संविधान पर कुर्बान होने का समय …!

यपुर में विधानसभाओं-संसद के पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन चल रहा है। सभी अतिथियों का राजस्थान की रणबांकुरी धरा पर राजस्थान पत्रिका अभिनन्दन करता है। संविधान का सम्मान पीठासीन अधिकारियों की लोकतंत्र के प्रति निष्ठा पर ही निर्भर करता है। मूलत: पीठासीन अधिकारी सत्ता पक्ष के ही होते हैं अत: सदा आरोपों से घिरे ही रहते हैं। बहुत कम होते हैं जो आत्मसम्मान एवं लोकहित को प्राथमिकता देते हैं।

इस तरह के वार्षिक सम्मेलनों में कानून बनाने, कानून लागू करने तथा व्यवस्था बनाए रखने जैसे मुद्दों पर चर्चा होती है। इस बार विधायिका और न्यायपालिका के बीच समन्वय पर विशेष चर्चा का प्रावधान है। हर वर्ष चर्चा होती है, कुछ निर्णय भी किए जाते हैं, किन्तु परिणाम? यही स्थिति आज न्यायपालिका की है। उसके तो अनेक फैसले कई वर्षों से धूल चाट रहे हैं। किसी न्यायाधीश को बुरा नहीं लगता कि मेरा फैसला लागू क्यों नहीं हुआ। इसी प्रकार संसदीय कार्य को लेकर भी कई विधायी प्रक्रियाएं तय हैं। कौन जन प्रतिनिधि कटिबद्ध है?

आज की मुख्य समस्या है शिक्षित जनप्रतिनिधियों का अभाव, जो न क्षेत्र को समझते हैं, न प्रदेश और देश को। हमने मंत्री ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री पद पर भी अल्प शिक्षित नेताओं को आसीन देखा है। इन पदों पर अल्प शिक्षित महिलाएं आसीन हों तो इनके नाम से कौन राज करता है, सब जानते हैं। आजादी का अमृत महोत्सव है। क्या हमारी पीढ़ी का नेतृत्व ऐसे नेता कर पाएंगे। इसी का दूसरा पहलू है मंत्रिपरिषद में अपराधी। सदनों में इनका बोेलबाला। इनकी भूमिका असुर-समुदाय जैसी होती है। लोकतंत्र की शब्दावली यहां नहीं चलती।

संसद हो या विधानसभाएं, जो प्रतिनिधि चुनकर आता है, वह सदन का सदस्य होता है। सम्पूर्ण देश/प्रदेश का प्रतिनिधि होता है, चाहे वह किसी भी दल का हो। सदन के भीतर दल नहीं जाता। पक्ष या विपक्ष ही जाता है। आज भी दलों के आदेश जारी होते हैं, व्हिप जारी होते हैं, जो उचित नहीं कहे जा सकते। सारे सदस्यों का एक ही नेतृत्व होता है- पीठासीन अधिकारी। पार्टी निर्देशों का संचालन पार्टी कार्यालय से होना चाहिए। सरकार भी पार्टी विशेष की नहीं, बल्कि देश/ प्रदेश की होती है। अच्छा होगा सभी सदस्यों को संकल्पित करा दिया जाए। बिना दल का चोला उतारे सदस्य गंभीर होकर चर्चा में भाग नहीं ले सकते। हंगामा-बहिर्गमन, शोर-शराबा दलगत राजनीति के कारण होता है, जो स्वयं सदस्य का अपमान है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की वार्षिक रिपोर्ट-2021 में सामने आया है कि 28 विधानसभाओं के विधायकों में जागरूकता का अभाव है। यहां 44 प्रतिशत बिल एक दिन में ही पास हो गए। किसी को चर्चा-बहस की आवश्यकता ही नहीं लगी।

पढ़ें जनता पुन: मूकदर्शक@पेज 13

एक ऐसा ही विषय है- सदन की बैठकों का। भगवान भरोसे कहो या सत्तापक्ष का लिहाज। पीठासीन अधिकारी गंभीर ही नहीं है। जबकि मतदाता के लिए सर्वाधिक महत्व का विषय है। सच बात तो यह भी है कि बैठकों के लिए प्रावधानों का भी अभाव है। सन् 2001 में, चंडीगढ़ सम्मेलन में सिफारिश की गई थी कि बडे़ राज्यों में साल में कम से कम एक सौ और छोटे राज्यों में 60 बैठकें होनी चाहिए। हुई क्या? आज तो स्थिति कुछ विपरीत ही है। सरकारें बैठकें टालती रहती है। अध्यक्ष सूचना जारी करते हैं सदन 15 दिन के लिए आहूत किया है और सरकार कब कार्यवाही समाप्त कर दे, अध्यक्ष के अधिकारों का कोई सम्मान नहीं। न ही अध्यक्ष आपत्ति जताते हैं। एक बात और, कई बार तो सरकारें अपनी सुविधा के हिसाब से लंबे समय तक विधानसभा का सत्रावसान ही नहीं करती। इससे विधायकों के प्रश्न पूछने की सीमा भी प्रभावित होती है। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाई जानी चाहिए।

अध्यक्ष सत्तापक्ष की ओर झुका दिखाई पड़ता है। उसे भी डर है कि अगले चुनाव में टिकट नहीं कटना चाहिए। तब कैसे निष्पक्ष हो सकता है? उसकी तो राजनीतिक निष्ठा दाव पर है। अध्यक्ष के निर्णय की न कोई समय सीमा है, न ही निर्णय के खिलाफ कोई अपील ही हो सकती है। परिणाम? राजस्थान में कांग्रेंस के 91 विधायकों के इस्तीफे अध्यक्ष के पास रखे चार माह हो गए। अभी तक निर्णय नहीं हुआ। विधायक भी मौजूद हैं और सरकार भी यथावत चल रही है। क्या विधायिका का अर्थ ही प्रश्नों के घेरे में नहीं है? सारी विधानसभाओं के अध्यक्ष आज यहां सम्मेलन में उपस्थित हैं। क्या जनता को निष्पक्षता का आश्वासन दे सकते हैं?

ऐसी ही स्थिति दल-बदल विरोधी कानून की है। इसकी तो इज्जत बिकती ही रहती है। इस कानून से बचने की इतनी गलियां निकाल ली है कि उठापटक रुकती ही नहीं। कानून में कमियों के कारण पीठासीन अधिकारी भी अपने-अपने अर्थ निकाल लेते हैं। जनता पुन: मूकदर्शक! एक जमाना था जब अहम मुद्दों पर चर्चा करने के लिए विशेष सत्र बुलाए जाते थे। जहां निजी संकल्प पारित होते थे। क्यों यह परम्परा लुप्त हो रही है? विषय ही नहीं बचे? आज तो नियमित बैठकों की संख्या ही घटती जा रही है। मानो ये बैठकें करना भी जनता पर अहसान है। सरकारों को विपक्ष का सामना करना गवारा नहीं। दिल्ली सम्मेलन (1989) में तय हुआ कि विधायकों के लिए भी आचार-संहिता होनी चाहिए। क्या यह कभी संभव हो सकेगा? शिमला सम्मेलन (1997) में निष्कर्ष निकाला गया था कि दल के उम्मीदवार यदि शिक्षित और ईमानदार होंगे तो अर्मयादित व्यवहार स्वत: ही कम हो जाएगा। जो नियम-प्रक्रियाएं अभी संविधान में प्रदत्त हैं, उनकी सही से पालना भी हो जाए तो काफी है।

ये कुछ बिन्दु हैं जो 75 साल बाद आज भी इस सम्मेलन से जवाब मांगते हैं। विधायकों की पांच वर्षों के आचरण की रिपोर्ट भी सदन के पटल पर आनी चाहिए। अपराधी विधायक सत्ता के आश्रय में जो नंगा नाच करते हैं, उनका भी रिकार्ड रहना चाहिए। उनको भी कोई रोक-टोक कानून में नहीं है। ऐसे में पीठासीन अधिकारी को नोटिस देकर कार्यवाही करने का अधिकार होना चाहिए। आज किसी को नेता कहना सम्मान सूचक नहीं रहा। सम्मेलन सोचे।

जनता पुन: मूकदर्शक
एक ऐसा ही विषय है- सदन की बैठकों का। भगवान भरोसे कहो या सत्तापक्ष का लिहाज। पीठासीन अधिकारी गंभीर ही नहीं है। जबकि मतदाता के लिए सर्वाधिक महत्व का विषय है। सच बात तो यह भी है कि बैठकों के लिए प्रावधानों का भी अभाव है। सन् 2001 में, चंडीगढ़ सम्मेलन में सिफारिश की गई थी कि बडे़ राज्यों में साल में कम से कम एक सौ और छोटे राज्यों में 60 बैठकें होनी चाहिए। हुई क्या? आज तो स्थिति कुछ विपरीत ही है। सरकारें बैठकें टालती रहती है। अध्यक्ष सूचना जारी करते हैं सदन 15 दिन के लिए आहूत किया है और सरकार कब कार्यवाही समाप्त कर दे, अध्यक्ष के अधिकारों का कोई सम्मान नहीं। न ही अध्यक्ष आपत्ति जताते हैं। एक बात और, कई बार तो सरकारें अपनी सुविधा के हिसाब से लंबे समय तक विधानसभा का सत्रावसान ही नहीं करती। इससे विधायकों के प्रश्न पूछने की सीमा भी प्रभावित होती है। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाई जानी चाहिए।

अध्यक्ष सत्तापक्ष की ओर झुका दिखाई पड़ता है। उसे भी डर है कि अगले चुनाव में टिकट नहीं कटना चाहिए। तब कैसे निष्पक्ष हो सकता है? उसकी तो राजनीतिक निष्ठा दाव पर है। अध्यक्ष के निर्णय की न कोई समय सीमा है, न ही निर्णय के खिलाफ कोई अपील ही हो सकती है। परिणाम? राजस्थान में कांग्रेंस के 91 विधायकों के इस्तीफे अध्यक्ष के पास रखे चार माह हो गए। अभी तक निर्णय नहीं हुआ। विधायक भी मौजूद हैं और सरकार भी यथावत चल रही है। क्या विधायिका का अर्थ ही प्रश्नों के घेरे में नहीं है? सारी विधानसभाओं के अध्यक्ष आज यहां सम्मेलन में उपस्थित हैं। क्या जनता को निष्पक्षता का आश्वासन दे सकते हैं?

ऐसी ही स्थिति दल-बदल विरोधी कानून की है। इसकी तो इज्जत बिकती ही रहती है। इस कानून से बचने की इतनी गलियां निकाल ली है कि उठापटक रुकती ही नहीं। कानून में कमियों के कारण पीठासीन अधिकारी भी अपने-अपने अर्थ निकाल लेते हैं। जनता पुन: मूकदर्शक! एक जमाना था जब अहम मुद्दों पर चर्चा करने के लिए विशेष सत्र बुलाए जाते थे। जहां निजी संकल्प पारित होते थे। क्यों यह परम्परा लुप्त हो रही है? विषय ही नहीं बचे? आज तो नियमित बैठकों की संख्या ही घटती जा रही है। मानो ये बैठकें करना भी जनता पर अहसान है। सरकारों को विपक्ष का सामना करना गवारा नहीं। दिल्ली सम्मेलन (1989) में तय हुआ कि विधायकों के लिए भी आचार-संहिता होनी चाहिए। क्या यह कभी संभव हो सकेगा? शिमला सम्मेलन (1997) में निष्कर्ष निकाला गया था कि दल के उम्मीदवार यदि शिक्षित और ईमानदार होंगे तो अर्मयादित व्यवहार स्वत: ही कम हो जाएगा। जो नियम-प्रक्रियाएं अभी संविधान में प्रदत्त हैं, उनकी सही से पालना भी हो जाए तो काफी है।

ये कुछ बिन्दु हैं जो 75 साल बाद आज भी इस सम्मेलन से जवाब मांगते हैं। विधायकों की पांच वर्षों के आचरण की रिपोर्ट भी सदन के पटल पर आनी चाहिए। अपराधी विधायक सत्ता के आश्रय में जो नंगा नाच करते हैं, उनका भी रिकार्ड रहना चाहिए। उनको भी कोई रोक-टोक कानून में नहीं है। ऐसे में पीठासीन अधिकारी को नोटिस देकर कार्यवाही करने का अधिकार होना चाहिए। आज किसी को नेता कहना सम्मान सूचक नहीं रहा। सम्मेलन सोचे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *