महिला-पुरुष रूपी डबल इंजन से दौड़ेगी देश की अर्थव्यवस्था

अधिक शिक्षित होने के बावजूद महिलाओं को नौकरियों में वे अवसर नहीं मिल रहे हैं, जो पुरुषों को मिलते हैं …

भारत की राष्ट्रपति आज एक महिला है, केंद्रीय वित्त मंत्री एक महिला है, एक बड़े राज्य की मुख्यमंत्री महिला है, महिलाएं फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियों की सीईओ हैं, जब देश की यह तस्वीर हम देखते हैं तो लगता है भारत में महिलाओं का स्वर्णिम युग चल रहा है। लेकिन, यह तस्वीर उतनी भी उजली नहीं है, जितनी दिखाई देती है। आज भी महिलाओं का अर्थव्यवस्था में वह योगदान नहीं है, जिसकी वे सही मायने में हकदार हैं। कृषि क्षेत्र से लेकर रोजगार के बाजार में उनकी घोर उपेक्षा हो रही है। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण में केंद्र सरकार ने भी इस बात को स्वीकारा है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में ग्रामीण महिला श्रम बल भागीदारी दर में पिछले कुछ सालों में वृद्धि हुई है। वर्ष 2018-19 में यह दर 19.7 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2020-21 में 27.7 प्रतिशत हो गई। यदि शहरों में महिला श्रम बल भागीदारी दर की बात करें तो यह करीब 17 प्रतिशत ही है। ग्रामीण और शहरी दर को जोड़ लें तो यह 21-22 प्रतिशत ही होती है, जबकि वैश्विक प्रतिशत 47 है। यानी हमारे और दुनिया के बीच दोगुने से ज्यादा का अंतर है। शायद यही कारण है कि भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान मात्र 18 प्रतिशत ही है, जो आबादी के लिहाज से बेहद कम है। सवाल यह है कि महिला श्रम बल भागीदारी का मतलब क्या है? असल में 15 से 59 साल की महिलाएं, जो या तो काम कर रही हों या काम की तलाश में हों, दोनों को मिलाकर जो प्रतिशत आता है, उसे ही महिला श्रम बल भागीदारी कहते हैं। हमारा 75-78 प्रतिशत महिला श्रमबल न तो ‘गेनफुल एंप्लॉयमेंट’ में भागीदारी कर रहा है और न ही वह किसी तरह का ‘फुल एंप्लॉयमेंट’ कर रहा है। मतलब साफ है, मात्र 21-22 प्रतिशत महिलाएं ही देश की आर्थिक गति को ईंधन दे रही हैं। चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, अमरीका जैसे देशों में महिलाओं का वहां की अर्थव्यवस्था में काफी बड़ा योगदान है। इन देशों में महिला श्रम बल भागीदारी भारत से दो से तीन गुना तक अधिक है। बांग्लादेश और चीन में तो क्रमश: यह 70 से 80 प्रतिशत है।

अच्छी बात यह है कि देश में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है और महिला-पुरुष, दोनों ही शिक्षित हो रहे हैं। यदि हम पिछले एक दशक को देखें तो सुखद बात यह है कि महिलाओं में शिक्षा का स्तर पुरुषों के मुकाबले कहीं तेजी से बढ़ा है, लेकिन विडंबना यह है कि अधिक शिक्षित होने के बावजूद महिलाओं को नौकरियों में वे अवसर नहीं मिल रहे हैं, जो पुरुषों को मिलते हैं, यानी यहां पर एक तरीके का लैंगिक भेदभाव अभी खत्म नहीं हो पाया है। यह भी देखने में आया है कि वेतन को लेकर पुरुषों और महिलाओं में एक असमानता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के वर्ष 2022 के वार्षिक ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स के अनुसार महिलाओं की भागीदारी और अवसरों की बात करें, तो भारत 146 देशों में से 143वें स्थान पर है।

यदि महिलाएं अधिक संख्या में कामकाजी नहीं होंगी तो उसका देश पर विपरीत असर ही होगा। यदि उनकी श्रम बल भागीदारी नहीं बढ़ेगी, तो लड़कियों के ऊपर एक तरह का दबाव रहेगा कि कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाए। कम उम्र में शादी से जल्द बच्चों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ जाती है। यह शाश्वत सत्य है कि दुनिया की बहुत बड़ी समस्याओं को केवल महिलाओं को सशक्त करके ही दूर किया जा सकता है। महिलाएं गरीबी, भूख और अशिक्षा के खिलाफ बहुत अच्छे से लड़ाई लड़ सकती हैं। यदि उन्हें रोजगार के उच्च अवसर मिलें और उनका अर्थव्यवस्था में योगदान बढ़े तो वे न केवल स्वयं का, बल्कि तीन पीढ़ियों (घर के बुजुर्गों, खुद की पीढ़ी और अगली पीढ़ी) का एक साथ ध्यान रख सकती हैं।

देश में बार-बार 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी के लक्ष्य की बात होती है। यह लक्ष्य पा ही लिया जाएगा, लेकिन यदि महिलाओं का पुरुषों के बराबर योगदान देश की अर्थव्यवस्था में हो जाए, तो 5 ट्रिलियन डॉलर क्या, 10-15-20-40 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी भी असंभव नहीं रहेगी। सही मायने में देश को पुरुष और महिला रूपी डबल इंजन की आवश्यकता है। ऐसे में सरकार के साथ समाज को भी संकल्प लेने की आवश्यकता है कि वह देश की महिलाओं को समान अवसर प्रदान करने की दिशा में कार्य करेगा।

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