जनगणना में जितनी देरी होगी विकास उतना ही बाधित होगा
2021 की प्रस्तावित जनगणना एक बार फिर स्थगित हो गई है। पहले इसे कोविड के कारण आगे बढ़ाया गया था। इस बार देरी का कारण राज्यों में प्रशासनिक दायरों के निर्धारण में गतिरोध को बताया गया है। इसे अब 30 जून तक आगे बढ़ा दिया गया है। जिलों, तहसीलों, तालुकों और पुलिस थानों की प्रशासनिक सीमाओं के नव-निर्धारण का यह चौथा एक्सटेंशन है।
प्रशासनिक सीमाओं के निर्धारण के तीन महीने बाद ही जनगणना का कार्य आरम्भ किया जा सकता है। पहले तय किया गया था कि 2021 की जनगणना का पहला चरण अप्रैल से सितम्बर 2020 के बीच संचालित होगा। इस चरण के अंतर्गत घरों की गणना होती है और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को अपडेट किया जाता है। इसमें भारत के सभी सामान्य नागरिकों को सूचीबद्ध किया जाता है।
दूसरा चरण 5 मार्च 2021 से शुरू होना था, जिसमें आबादी की गणना और सामाजिक-आर्थिक डाटा का संग्रह होना था। लेकिन अभी तक जनगणना की समयसीमा पर कोई स्पष्टता नहीं है। लगता नहीं यह कार्य 2024 के आम चुनावों से पूर्व आरम्भ हो सकेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1872 से हर दशक में नियमित संचालित हो रही जनगणना का क्रम गड़बड़ा गया है और उसके संचालन पर अनिश्चितता की स्थिति बन गई है।
ऐसे में स्वाभाविक ही प्रश्न उठता है कि इस व्यवधान का हमारी विकास परियोजनाओं, सामाजिक महत्व के अनेक कार्यक्रमों और प्रशासनिक मैकेनिज्म पर क्या असर पड़ेगा? अनेक मंत्रालयों के द्वारा संचालित किए जाने वाले कार्यक्रमों के साथ ही गैर-सरकारी और निजी संगठनों की योजनाओं के लिए जनगणना से प्राप्त डाटा बुनियादी महत्व का होता है।
यह न केवल देश में लोगों की संख्या के बारे में बताता है, बल्कि विभिन्न प्रशासनिक क्षेत्रों में आयु और लैंगिक अंतरों के बारे में भी सूचना देता है। जन्म, मृत्यु, आर्थिक गतिविधि, शिक्षा, हाउसिंग, ग्रामीण-शहरी संरचना और प्रवास के आंकड़ों सहित आबादी के सामाजिक, धार्मिक और भाषाई आधारों का निर्धारण जनगणना से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही सम्भव है। इससे बदलती जनसांख्यिकी के बारे में भी समझ निर्मित होती है, जो विकास की दिशा तय करती है।
शासकीय कार्यों के साथ ही बजटीय आवंटनों के लिए भी जनसंख्या का भौगोलिक और प्रशासनिक विभाजन जरूरी है। स्कूलों, अस्पतालों का निर्माण, परिवहन सेवाओं का प्रबंधन, डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की नियुक्ति जैसी अनेक गतिविधियों का निर्धारण गांवों, विकासखंडों और जिलों में आबादी के स्तर के आधार पर ही किया जाता है।
प्रशासनिक सीमाओं में बदलाव और प्रशासनिक इकाइयों का पुनर्नियोजन कोई नई बात नहीं है और इससे कभी भी जनगणना में बाधा नहीं आई है। दो जनगणनाओं के बीच नियमित रूप से प्रशासनिक इकाइयों का पुनर्नियोजन होता रहा है। 2011 में देश में 640 जिले और 5924 उप-जिले थे। लेकिन अगर भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली के पोर्टल पर जाकर देखें तो वहां 763 जिलों और 6858 उप-जिलों के बारे में बताया गया है।
ये तमाम नए जिले किन जिलों में से निकालकर बनाए गए हैं और उनकी आधारभूत जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक सूचनाएं क्या हैं, इन्हीं के आधार पर प्रशासनिक कार्यों का सुचारु संचालन, बजटीय आवंटन और कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सम्भव है। प्रशासनिक सीमाओं के अंतर्गत जनसंख्या के आकार के आंकड़े नए संसदीय क्षेत्रों, राजस्व कार्यालयों और पुलिस थानों के गठन के लिए भी जरूरी हैं।
इसके अलावा जनसंख्या के आंकड़ों का व्यवसाय, वाणिज्य, उद्योग के लिए भी बड़ा महत्व है। यह विभिन्न वर्गों के हितग्राहियों की संख्या के निर्धारण का सबसे विश्वसनीय आधार है। सटीक जनगणना के बिना सामाजिक समावेश की योजनाएं अधूरी रह जाती हैं और मानवाधिकार सम्बंधी लक्ष्यों को भी अर्जित नहीं किया जा सकता है।
लगता नहीं कि जनगणना आम चुनावों से पूर्व आरम्भ हो सकेगी। 1872 से हर दशक में नियमित संचालित हो रही जनगणना का क्रम गड़बड़ा गया है और उसके संचालन पर अनिश्चितता की स्थिति बनी है।
(ये लेखकों के निजी विचार हैं।)