रेकी के बाद पॉइंट किए गए इलाकों में जबरदस्त फायर-पावर का इस्तेमाल किया। इससे नक्सलियों को पीछे हटना पड़ा। मांइस लगे होने की वजह से यही सबसे प्रभावी विकल्प था। जहां से नक्सली हटे, वहां से लैंडमाइंस को निकाला गया फिर फोर्स काबिज हो गई। इस ऑपरेशन में ध्यान रखा गया कि आम लोगों को नुकसान न हो।

भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता प्रशांत का लेटर, जिसमें वह फायर पावर के इस्तेमाल से परेशान नजर आ रहा है। फोर्स को समझ आ गया कि नक्सली इससे घबरा गए हैं, इसलिए कार्रवाई बढ़ा दी।
भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता प्रशांत का लेटर, जिसमें वह फायर पावर के इस्तेमाल से परेशान नजर आ रहा है। फोर्स को समझ आ गया कि नक्सली इससे घबरा गए हैं, इसलिए कार्रवाई बढ़ा दी।

2. सड़कें बनाना और नक्सल रूट ब्लॉक करना: पहले सुरक्षाबल ऑपरेशन के बाद लंबी दूरी तय कर बेस पर लौटते थे। रूट की रेकी होने पर उन पर हमले होते थे। 2010 में सुकमा में हुआ हमला इसी तरह का था। पिछले कुछ साल में नक्सल प्रभावित इलाकों में छोटी-छोटी दूरी पर कैंप बना दिए गए हैं।

पहाड़ी इलाकों में शुरुआत बेस से होती है, ताकि उन्हें सामान पहुंचाने की लाइन ब्लॉक हो जाए। फिर अभियान चलाकर नक्सलियों को अगले पॉइंट से खदेड़ा जाता है। यहां फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस (FOB) बनाकर फिर अगले पॉइंट तक अभियान चलता है।

ऐसे एक-एक कर पहाड़ों की चोटी तक कैंप बन जाते हैं और सामान का रूट ब्लॉक हो जाता है। नक्लसी इलाका छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इन इलाकों में सड़कें बनवाकर सुरक्षाबलों का मूवमेंट तेज कर दिया जाता है।

नक्सलियों के कब्जे से आजाद हुए इलाकों में सिक्योरिटी फोर्सेज ने कैंप बना लिए हैं। हालांकि, वहां तक पहुंचने के लिए पथरीले रास्तों से गुजरना होता है। आने-जाने का इकलौता साधन बाइक ही है।

3. ऑर्गनाइज्ड क्रॉस बॉर्डर घेराबंदी: नक्सली आम तौर पर ऐसे इलाकों में ठिकाना बनाते हैं, जहां दो राज्य की सीमाएं हैं। बीते कुछ साल में सेंट्रल और स्टेट की एजेंसियों में तालमेल की कमी को दूर किया गया है। अब दोनों ओर से उनकी घेरेबंदी की गई है। यह घेराबंदी बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में देखी जा सकती है।

4. ED-NIA के जरिए अर्थतंत्र पर चोट: बिहार-झारखंड की ही बात करें तो जेल में बंद तमाम नक्सलियों और उन तक पैसे पहुंचाने वाले ठेकेदारों और सप्लायर्स पर NIA ने सख्ती की है। टेरर फंडिंग के आरोप में कई सफेदपोश गिरफ्तार हुए हैं। ED ने संपत्तियां सीज की हैं। बिहार में एक्टिव रहे नक्सली संदीप यादव, प्रद्युम्न, प्रमोद शर्मा, दिलीप सहनी, माधव दास, रामबाबू राम और महावीर यादव की संपत्ति जब्त की गई है।

5. हथियारों की सप्लाई चेन कमजोर: नक्सलियों के पास बहुत से हथियार शुरुआती दौर में सुरक्षाबलों से लूटे हुए हैं। कुछ वे नेपाल-बांग्लादेश-म्यांमार के रास्ते हासिल कर रहे थे। बदली स्ट्रैटजी में जवानों को निशाना बनाने की हिम्मत उनमें नहीं बची है। नेपाल और बांग्लादेश बॉर्डर पर सख्त मॉनिटरिंग है। एजेंसियों का फोकस बर्मा बॉर्डर पर भी बढ़ा है, जिसके बाद हथियारों की सप्लाई चेन कमजोर हुई है।

छत्तीसगढ़ में जीत इसलिए मुश्किल…
CRPF ने सिविक एक्शन प्लान के तहत नक्सल प्रभावित इलाकों के डेवलपमेंट में मदद की। उनकी रोड ओपनिंग पार्टी (ROP) ने खड़े होकर सड़के बनवाईं। फिर राज्य की एजेंसियों ने सरकारी योजनाओं का फायदा पहुंचाना शुरू किया। फोर्स की तैनाती से इलाकों में दूध, सब्जी-फल की मांग बढ़ी। इसकी सप्लाई भी ग्रामीणों से ही करवाई गई। इससे वे आर्थिक रूप से मजबूत हुए और कई इलाकों में नक्सलियों का सपोर्ट बंद किया।

छत्तीसगढ़ में यह रणनीति पूरी तरह कारगर नहीं है। नक्सली आज भी गांवों में ह्यूमन शील्ड के पीछे से काम कर रहे हैं। उनकी सुरक्षापंक्ति में पहली लाइन हथियारबंद ग्रामीणों की ही है। इससे उन तक पहुंचना मुश्किल है। ग्रामीणों का रेडिकलाइजेशन दूसरी जगहों की तुलना में ज्यादा है। उन्हें बचपन से छोटे ‘अ’ से अनार और उसके साथ बंदूक का निशान बनाकर पढ़ाया जाता है। मतलब अनार मिलेगा, लेकिन बंदूक उठाकर।

इसका बड़ा कारण है आंध्र प्रदेश का पढ़ा-लिखा नक्सल थिंकटैंक। ग्रे-हाउंड फोर्स के वहां से खदेड़े जाने के बाद से वे यहीं काबिज हैं। यहां के लोगों अलग ही शिक्षा दे रहे हैं। कई पीढ़ियों ने तो इन्हें ही अपने सरपरस्त के रूप में देखा हैं। सरकार क्या है, इसकी जानकारी लोगों को है ही नहीं।

CRPF के IG साकेत कुमार कहते हैं कि छत्तीसगढ़ की भौगोलिक और सामाजिक स्थिति दूसरे राज्यों से अलग है। यहां जन मिलीशिया बेहद एक्टिव हैं। PLGA जैसे विंग हैं। खुली सीमाएं हैं। कम्युनिकेशन नेटवर्क नहीं है। फिर भी हमारी जॉइंट टास्क फोर्स के लगातार ऑपरेशन से नक्सली पीछे हटे हैं।

4 हजार वर्ग किमी में फैले अबूझमाड़ की दुर्गमता
देश के सबसे बड़े जंगलों में एक 4000 वर्ग किमी में फैला अबूझमाड़ सरकारी सुविधाओं से दूर है। यह इतना घना है कि अंदर कितने नक्सली हैं, इसे बूझना मुश्किल है। जंगलों में कई जनजातियां रहती हैं, इसलिए यहां खुलकर ऑपरेशन चलाना मुमकिन नहीं। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का यह सबसे बड़ा सेफजोन है।

नक्सलियों की रणनीति..
नक्लसी आमतौर पर पहाड़ी इलाकों और जंगलों में कैंप बनाते हैं। इसके बाहर बड़े इलाके में वे लैंड माइन, प्रेशर बम बिछाकर रखते हैं ताकि सुरक्षाबल उन तक न पहुंच सकें। दरअसल, माइंस इनकी डिफेंस का हिस्सा होती हैं, अटैक का नहीं।

जब-जब उन्हें दहशत फैलानी होती है, वे सुरक्षाबलों, नेताओं को घेरकर एंबुश (घात लगाकर हमला) करते हैं, फिर जंगलों में गायब हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ में 2010 का दंतेवाड़ा का हमला और 2013 का कांग्रेस नेताओं पर हमला इसी कड़ी में किए गए।

25 मई, 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला किया था। इसमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के सभी टॉप नेता शामिल थे। झीरम घाटी में हुए हमले में 30 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। उनकी याद में हमले वाली जगह पर एक स्मारक बनाया गया है।

इसके अलावा नक्सलियों के बड़े लीडर लोकेशन बदलते रहते हैं और ट्रैक होने से बचने के लिए फोन नहीं रखते। उनकी इंटेलिजेंस का काम गांववाले ही करते हैं। वे कोडवर्ड से फोर्स की सूचनाएं उन तक पहुंचाते हैं।

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