सिंधिया ने दो बार गिराई कांग्रेस की सरकार …!

दादी के नक्शे कदम पर चले ज्योतिरादित्य, बोले-वादाखिलाफी, छलकपट बर्दाश्त नही …

केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनावी मूड में आ गए हैं। उन्होंने कांग्रेस पर तीखा हमला करते हुए हुए साफ संकेत दे दिए हैं वादाखिलाफी और छलकपट बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सोमवार को शिवपुरी की सभा में अपनी दादी को याद करते हुए कमलनाथ को जमकर कोसा। बोले-कांग्रेस ने जब भी वादाखिलाफी की तो धूल चटाने के लिए मैदान में सिंधिया परिवार का सदस्य खड़ा था। जब जनता के साथ छलकपट किया था, तो मेरी आजी अम्मा (विजयाराजे सिंधिया) ने डीपी मिश्रा की सरकार गिराई थी। उसी आजी का पोता आपके सामने खड़ा है। जब कोई आपके साथ छल करेगा, आपकी ढाल और तलवार ज्योतिरादित्य सिंधिया बनेगा। सिंधिया परिवार ने कभी राजनीति की नहीं, बल्कि जनसेवा की सौगंध खाई है। राजनीति केवल एक माध्यम है।

 दोनों बार क्यों और कैसे गिराई गई थी सरकार

  • वर्ष-1967 विजयाराजे सिंधिया ने डीपी मिश्रा की सरकार गिराई
  • सबसे पहले बात 1967 की। कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री थे डीपी मिश्रा। ग्वालियर में हुए छात्र आंदोलन को लेकर विजयाराजे की मिश्र से अनबन हो गई थी। 1967 में ही विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने थे। टिकट बंटवारे और छात्र आंदोलन के मुद्दे पर बात करने के लिए विजयाराजे पचमढ़ी में हुए कांग्रेस युवक सम्मेलन में पहुंची थीं। इस सम्मेलन का उद्धाटन इंदिरा गांधी ने किया था। मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार विजयधर श्रीदत्त बताते हैं, ‘‘पचमढ़ी में मिश्रा ने विजयाराजे को 15 मिनट तक इंतजार करवाया। राजमाता को यह इंतजार अखरा था। उन्हें लगा कि डीपी मिश्र महारानी को उनकी हैसियत का अहसास करवाना चाहते थे। विजयाराजे के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था। श्रीदत्त यह भी कहते हैं- विजयाराजे ने छात्र आंदोलनकारियों पर गोलीबारी का मुद्दा उठाया और मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर ग्वालियर एसपी को हटाने की मांग भी की थी, लेकिन मुख्यमंत्री ने ने उनकी बात नहीं मानी।’’ पचमढ़ी के घटनाक्रम के बाद विजयाराजे ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस छोड़ दी। वे गुना संसदीय सीट से स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर उतरीं और जीतीं। चुनाव के बाद 36 विधायकों ने कांग्रेस छोड़ दी और विजयाराजे ने इन विधायकों के समर्थन से सतना के गोविंदनारायण सिंह को सीएम बनवा दिया। इसी तरह मध्य प्रदेश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी और डीपी मिश्र को इस्तीफा देना पड़ा था।

 

  • वर्ष 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ सरकार गिराई
  • 13 दिसंबर 2018 को राहुल गांधी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की बजाए कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया। राहुल ने तब कहा था कि समय और सब्र दो सबसे बड़े योद्धा हैं। ज्योतिरादित्य और कमलनाथ के बीच दरार यहीं से बढ़ी। ज्योतिरादित्य लगातार मध्य प्रदेश सरकार के प्रति आक्रामक रुख अख्तियार करते गए। उन्होंने अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया था। ज्योतिरादित्य ने इसी साल फरवरी में वचनपत्र के वादों को पूरा करने पर सवाल उठाया था। उन्होंने कहा था कि वादे पूरे नहीं हुए तो सड़कों पर उतरेंगे। इसके कुछ दिनों बाद ही सोनिया से मिलकर लौट रहे कमलनाथ से मीडिया ने ज्योतिरादित्य के बयान पर सवाल किया कि वे सड़कों पर उतरने की बात कह रहे हैं? कमलनाथ से जवाब दिया- उतर जाएं…। यही बात ज्योतिरादित्य को नागवार गुजरी। 9 मार्च को कमलनाथ राज्यसभा चुनाव को लेकर सोनिया गांधी से मिलने दिल्ली पहुंचे। मुलाकात के बाद मीडिया ने पूछा कि ज्योतिरादित्य को राज्यसभा भेजने पर कोई बात हुई, तो कमलनाथ का जवाब था- कोई बात नहीं हुई। इसी जवाब के चंद घंटों बाद 6 मंत्रियों समेत सिंधिया समर्थक 17 विधायकों के फोन बंद हो गए। ये सभी बेंगलुरु चले गए। अगले ही दिन इन सभी ने इस्तीफे सौंप दिए। इनके अलावा 3 अन्य कांग्रेस विधायकों ने भी अपना इस्तीफा मुख्यमंत्री को भेज दिया। सिंधिया समर्थकों के इस्तीफे के बाद कमलनाथ सरकार के सामने सत्ता बचाने की चुनौती आ गई है। माना यह जा रहा है कि भाजपा विधानसभा सत्र में अविश्वास प्रस्ताव लाकर कांग्रेस सरकार गिराने की कोशिश कर सकती है।

अब विस्तार से पढ़िए…राजमाता और डीपी मिश्रा के बीच सरकार गिराने की कहानी

मुख्यमंत्री बनने के 18 दिन बाद द्वारिकाप्रसाद मिश्र ने पहला दौरा ग्वालियर में किया। ग्वालियर में 18 अक्टूबर 1963 की सभा में द्वारिकाप्रसाद मिश्र की तारीफ करते हुए राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने कहा था, “अब मध्यप्रदेश उनके सुयोग्य निर्देशन में रहेगा और इसमें संदेह नहीं कि उनके नेतृत्व में राज्य समृद्धि तथा सुख के अपने गंतव्य स्थान को पहुँच जाएगा।” राजनीति में मिश्रा और राजमाता के बीच समन्वय की यह जुगलबंदी ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। आपसी समन्वय की जगह अकड और अहम ने खाई बना दी।

वर्ष 1967 में विजयाराजे सिंधिया ने द्वारिकाप्रसाद मिश्र की सरकार गिरा दी थी।
वर्ष 1967 में विजयाराजे सिंधिया ने द्वारिकाप्रसाद मिश्र की सरकार गिरा दी थी।

द्वारिकाप्रसाद मिश्र के करीब और दूर होते नेता

वरिष्ठ पत्रकार विजय दत्त श्रीधर बताते हैं द्वारकाप्रसाद मिश्र के शासनकाल में मध्यभारत में गौतम शर्मा को प्राथमिकता मिलती थी। मालवा में वे मिश्रीलाल गंगवाल की सुनते और विध्य अंचल में अर्जुन सिंह पर उनका वरदहस्त था। जब नेता पद के लिए मिश्र-तख्तमल मुकाबला हुआ था, तब मिश्रजी के पक्ष में अभियान चलाने वालों में गोविंदनारायण सिंह अग्रिम मोर्चे पर थे। वे 1952 से लगातार रामपुर बघेलान क्षेत्र से विधायक चुने जा रहे थे। उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा(IAS) के लिए चुना गया था। लेकिन सरकारी नौकरी के बजाय उन्होंने राजनीति में जाना पसंद किया। वे राजनेताओं की जमात में तेज बुद्धि वाले नेताओं की श्रेणी में आते थे। एक बार उन्होंने धार से सम्बंधित किसी मामले की पैरवी की, लेकिन सीएम द्वारकाप्रसाद मिश्र ने टका-सा जवाब देते हुए कह दिया – विभाग तक सीमित रहो। सीएम डीपी मिश्रा का अंदाज कुछ ऐसा था कि गोविंदनारायण सिंह के स्वाभिमान का ठेस लगी। धीरे- धीरे दोनों के बीच दूरी बढ़ती गई। दूसरी तरफ अर्जुन सिंह मिश्रजी के करीब आते गए।

सन 1967 के चुनाव के पहले मध्यप्रदेश में राजनीति का नया समीकरण आकार ले रहा था। 1966 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी थीं। द्वारकाप्रसाद मिश्र ने उनके पक्ष में जबरदस्त मुहिम चलाई। स्वाभाविक था कि वे अपने आपको अत्यंत महत्वपूर्ण नेता मानें। इससे उनके घमंड में और ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई। यहीं से उनकी परेशानियों का नया चैप्टर शुरु हुआ।

अब बात उस सम्मेलन की जिसमें विरोध के बीजों का अंकुरण् हुआ

चुनाव के पहले पचमढ़ी में युवक कांग्रेस का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इंदिरा गांधी ने उद्घाटन किया। नारायण दत्त तिवारी और दिनेश सिंह युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन का जिम्मा संभालते थे। मध्यप्रदेश की ओर से बतौर मेजबान अर्जुन सिंह पचमढ़ी सम्मेलन के प्रभारी थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया तब तक कांग्रेस में थीं। वे द्वारकाप्रसाद मिश्र से मिलने पचमढ़ी पहुंची। उनकी यात्रा का उद्देश्य राजनीतिक और चुनाव से जुडा हुआ था। सीएम मिश्रा ने राजमाता को 15-20 मिनिट तक इंतजार करा दिया। उस वक्त इस इंतजार के मायने यह निकाले गए कि कि मुख्यमंत्री ने महारानी को अपनी सरकारी हैसियत का एहसास कराया है। इस पहले झटके पर राजमाता किसी तरह मन मसोसकर रह गईं। हालांकि बाद में सीएम मिश्र ने सफाई दी कि पहले वे एक-एक मिनिट वाले मुलाकातियों से बातचीत कर राजमाता से चर्चा के लिए फ्री समय देना चाहते थे। मुलाकात हुई तब राजमाता ने ग्वालियर के छात्र आंदोलनकारियों पर पुलिस गोलीबारी का मुद्दा उठाया। मिश्रजी की कार्यशैली का आधार यह मान्यता थी कि लोकसेवक मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह होते हैं। मुख्यमंत्री की जवाबदेही विधायकों के प्रति होती है। राजमाता ने ग्वालियर की लोकसभा सदस्य होने के नाते मुख्यमंत्री को वहां के पुलिस अधीक्षक को हटाने के लिए पत्र लिखा था। यह पत्र जारी भी हुआ था। लेकिन गृह मंत्रालय संभाल रहे मुख्यमंत्री द्वारकाप्रसाद मिश्र ने यह ‘स्टैण्ड’ लिया कि संसद सदस्य के कहने से एसपी नहीं हटता। यह तो एक नमूना है। तनातनी के लिए व्यक्तिगत व्यवहार और राजनीतिक मुद्दों ने खासा बारूद जुटा रखा था। फिर भी दोनों पक्षों के साथ दोस्ताना ताल्लुक रखने वाले कुछ नेताओं ने मेल-मिलाप की कोशिश की। उधर राजमाता के विश्वसनीय सलाहकार सरदार आंग्रे ने दो टूक राय दी कि चुनाव आ रहे हैं, ‘स्टैण्ड लीजिए’ । कांग्रेस संसदीय बोर्ड के सदस्य एसके पाटिल के बंगले पर टिकटों के बँटवारे के लिए मिश्र-राजमाता बैठक हुई। इस बात पर सहमति हो गई कि पूर्व ग्वालियर रियासत के इलाके में पड़ने वाली आधी सीटों के लिए उम्मीदवार राजमाता चुनेंगी और शेष उम्मीदवार द्वारकाप्रसाद मिश्र के हिस्से में आएंगे। यह सहमति क्षणभंगुर साबित हुई, क्योंकि विजया राजे सिंधिया ने दो टूक टिप्पणी कर दी कि बाकी पचास फीसदी काम उम्मीदवारों को जिताने की जवाबदारी वे नहीं लेतीं। इस पर बात टूट गयी और दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए।

अब जानिए कमलनाथ सरकार को गिराने के पीछे की वजह

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक बृजेश राजपूत ने अपनी किताब ‘’वो सत्तरह दिन’’ में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच बढ़ती खाई से लेकर ऑपरेशन लोटस के बारे में विस्तार से लिखा है। राजपूत ने अपनी किताब में लिखा है कि सिंधिया और कमलनाथ के बीच अचानक सब कुछ नहीं हुआ बल्कि एक तरफ सिंधिया का ईगो और दूसरी तरफ कमलनाथ की अकड ने दोनों के बीच दूरियों को खाई में बदल दिया। राजमाता सिंधिया हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ने सरकार गिराने के पीछे कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के अडियल रवैए के कारण बगावत की। हालांकि दूसरी तरफ सिंधिया परिवार ने हमेशा सरकार से अपने मनमुताबिक फैसले कराने के लिए प्रेशर बनाए। लेकिन जब- जब सरकारें गिरीं दोनों बार मुख्यमंत्री भी जिद्दी और अडियल स्वाभाव के रहे।

टीकमगढ़ के बल्देवगढ़ की सभा ने सिंधिया और कमलनाथ के बीच दूरी पैदा की

कमलनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए टीकमगढ़ के बल्देवगढ़ में एक सभा थी जिसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए। इस कार्यक्रम के दौरान अतिथि शिक्षक बार- बार नारेबाजी कर रहे थे। सिंधिया ने अतिथि शिक्षकों की मांगों को लेकर कह दिया कि यदि आपकी बात नहीं सुनी गई तो मैं आपके साथ सड़क पर उतरुंगा। सिंधिया के इस बयान पर कमलनाथ ने मीडिया में बयान दे दिया कि यदि वे उतरते हैं तो उतर जाएं। कमलनाथ के इस बयान ने सिंधिया समर्थकों को उबलने का मौका दे दिया।

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