चंबल को डाकुओं का गढ़ कहने पर …. ऐतराज ..!

पान सिंह तोमर के पोते बोले- बागियों को डकैत कहकर अपमान न करें …

कांग्रेस विधायक रविंद्र सिंह तोमर को चंबल को डाकुओं का गढ़ कहने पर ऐतराज है। मुरैना जिले की दिमनी सीट से विधायक रविंद्र ने बजट सत्र के दौरान भोपाल में कहा- चंबल में कोई डकैत नहीं हुआ। सभी बागी हुए हैं। इसे डकैतों और बदमाशों से जोड़कर चंबल की धरती के लोगों का अपमान न करें। बता दें, चंबल की पहचान डाकुओं से होती रही है।

रविंद्र सिंह तोमर ने ……. से चर्चा में कहा- अन्याय के खिलाफ बगावत करने की क्षमता अगर देश में कहीं है तो चंबल के लोगों में है। काकोरी कांड के बाद रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में थे तो एक पत्र लिखा था। इसमें उनके बागी तेवर दिखते हैं। विधायक ने इसका जिक्र किया…

देश दृष्टि में माता के चरणों का अनुरागी था
माता पे मरने वालों की नजरों में त्यागी था।
निरंकुशों के विचार से था तो बस बागी था
जा रहा हूं मात्र यही वर, भारत में फिर जन्म धरूं।
स्वतंत्रता के लिए एक बार नहीं, जननी सौ-सौ बार मरूं।।

रविंद्र सिंह तोमर ने कहा- मैंने विधानसभा में अध्यक्ष महोदय से अनुरोध किया था, मैं समाज और मीडिया के मित्रों से भी कहना चाहता हूं कि चंबल को डाकुओं और बदमाश का क्षेत्र कहना चंबल के लोगों का अपमान है। अन्याय के खिलाफ बगावत करने की क्षमता वाले लोग चंबल में हैं। उन्हें बागी कह सकते हैं।

जयप्रकाश नारायण ने बागियों के आत्मसमर्पण की मुहिम सुब्बाराव के नेतृत्व में चलाई थी। उसमें 500 बागियों ने जौरा में आत्मसमर्पण किया था। डाकू, बदमाश कभी आत्मसमर्पण नहीं करते। जौरा में आज भी शिला पटि्टका लगी है। उसमें लिखा है- चंबल के बागियों की बंदूकें गांधी के चरणों में… आजादी के आंदोलन में बिस्मिल जी ने भारत मां के लिए जो त्याग और समर्पण किया वो अद्वितीय है। वो भी चंबल की धरती के निवासी थे।

पान सिंह तोमर के पोते हैं विधायक रविंद्र

विधायक रविंद्र सिंह तोमर चंबल में आतंक का पर्याय रहे पान सिंह तोमर के पोते हैं। रविंद्र कहते हैं कि हमारे बाबा पान सिंह तोमर यदि आज जीवित होते तो मिल्खा सिंह से बड़े धावक होते। उन्होंने 17 देशों में सबसे तेज धावक के मैडल जीते थे, लेकिन अन्याय जब बढ़ा तो उन्होंने बंदूक उठा ली। बगावत का रास्ता अख्तियार कर लिया। जो लोग चंबल को डाकुओं और बदमाशों का क्षेत्र कहते हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि चंबल ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ बगावत उस समय शुरू की थी जब हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप युद्ध लड़ रहे थे। उस समय चंबल के लोगों ने गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत कर बगावत का बिगुल फूंका था।

अटल प्रोग्रेस-वे का नाम बदला जाए

विधानसभा के बजट सत्र के दौरान 16 मार्च को रविंद्र सिंह तोमर ने विधानसभा में कहा कि चंबल एक्सप्रेस-वे का नाम बदलकर अटल प्रोग्रेस-वे किया गया है। मुझे अटल जी के नाम पर आपत्ति नहीं है, लेकिन नाम बदला ही जा रहा है तो पं. रामप्रसाद बिस्मिल के नाम पर किया जाना चाहिए।

अब जानिए तेज धावक से पान सिंह तोमर के गैंगस्टर बनने की कहानी…

1 जनवरी 1932 को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के भिडौसा गांव में एक बच्चे का जन्म हुआ। उस बच्चे ने चलने सीखने वाली उम्र में दौड़ना शुरू कर दिया। गांव-घर के लोग 4 साल के बच्चे को फुल स्पीड में दौड़ते हुए देख अचंभित हुआ करते थे। बच्चा 17 साल का हुआ तो फौज की राजपूताना राइफल्स में उसका सिलेक्शन हो गया। साल 1949 से लेकर 1979 तक फौज में नौकरी की। फौज की नौकरी करते हुए 7 बार राष्ट्रीय बाधा दौड़ का चैंपियन बना। एशियन गेम्स टोक्यो, जापान में भारत को रिप्रेजेंट भी किया।

1975 में पान सिंह तोमर सेना के जवान हुआ करते थे।
1975 में पान सिंह तोमर सेना के जवान हुआ करते थे।

पेट भरने के लिए सेना का स्पोर्ट्स कोटा जॉइन कर लिया

पान सिंह 6 फुट का हट्टा-कट्टा जवान था। सेना में जाने के बाद दिन-रात मेहनत करता था, इसलिए भूख भी बहुत लगती थी। सामान्य कोटा वाले फौजियों की खुराक निश्चित थी। खाने को गिनती की रोटियां मिलती थीं। उन रोटियों से पान सिंह का पेट नहीं भरता था, इसलिए उसने स्पोर्ट्स कोटा जॉइन कर लिया।

पान सिंह राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगा। साल 1950 से लेकर 1960 के बीच उसने 7 बार नेशनल स्टीपल चैम्पियनशिप जीती। इसके बाद वे सूबेदार बनाए गए।

अपनी पत्नी इंद्रा, मां और बच्चों के साथ पान सिंह तोमर।
अपनी पत्नी इंद्रा, मां और बच्चों के साथ पान सिंह तोमर।

जमीनी विवाद के कारण समय से पहले नौकरी छोड़ दी

नौकरी करते हुए पान सिंह का जीवन सही बीत रहा था। घर में बीवी, 2 बच्चे और मां थी। इसी बीच गांव में उसकी जमीन को लेकर विवाद होना शुरू हो गया। उसने वक्त से पहले नौकरी छोड़ गांव में रहकर खेती करने का फैसला लिया। पान सिंह और उसके चाचा की कुल मिलाकर ढाई बीघा जमीन थी। चाचा ने पूरी जमीन गांव के दबंगों बाबू सिंह और जंडेल सिंह तोमर के पास गिरवी रख दी।

कुछ दिनों बाद बाबू सिंह तोमर ने पूरी जमीन पर कब्जा कर चाचा को खेती करने से मना कर दिया। पान सिंह तोमर गांव पहुंचा तो उसने पंचायत बुलाई। पंचायत ने फैसला सुनाया कि पान सिंह और उसका चाचा बाबू सिंह को उसके पैसे चुकाएं और जमीन वापस ले लें। पान सिंह तैयार हो गया, लेकिन बाबू तोमर जमीन वापस करने के मूड में नहीं था। इसके बाद पान सिंह बागी हो गए।

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