जुझारू युवा ही ले जाएंगे देश को विकास की नई राह पर …!
युवाओं को पुरानी मानसिकता से बाहर निकालकर रिसर्च और इनोवेशन के लिए तैयार करना होगा …
विकसित देशों में युवा 20 साल का होते-होते अपने स्वयं के इनोवेशन के लिए काम करने लगता है। वह लगातार अपने बल पर सफलता की ऊंचाई छूने की कोशिश में लगा रहता है। मगर भारत के हालात अलग हैं।
क हते हैं कि युवा देश की धड़कन ही नहीं, उसके भविष्य का नियामक और नियंता भी होता है। स्वामी विवेकानंद ने जिस युवा पीढ़ी की ऊर्जा और राष्ट्रीय चरित्र की बात कही थी, वह आज बिखरी सी क्यों नजर आ रही है? केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले 15 साल में 100 में से 77 लोग बूढ़े होंगे। सतत विकास के एजेंडे की बात करें, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र सन 2030 तक युवा रोजगार के अवसरों को बढ़ाने और शिक्षा, रोजगार या प्रशिक्षण में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यदि भारत की बात करें, तो देश की युवा पीढ़ी के लिए सरकारी नौकरी सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। यदि व्यक्तित्व में कर्मठता और ईमानदारी के साथ-साथ जिम्मेदारी का अहसास भी हो तो, किसी भी सेक्टर की नौकरी के प्रति अति आकर्षण कोई बुरी बात नहीं है।
देश की आजादी के 75 साल पूरे हो चुके हैं। अमृत महोत्सव का माहौल है। यह महोत्सव अति प्रशंसनीय है, मगर हमें स्वयं अपनी इस लोकतांत्रिक यात्रा का पुनरावलोकन करना चाहिए कि हमें पहुंचना कहां था और हम जा किधर रहे हैं? सवाल उठता है कि भारत की धीमी प्रगति का एक कारण कहीं सरकारी नौकरी के प्रति युवाओं का अति लगाव, सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार में लिप्त होने के साथ-साथ कामकाज की तुलना में अधिक तनख्वाह एवं सुविधाएं देना तो नहीं है? आजादी के 75 साल बाद भी 92 प्रतिशत युवाओं में रिस्क लेने की क्षमता ही नहीं विकसित हो पाई। आखिर वे सिर्फ सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी से चिपक कर अपना जीवनयापन क्यों करना चाहते हैं? यह बात सच है कि बिना रिस्क उठाए सफलता की ऊंचाई प्राप्त नहीं की जा सकती, चाहे क्षेत्र कोई भी हो। ऐसा लगता है कि देश का अधिकांश युवा वर्ग बिना पानी में उतरे तैरने का चैंपियन बनना चाहता है। हाल में सरकारी नौकरियों के लिए पेपर आउट होने की प्रवृत्तियों ने तो सारे तंत्र को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। परीक्षा तंत्र को जैसे पेपर आउट की दीमक लग चुकी है।
विकसित देशों में युवा 20 साल का होते-होते अपने स्वयं के इनोवेशन के लिए काम करने लगता है। बार-बार फेल होकर भी वह सफलता की ऊंचाई छूने की कोशिश में लगा रहता है। मगर भारत के हालात अलग हैं। कितना हास्यास्पद है कि हमने कुछ सरकारी नौकरियों को इतना महिमामंडित कर दिया है कि हर व्यक्ति वही नौकरी करना चाहता है, जिसमें दबंगई हो। अरे भाई, सभ्य समाज में दबंगई की जरूरत ही क्या है। उधर उच्च शिक्षण संस्थान पढ़ाई की बजाय राजनीति के केंद्र बन रहे हैं। राजनीति बुरी नहीं, मगर आलम यह है कि वहां ऐसे नेता नजर आते हैं, जिनका पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। वे समय-समय पर बस अपनी ताकत ही दिखाते रहते हैं। देश को आजाद हुए 75 साल हो चुके हैं और हम हैं कि अब भी हम अपने युवाओं को पुरानी मानसिकता से बाहर निकालकर रिसर्च और इनोवेशन के लिए तैयार ही नहीं कर पा रहे।
मुश्किल यह है कि वरदान मानी जाने वाली तकनीक को भी युवाओं ने अभिशाप बना लिया है। पहले युवाओं के नशीली पदार्थों से नशेड़ी होने का खतरा होता था, जिसे वह चुपके-चुपके करता था। मगर आज का युवा तो मोबाइल का नशा खुलेआम करता है और हर जगह करता है, खुल्लम खुल्ला करता है। वह इतना आदी हो गया है कि उसके पास दूसरी बात सोचने की फुर्सत ही नहीं है। यह नशा कोरोना काल के बाद तो उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि पिछले एक दशक से भी कम समय में यह संक्रमण कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में ही नहीं स्कूलों तक फैल चुका है। कॉलेज में तो क्लास खत्म होने के बाद सब अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हो जाते हैं। दोस्तों की बजाय वर्चुअल रील्स के साथ समय व्यतीत करते हैं। इस इंट्रोवर्ट जनरेशन को देख कर चिंता होती है। हालत यह है कि आपस में साथ बैठकर भी युवा अकेले ही होते हैैं। कितना हास्यास्पद है कि ट्रेन के सुहाने सफर में भी दो दोस्त आपस में बातचीत करने की बजाय सोशल मीडिया पर मैसेज आदान-प्रदान कर मुस्कुरा रहे हैं। जीवन के दो मुसाफिरों के लिए एक गीतकार ने लिखा है, ‘चले थे साथ मिलकर, चलेंगे साथ मिलकर, तुम्हें रुकना पड़ेगा, मेरी आवाज सुनकर’। मगर अफसोस कि यह आवाज आज वॉइस रिकॉर्डिंग वाली ऑडियो आवाज है, न कि दो दोस्तों की असली आवाज। दिग्भ्रमित युवा वर्ग के बीच मासूम बच्चे की अभिलाषा पर गौर कीजिए, ‘मुझे ऑफलाइन मां चाहिए, जो मेरे साथ बात कर सके, खेल सके और प्यार कर सके।’ बचपन कितना मजबूर रहा होगा कि दिल की आवाज कलम के माध्यम से कागज पर लिखे निबंध में झांकने लगी। युवा वर्ग को जिम्मेदार और जुझारू बनाने के साथ हर तरह के नशे से बचाने के ठोस प्रयास आवश्यक हैं, ताकि परिवार, समाज और देश का भी भविष्य खतरे में न पड़े।