आर्थिक प्रयासों का सुशासन के ढांचे में ढलना जरूरी
बेरोजगारी के आंकड़े भयावह तस्वीर दिखाते हैं। एमएसएमई के साथ कृषि क्षेत्र पर नए सिरे से ध्यान देने की जरूरत है। ये क्षेत्र विकास में सहायक हैं और बड़ी संख्या में भारतीयों को रोजगार देते हैं
नरेन्द्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम आम बजट बुधवार को संसद में पेश किया जाएगा। माना जा रहा है कि भारत सरकार का यह बजट ऐसे समय आ रहा है जब वैश्विक आर्थिक परिदृश्य पर कुछ काले बादल छाए हुए हैं। इस परिदृश्य पर गौर करें तो पाएंगे कि विकास अवरुद्ध है, महंगाई उच्च स्तर पर है और भू-राजनीतिक तनाव चरम पर हैं। रूस-यूक्रेन संघर्ष खत्म होता दिखाई नहीं दे रहा। एक समाचार एजेंसी ने गत सप्ताह यूरो चैम्बर्स के अध्यक्ष लक फ्रीडेन का वक्तव्य उद्धृत किया था- ‘हम कठिन आर्थिक दौर से गुजर रहे हैं।’ आइएमएफ के अनुसार, विश्व की एक तिहाई से अधिक अर्थव्यवस्था 2022 में संकुचित हो गई। आशंका है कि 2023 में भी यही क्रम जारी रहेगा। इसका असर भारत पर भी पड़ेगा। भारत स्वयं कठिन दौर से गुजर रहा है। 2024 में होने वाले आम चुनावों के मद्देनजर सरकार पर अप्रत्यक्ष दबाव होंगे कि वह नए वादे करने के साथ तथाकथित चुनावी वर्ष में बजट के लिए खर्चों की मंजूरी दे, जो वोट बटोरना सुनिश्चित कर सके। विश्लेषकों का कहना है कि सरकार को ऐसा करने से बचना चाहिए। इसके लिए उसके पास 2024 में वोट ऑन अकाउंट (चुनाव नजदीक होने पर अगली सरकार आने से पहले साल भर की बजाय कुछ महीनों के लिए पेश किया जाने वाला बजट) पेश करने का मौका होगा, जब चुनाव नजदीक होंगे और वह सौगातों का पिटारा खोल सकती है।
अर्थशास्त्रियों के ब्लूमबर्ग सर्वे में सामने आया कि अधिकतर लोगों ने उम्मीद जताई है कि बजट में लोकलुभावन घोषणाओं से दूरी बनाते हुए निर्माण क्षेत्र को मजबूत बनाने व रोजगार सृजन पर फोकस किया जाए। राजकोष पर दबाव है और वह कोविड-19 के झटकों से पूरी तरह से नहीं उबरा है। 2020-21 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 9.2 प्रतिशत पहुंच गया जो कि 2019-20 के मुकाबले दो गुना था। 2022-23 के बजट अनुमानों में राजकोषीय घाटा 6.4 प्रतिशत आंका गया, परन्तु 2025-26 में राजकोषीय घाटा 4.5 प्रतिशत से कम रखने का सरकार का लक्ष्य आसान नहीं है। आज निजी निवेश नहीं बढ़ रहा है, महंगाई लगातार बनी हुई है, खास तौर पर खाद्यान्न व ईंधन की कीमताें के रूप में। उत्पाद व सीमा शुल्क घट गए हैं और विनिवेश हमेशा की तरह ही चुनौतीपूर्ण रहेगा। रोजगारों के अवसर सृजित करना सरकार के लिए एक और बड़ी चुनौती है। बेरोजगारी के आंकड़े भयावह तस्वीर दिखाते हैं। एमएसएमई के साथ कृषि क्षेत्र पर नए सिरे से ध्यान देने की जरूरत है, जो विकास में सहायक है और बड़ी संख्या में भारतीयों को रोजगार देता है। नए कृषि कानून लागू न होने के मद्देनजर विकास, उत्पादकता, विपणन, कृषि व उद्योगों के बीच नए जुड़ावों पर बल देने की जरूरत है। सरकार किसानों में उत्साह लाने के लिए क्या यह कर सकती है कि वे वैसी चिंताओं में न उलझें जो कृषि कानूनों के समय उनके सामने पेश आईं? यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब केंद्रीय बजट में दिया जाना चाहिए।
अर्थशास्त्री बजट से जुड़े अनुमान के आंकड़े गिनाते हैं, लेकिन विकास के आंकड़े पाने के लिए हमें यह स्पष्टता चाहिए कि दरअसल जरूरत किस बात की है; पहली है-सुशासन के जरिये समावेशी विकास पर गहरा फोकस करने की, ताकि आंकड़े हमारी आंखों में धूल न झोंक पाएं और हम उनके पीछे की वास्तविकता देख सकें। इसके लिए सामाजिक सामंजस्य भी बहुत आवश्यक होता है। दूसरा, भारत के सुशासन ढांचे में वैश्विक निवेशकों का भरोसा जगाना जरूरी है। ऐसा न होने पर अवसरवादी लोग भारत में निवेश के नाम पर धन जमा कर लेंगे और वास्तविक दीर्घावधि निवेशक संकोचवश आगे नहीं आएंगे। कुछ लोगों के लिए भले ही यह बजटीय मुद्दा न हो, लेकिन सुशासन से जुड़ी प्रत्येक चीज बजटीय मुद्दा ही है। कमजोर सुशासन की परिणति कमजोर नीति, कमजोर खर्च, बुरे परिणामों, कमजोर नियमन के रूप में सामने आती है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेशकों का भरोसा कमजोर होता है।
विकास के मुद्दों पर फोकस आवश्यक है। वर्ष 2012 में मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने जीडीपी विकास के संदर्भ में कहा था- ‘विकास ईश्वर प्रदत्त नहीं है…इसके लिए प्रयास करने होंगे।’ ये प्रयास भले ही आर्थिक हों, लेकिन सामाजिक न्याय, सामुदायिक सद्भाव, लोकतांत्रिक संस्थानों का सम्मान और सुशासन संरचना के लिए भी कारगर होने चाहिए। आंकड़े महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, वह नजरिया जो यह आंकड़े प्रस्तुत करता है और जिसके बल पर इन्हें हासिल करना है।